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दुनिया और अमेरिका दोनों ट्रंप फर्स्ट के मारे हुए!

डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिका के राष्ट्रपति की कुर्सी जितना ही मोह अपनी ही शख्सियत से भी है। उन्हे डोनाल्ड ट्रंप बने रहना ही सबसे ज़्यादा आनंद दे रहा है। जब लोग उनके सामने झुकते हैं- सम्मान में नहीं, बल्कि डर में – तो उनकी आंखों में एक अलग ही चमक उभरती है। अपना यह रूतबा उन्हें ऊर्जा देता है, और उसी से वे खुद को ताक़तवर महसूस करते हैं। क्योंकि उन्हें सत्ता नहीं चाहिए, उन्हें चाहिए समर्पण। और फिलहाल, दुनिया उन्हें यह समर्पण सोने की थाली में परोस रही है। सचमुच।

शुरुआत टिम कुक से करें। एप्पल के सीईओ ने एक दरबारी अंदाज़ में ट्रंप को 24-कैरेट गोल्ड बेस पर सजी एक “विशेष” कांच की मूर्ति भेंट की— आईफोन ग्लास निर्माता कॉर्निंग की ओर से। और साथ ही एप्पल ने अमेरिका में 100 अरब डॉलर का नया निवेश करने का वादा किया। यह केवल लॉबिंग नहीं थी, यह नारंगी सम्राट के चरणों में चढ़ावा था—ताकि ट्रंप के टैरिफी गुस्से का एप्पल शिकार न बने।

ये है नया ‘नॉर्मल’ — ट्रंप धमकी देते हैं, बाकी दुनिया मुस्कुरा कर झुक जाती है। यही चलन है, यही तो अब खेल है!

उनका पहला वार ब्राज़ील पर हुआ, कुछ सामानों पर 50% का भारी टैरिफ। वजह व्यापार नहीं, बल्कि राजनीति थी। ट्रंप के सहयोगी और प्रशंसक जायर बोल्सोनारो अपने देश में मुकदमे का सामना कर रहे हैं। इसलिए नीति में  राजनीतिक प्रतिशोध में ट्रंप का फैसला था। जिसे आर्थिक फैसले की शक्ल में निर्यात किया गया।

इसके बाद योरोपीय संघ,  जापान, दक्षिण कोरिया और वियतनाम आए—जिन पर अपेक्षाकृत कम (15%-20%) टैरिफ लगा, क्योंकि इन्होंने “बाज़ार खोलने” और “अमेरिका में निवेश” का वादा किया है। समझौते की शर्तें भले धुंधली रहीं, पर संदेश एकदम साफ़ था—झुको, तो बच जाओगे।

और फिर बारी आई भारत की। हमेशा सॉफ्ट पावर, हमेशा वैश्विक मंच पर शालीन मेहमान।

ट्रंप की शैली में यह हमला दो हिस्सों में आया। पहला, 25 प्रतिशत टैरिफ, क्योंकि मोदी ने भारत-पाकिस्तान युद्धविराम में ट्रंप की मध्यस्थता का सार्वजनिक रूप से संसद में धन्यवाद नहीं किया। दूसरा 25 प्रतिशत और, रूस से भारत के तेल व्यापार के बहाने। पूरा 50 फीसदी टैरिफ — नीतिगत कम, निजी बदले की बू ज़्यादा। नापाक, नकचढ़ा, और जैसे सज़ा थोपने की ठान ली गई हो। भारत को 21 दिन की मोहलत मिली है- जवाब दो, वरना भुगतो।

विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया संयत थी, लेकिन ठोस—टैरिफ को “अनुचित, अनुचित और अकारण” बताया गया। भारत ने 1.4 अरब लोगों के लिए ऊर्जा सुरक्षा को एक संप्रभु अधिकार बताया। साथ ही अमेरिका की चयनात्मक टार्गेटिंग पर परोक्ष रूप से सवाल उठाया। पर यहीं पर सरकार के तेवर थोड़े सख्त हुए—और फिर तुरंत नरम भी।

प्रधानमंत्री मोदी ने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में, जिसमें संकल्प और भाषण एक ही वाक्य में घुल जाते हैं, कहा, “किसान और मछुआरों के हितों से कोई समझौता नहीं करूंगा, चाहे इसकी कितनी भी व्यक्तिगत कीमत चुकानी पड़े।” उन्होंने दो टूक कहा, “मुझे पता है, इसकी बड़ी कीमत चुकानी होगी… लेकिन मैं इसके लिए तैयार हूं।”

पर सवाल यही है—तैयारी किस बात की है? जवाब अब भी कूटनीतिक धुंध में कहीं खोया हुआ है!

असली सवाल जो इस पूरे वैश्विक नाटक की परछाइयों में गूंजता है, वह यह है: दुनिया—लोकतंत्र, साझेदार, आर्थिक महाशक्तियाँ आख़िर क्यों ट्रंप के खेले में खेल रही हैं?

एक ऐसा व्यक्ति, जो हर सहयोगी को ग्राहक मानता है, हर समझौते को अपनी ईगो की खुराक, और हर साझेदारी को मोहरा। फिर भी, सब उसके सामने भला क्यों झुक रहे हैं?

वह जुझारूपन, स्वाभिमान कहां गया जो कभी वैश्विक कूटनीति में हुआ करता था? चीन ने जब टैरिफ पर टैरिफ लगा दिया,  तब ट्रंप आखिरकार झुकने को मजबूर हुए तो बाकी देश वही रास्ता क्यों नहीं अपना रहे?

क्यों हर कोई उसे खुश कर रहा है, जो उन्हें लगातार नीचा दिखा रहा है?

दूसरे विश्व युद्ध के बाद बनी वैश्विक व्यवस्था को ट्रंप ने अपने हर ‘ईगो ट्रिप’ पर ले जाकर ऐसा झकझोरा है कि अब न गठबंधन बचे हैं, न यकीन। उन्होंने सहयोगियों को छोड़ा, मानवाधिकारों को तिलांजलि दी, और नियमों की जगह धमकी को कूटनीति बना डाला। और अब जब वो फिर से लौटने की तैयारी कर रहे हैं, दुनिया फिर उसी पुरानी आदत में लौट रही है, ट्रंप के अमेरिका को एक बिगड़ा हुआ दोस्त मानने में लगी है, न कि एक धौंसपट्टी करने वाले ताक़तवर के रूप में।

सही है उनकी धौंसपट्टी ने कुछ मौके भी बनाए जैसे कि युद्धविराम। लेकिन किस कीमत पर?

हर अल्पकालिक ताक़त की झलक, दीर्घकालिक विश्वसनीयता की कीमत पर आई है। ट्रंप वे सौदे करते हैं जो उनके अहं को संतुष्ट करते हैं, न कि उनके देश को। और दुनिया उसकी कीमत चुका रही है।

द इकॉनोमिस्ट  ने चेतावनी दी है कि भारत के तेल व्यापार पर हमला अंततः चीन के लिए ही फायदेमंद होगा। सीएनएन का कहना है कि ट्रंप की ज़बरदस्ती की टैरिफ अब भू-राजनीतिक सीमाओं से टकरा रही है। द न्यूयार्क टाईम्स ने रिपोर्ट किया है कि अमेरिका में महंगाई बढ़ी है, ज़रूरी सामान महंगे हुए हैं, और नौकरियां धीमी पड़ रही हैं। अब ट्रंप विदेशी चिप्स पर 100 प्रतिशत टैरिफ लगाने की योजना बना रहे हैं, सिवाय उनके जो अमेरिका में बनें।

इसीलिए टिम कुक झुके। और बाकी भी झुकेंगे। क्योंकि सब अब बुली, दादागिरी के नियमों से खेल रहे हैं।

डोनाल्ड ट्रंप कोई विचारधारा नहीं हैं। वो एक माफ़िया-शैली के सौदागर हैं जो अपने अपमानों से ताक़त पाते हैं, ‘हाँ’ में सिर हिलाने वालों से घिरे रहते हैं, और हर बार जब कोई उनकी निंदा करता है तब वे दुनिया के नियम दोबारा लिखने लगते हैं।

हो सकता है उन्हें युद्ध से परहेज़ हो, लेकिन उनका उत्पात किसी हिंसा से कम नहीं। यह एक ऐसी हिंसा है जो गठबंधनों को खोखला करती है, स्थिरता को ज़ंग लगाती है, और फायदा दिलाती है सिर्फ़ उन देशों को जो घुटने टेकने से इंकार करते हैं।

तो हाँ, ट्रंप इस बुली की भूमिका को बखूबी निभा रहे हैं। लेकिन दुख यह नहीं कि वो ऐसा कर रहे हैं। दुख यह है कि दुनिया अब भी उन्हें हर दिन दोपहर का खाना परोसती हुई है!

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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