उत्तराखंड के उत्तरकाशी में धराली गांव के बह जाने की घटना का वीडिया भयावह है। पूरा देश उस वीडियो को देख रहा है और चिंतित हो रहा है कि आखिर यह सब क्या हो रहा है! जिनको जलवायु परिवर्तन या पारिस्थितिकी से खिलवाड़ के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है वे भी कह रहे हैं कि अब कुछ करना होगा। हालांकि यह तात्कालिक प्रतिक्रिया है श्मशान वैराग्य की तरह। क्योंकि अगर सरकारों और नागरिक समाज को चेत जाना होता तो 2013 का केदारनाथ हादसा उसके लिए बहुत था। उसके बाद तो पहाड़ों पर खास कर उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर में सब कुछ रोक कर प्रकृति के साथ की गई ज्यादतियों को ठीक करने की मुहिम शुरू हो गई होती।
आखिर उस पैमाने की त्रासदी तो पहाड़ों में कभी देखी नहीं गई थी। यह जरूर है कि 1952 में भयानक बारिश के बाद उत्तराखंड का एक पूरा कस्बा तबाह हो गया था लेकिन 2013 के केदरानाथ हादसे में जितने लोग मरे उतने तब भी नहीं मरे थे। केदारनाथ हादसे में आधिकारिक रूप से छह हजार से ज्यादा लोगों की मौत हुई और करीब चार हजार लोग अब भी लापता हैं। लेकिन हम लोगों ने उससे भी कोई सबक नहीं लिया। थोड़े दिन के शोक और गुस्से के बाद सब कुछ पहले की तरह चलता रहा।
अब उत्तरकाशी में खीरगंगा नदी के ऊपर बादल फटा या हैंगिंग ग्लेशियर टूट कर गिर गया, जिससे अचानक आई बाढ़ के पानी के साथ आए मलबे में पूरा धराली कस्बा बह गया तो फिर चौतरफा चर्चा शुरू हो गई है और हर व्यक्ति कहने लगा है कि प्रकृति से खिलवाड़ नहीं होना चाहिए। लेकिन सवाल है कि क्या अब खिलवाड़ रूक जाएगा? क्या पहाड़ों में पनबिजली की परियोजनाएं नहीं बनेंगी? क्या नदियों का रास्ता मोड़ उनके प्राकृतिक प्रवाह को बाधित नहीं किया जाएगा? क्या पहाड़ों पर बड़े बड़ बांध नहीं बनाए जाएंगे? क्या पहाड़ों पर टूरिस्ट स्पॉट नहीं विकसित होंगे और नए रिसॉर्ट नहीं बनेंगे? क्या पहाड़ों में विकास की गतिविधियों के नाम पर अनाप-शनाप पेड़ों की कटाई बंद हो जाएगी? क्या अंधाधुंध खनन बंद हो जाएगा?
लिख कर रख लें, इसमें से कुछ नहीं होगा। धराली की घटना के बाद भी सब कुछ पहले की तरह चलता रहेगा। थोड़े दिन का पॉज होगा और उसके बाद फिर वही किस्सा। चाहे जोशीमठ में मकानों में दरार आ जाए या कहीं सुरंग धंस जाए, कहीं बादल फटे, कहीं भूस्खलन हो या कहीं बाढ़ आ जाए उससे नदियों, पहाड़ों, जंगलों का अंधाधुंध शोषण करने वालों पर कोई फर्क नहीं पड़ता है।
सबको पता है कि अचानक पहाड़ों पर इतने बादल क्यों फटने लगे हैं और सबको यह भी पता है कि इतना भूस्खलन क्यों हो रहा है। लेकिन सबने आंखें मूंद रखी हैं। जिनकी जिम्मेदारी इसको ठीक करने की है वे अंधाधुंध निर्माण, जंगलों की कटाई, उत्खनन, बांध आदि को विकास बता कर अपनी पीठ ठोक रहे हैं। उत्तराखंड या हिमाचल प्रदेश में पहाड़ पर बादल फटने और फ्लैश फ्लड यानी अचानक बाढ़ आने के कई कारणों में से एक कारण यह भी है कि मानसून का सीजन लगातार सिमटता जा रहा है। पहले चार महीने का मानसून सीजन होता था लेकिन अब यह महज दो महीने का रह गया है। एकाध अपवाद छोड़ दें तो मानसून दो महीने में समाप्त हो रहा है। जितनी बारिश होनी है इन दो महीनों में होती है।
सरकार तो इस आंकड़े पर आंख मूंद कर यकीन करती है कि सामान्य बारिश हुई या सामान्य से थोड़ी कम या ज्यादा बारिश हुई। लेकिन सामान्य बारिश यानी सौ फीसदी बारिश अगर दो ही महीने में हो रही है तो उसका नुकसान तो होगा। इसका कारण जलवायु परिवर्तन है। बारिश और सर्दियों का सीजन चार महीने में खत्म हो जा रहा है और आठ महीने गर्मी पड़ रही है। अगर प्रकृति के चक्र को ठीक करने का प्रयास नहीं हुआ तो स्थिति और बिगड़ती जाएगी। पहली औद्योगिक क्रांति के बाद से पृथ्वी ढाई फीसदी ज्यादा गर्म हो चुकी है और अगले 25 साल में दो फीसदी और गर्म हो सकती है। इसका मतलब है कि धरती को पहले बुखार हुआ और अब बुखार बढ़ रहा है, जिससे उसकी सेहत खराब हो रही है। जैसे बुखार आदमी के शरीर को तोड़ता है वैसे ही सामान्य से चार फीसदी ज्यादा तापमान धरती के शरीर को तोड़ देगा और उसे ठीक करना इंसान के वश में नहीं रह जाएगा।
बहरहाल, अचानक बादल फटने का एक कारण मैदानी इलाकों में वन क्षेत्र में लगातार आ रही कमी है। वैसे तो पहाड़ों पर भी जंगल काटे जा रहे हैं लेकिन मैदानी इलाकों में जंगल की कटाई इस रफ्तार से हो रही है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। समूचे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के मैदानी इलाकों में जंगल साफ होते जा रहे हैं और उनकी जगह कंक्रीट के जंगल खड़े हो रहे हैं। औद्योगिक निर्माण हो रहे हैं और हाउसिंग सोसायटीज बन रही हैं। उत्तर प्रदेश और दिल्ली, हरियाणा से जाकर बड़ी संख्या में लोग घर, फ्लैट और जमीन खरीद रहे हैं। वे उत्तराखंड के मैदानी इलाकों में साफ हुए जंगल की जगह अपने फार्म हाउसेज बना रहे हैं। इसका नतीजा यह है कि आसमान में जब बादल बनते हैं तो उनके बरसने के लिए मानसून की हवाओं को मैदानी इलाकों में अनुकूल हालात नहीं मिलते हैं। मैदानी इलाकों में वन क्षेत्र की कमी के कारण बादल पहाड़ों पर बरसते हैं या फटते हैं, जिससे अचानक बाढ़ आ जाती है।
इसके अलावा भागीरथी नदी पर बना करीब 260 मीटर ऊंचा टिहरी बांध भी बादल फटने की घटनाएं बढ़ने का एक कारण है। पहले भागीरथी नदी का जलग्रहण क्षेत्र अपेक्षाकृत बहुत छोटा था। लेकिन बांध की वजह से इसका ऊपरी जल क्षेत्र 50 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा हो गया है, जहां बड़ी मात्रा में पानी इकट्ठा होता है। इससे बादल बनने की प्रक्रिया तेज हो गई है। मानसून सीजन में बहुत ज्यादा बादल बनते हैं और फटते हैं। पहले बादल फटने की घटनाएं इक्का दुक्का होती थीं। लेकिन अब नदियों के प्राकृतिक बहाव को बाधित करने से असंतुलन बना है, टिहरी बांध में भारी मात्रा में पानी इकट्ठा होने से बादल ज्यादा बन रहे हैं और मैदानी इलाकों में वन क्षेत्र नहीं होने से बादल पहाड़ों पर फट रहे हैं।
यह ध्यान रखने की जरुरत है कि प्रकृति के साथ खिलवाड़ की वजह से प्रकृति का चक्र बिगड़ा है और अब एक साथ कई बादल फटने की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है, जिससे अचानक बाढ़ आ जा रही है। इस पूरे मामले में एक बात पर और ध्यान देने की जरुरत है कि अब आ रही बाढ़ से नुकसान बढ़ता जा रहा है। इसका कारण यह है कि लोग पारंपरिक तरीकों को छोड़ कर नदियों के किनारे बसने लगे हैं। पहले पहाड़ों में गांव नदी से दूर बसाए जाते थे। लेकिन अब नदियों के किनारे घर बनाए जाने लगे हैं। पर्यटकों की मांग को देखते हुए नदियों के किनारे छोटे होटल, रिसॉर्ट या होमस्टे के लिए घर बनाए जा रहे हैं।
धराली में भी ऐसे ही होटल और होमस्टे बह गए हैं। दूसरा कारण यह है कि नियमों को ठेंगा दिखा कर इकोसेंसिटिव जोन में निर्माण हो रहा है। धराली में जहां यह हादसा हुआ है वह भी ऐसे ही जोन में आता है। फिर वहां निर्माण कैसे हुआ इसकी जांच होनी चाहिए। ऐसे तमाम इलाके मिल जाएंगे, जहां कानूनी तौर पर निर्माण पर रोक लगी हुई है लेकिन वहां निर्माण हुए हैं। इससे पहाड़ों में मानवीय गतिविधियां इतनी बढ़ गई हैं कि जंगल और पहाड़ उसे बरदाश्त नहीं कर पा रहे हैं। सरकारों के साथ साथ स्थानीय नागरिकों को भी पहल अपने हाथ में लेनी होगी। इसकी शुरुआत पेड़ों की कटाई और इकोसेंसिटिव जोन में निर्माण रोकने से हो सकती है।