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पौरोल और फरलो: कानून या रसूख

पैरोल कानून की ताकत तभी मानी जाती है जब वह सबके लिए समान हो। अगर रसूख और पहचान के आधार पर रियायतें मिलती रहीं, तो जनता का भरोसा सिर्फ कानून से नहीं, लोकतंत्र से भी उठ जाएगा। समय की मांग है कि सिस्टम को सिस्टम की तरह चलाया जाए किसी व्यक्ति विशेष की सुविधा की तरह नहीं।

भारतीय संविधान का एक बुनियादी सिद्धांत है — कानून की नजर में सब बराबर हैं। अनुच्छेद 14 इसी बात की गारंटी देता है। लेकिन जब हम रसूखदार और ताकतवर लोगों के साथ कानून के व्यवहार को देखते हैं, तो यह बराबरी का सिद्धांत कई बार केवल किताबों तक सिमटकर रह जाता है।

गुरमीत राम रहीम का मामला इसका सबसे ताज़ा और बड़ा उदाहरण है। सज़ा पूरी नहीं हुई, मगर बार-बार पैरोल और फरलो पर जेल से बाहर आते रहे। यह सब देख कर सवाल उठना लाज़मी है — क्या सचमुच सबके लिए कानून एक जैसा है?

डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख राम रहीम को 2017 में दो साध्वियों के साथ बलात्कार के मामले में 20 साल की सजा मिली थी। इसके बाद पत्रकार रामचंद्र छत्रपति और डेरा के पूर्व प्रबंधक रंजीत सिंह की हत्या में उन्हें उम्रकैद हुई।

इतनी गंभीर सजाओं के बावजूद 2020 से 2025 के बीच उन्हें कम से कम 14 बार पैरोल या फरलो दी गई — कुल मिलाकर 326 दिन जेल के बाहर बिताए। अगस्त 2025 में उन्हें फिर 40 दिन की पैरोल मिली — सात साल में यह तीसरी बार की रिहाई थी।

हरियाणा का ‘गुड कंडक्ट प्रिजनर्स एक्ट, 2022’ कहता है कि एक साल की सजा पूरी करने के बाद कोई भी कैदी साल में 10 हफ्ते की पैरोल और 21 दिन की फरलो का हकदार है।

फरलो को कैदी का “अधिकार” माना जाता है ताकि वह समाज और परिवार से जुड़ा रह सके। जबकि पैरोल खास वजह से ही दी जाती है — जैसे बीमारी, पारिवारिक संकट या कोर्ट में पेशी।

लेकिन राम रहीम को मिली रिहाइयों के कारण अक्सर अस्पष्ट या विवादित रहे हैं। कहीं कोई तात्कालिक ज़रूरत या पारिवारिक संकट सामने नहीं आया। फिर बार-बार रिहाई क्यों?

कानून है  या चुनावी गणित?

डेरा सच्चा सौदा का प्रभाव हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और दिल्ली तक फैला है। अनुमान है कि डेरा के 90–95 लाख अनुयायी हैं। यह संख्या किसी भी राजनीतिक दल के लिए अहम वोट बैंक बन सकती है।

2022 का पंजाब चुनाव, 2023 का राजस्थान चुनाव और 2024 का हरियाणा चुनाव — हर बार उनकी रिहाई चुनाव से पहले हुई। ऐसे में यह सवाल अनायास नहीं उठता कि ये रिहाइयां कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा थीं या राजनीतिक समीकरणों का नतीजा?

हरियाणा सरकार और जेल मंत्री रंजीत सिंह चौटाला का कहना है कि राम रहीम को जो भी रिहाइयां मिली हैं, वे कानून के मुताबिक हैं, और अन्य कैदियों को भी ऐसी छूट दी जाती है।

लेकिन 2023 के आंकड़े कुछ और ही कहते हैं — हरियाणा की जेलों में 5,832 कैदियों में से सिर्फ 2,801 को ही पैरोल या फरलो मिली। और किसी को राम रहीम जितनी बार और इतने लंबे समय के लिए रिहाई नहीं मिली।

तो सवाल फिर वहीं — क्या कानून की सुविधाएं भी चेहरे देखकर दी जाती हैं?

न्याय व्यवस्था पर सवाल

शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (SGPC) ने उनकी लगातार रिहाई के खिलाफ पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में याचिका लगाई थी, मगर कोर्ट ने इसे यह कहकर खारिज कर दिया कि फैसला कानूनी प्रक्रिया के तहत लिया गया है।

लेकिन कोर्ट की यही टिप्पणी जनता के मन में उठ रहे उस सवाल को और भी जटिल बना देती है — अगर हर साल 90 दिन बाहर रहना संभव है, तो सजा का मतलब क्या रह जाता है?

पत्रकार रामचंद्र छत्रपति के बेटे अंशुल छत्रपति ने इसे “कानून का मजाक” कहा है — और यह बात सिर्फ भावनात्मक नहीं, बल्कि तर्कपूर्ण भी लगती है।

सिर्फ कानून नहीं, नैतिक असर भी है राम रहीम की रिहाई का असर सिर्फ अदालत और जेल की दीवारों तक सीमित नहीं है।

याद कीजिए, 2017 में जब उन्हें दोषी ठहराया गया, तो हरियाणा और पंजाब में हिंसा भड़क उठी थी। करीब 40 लोगों की जान गई थी, और करोड़ों की संपत्ति जली।

अब वही व्यक्ति बार-बार बाहर आ रहा है। यह सिर्फ पीड़ित परिवारों के लिए नहीं, गवाहों के लिए भी खतरा बन सकता है। सिरसा आश्रम में चल रहे नपुंसकता मामले में अभी भी मुकदमा जारी है। उनकी उपस्थिति से गवाहों पर दबाव पड़ सकता है।

रसूख बनाम कानून

राम रहीम का मामला साफ दिखाता है कि कैसे कुछ लोग अपने प्रभाव और पहुंच के दम पर कानून को अपने हिसाब से मोड़ लेते हैं। यह सिर्फ एक व्यक्ति की बात नहीं है — यह हमारी पूरी कानूनी व्यवस्था की कमजोरी को उजागर करता है।

पैरोल और फरलो जैसी व्यवस्थाएं पुनर्वास और सामाजिक पुनः समायोजन के लिए बनाई गई थीं, लेकिन जब इनका इस्तेमाल खास लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए होता है, तो पूरी व्यवस्था पर सवाल उठना लाजमी है।

अगर हम सचमुच कानून को गरिमा देना चाहते हैं, तो जरूरी है कि पैरोल और फरलो से जुड़ी प्रक्रिया पारदर्शी और जवाबदेह हो।

हर रिहाई के लिए ठोस कारण अनिवार्य किए जाएं और पूरी प्रक्रिया को स्वतंत्र निगरानी के तहत रखा जाए।

सबसे जरूरी — चुनाव के समय किसी भी कैदी की रिहाई पर रोक हो, ताकि राजनीतिक हस्तक्षेप से बचा जा सके।

कानून की ताकत तभी मानी जाती है जब वह सबके लिए समान हो। अगर रसूख और पहचान के आधार पर रियायतें मिलती रहीं, तो जनता का भरोसा सिर्फ कानून से नहीं, लोकतंत्र से भी उठ जाएगा। समय की मांग है कि सिस्टम को सिस्टम की तरह चलाया जाए — किसी व्यक्ति विशेष की सुविधा की तरह नहीं।

By रजनीश कपूर

दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के प्रबंधकीय संपादक। नयाइंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर।

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