‘धड़क 2’ जातिवाद, सामाजिक दबाव, और प्रेम की स्वतंत्रता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाती है, जो इसे एक ज़रूरी फिल्म बनाते हैं लेकिन फ़िल्म का इरादा जितना साफ़ है, कहानी उतनी ही उलझी और खींची हुई लगती है। समाज को आईना दिखाने का प्रयास अधूरा और सतही लगता है।
सिने-सोहबत
आज के सिने-सोहबत में हाल ही में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘धड़क 2’। दरअसल, भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव पर समय समय पर हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में भी कई बार अच्छी फिल्में आती रही हैं और आनी भी चाहिए। इससे कम से कम समाज में ये चर्चा तो होती ही है कि इस तरह की कुरीति को समाज में प्रतिबंधित कर देना चाहिए। ‘ऑनर किलिंग’ पर भी कई फिल्में आईं।
2016 में इस स्पेस में एक ज़बरदस्त मराठी फ़िल्म आई थी ‘सैराट’, जिसका निर्देशन किया था नागराज मंजुले ने। इसके बाद हिंदी फ़िल्मकारों को इस मसले की याद आई और धर्मा प्रोडक्शंस ने 2018 में इसका आधिकारिक हिंदी संस्करण ‘धड़क’ बनवा कर रिलीज़ किया, जिसका निर्देशन किया था शशांक खेतान ने। फ़िल्म में मुख्य भूमिका में थे ईशान खट्टर और जाह्नवी कपूर। अच्छी थी।
अब 2025 में आई ‘धड़क 2’ आ गई है, जो अपने विषय के चयन के लिए तो सराहे जाने योग्य ज़रूर है लेकिन दुर्भाग्यवश उस विषय को जिस तरह से फ़िल्माया गया है, वह दर्शकों को बांध पाने में पूरी तरह से असफल है। यह फ़िल्म सामाजिक रूप से प्रासंगिक मुद्दों को छूती है, लेकिन स्क्रिप्ट, निर्देशन और तकनीकी पक्षों में बेहद कमज़ोर साबित होती है। फ़िल्म का उद्देश्य जितना महान है, प्रस्तुति उतनी ही असमर्थ लगती है। निर्देशक हैं नवोदित शाजिया इक़बाल जिनकी ये पहली फ़ीचर फ़िल्म है। इससे पहले उन्होंने 2019 में ‘बेबाक़’ नाम की एक शॉर्ट फिल्म बनाई थी, जिसकी काफ़ी सराहना हुई थी।
‘धड़क 2’ की आधिकारिक प्रेरणा के तौर पर तमिल फ़िल्म ‘परियेरुम पेरुमल’ का सहारा लिया गया है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक समर्थ स्टूडियो, कई अच्छे कलाकार, रेफरेन्स के लिए पहले से सराही गई एक सफल फ़िल्म और इतनी सारी सुविधाओं में बाद भी अगर कोई फ़िल्मकार अपने क्राफ्ट में कच्चेपन की वजह से चूक जाता है तो इससे उन बहुत से नए लोगों का भारी नुक्सान है जो न जाने कब से अपनी बारी के इंतज़ार में फ़िल्म इंडस्ट्री के दरवाज़े पर सर पटक रहे हैं।
फ़िल्म एक बार फिर अंतरजातीय प्रेम और सामाजिक भेदभाव की कहानी को आधार बनाकर सामने आती है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह विषय आज के भारत में भी पूरी तरह से अप्रासंगिक नहीं हुआ है, बल्कि यह कई युवाओं की सच्चाई है। ‘धड़क 2’ जातिवाद, सामाजिक दबाव, और प्रेम की स्वतंत्रता जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाती है, जो इसे एक ज़रूरी फिल्म बनाते हैं लेकिन फ़िल्म का इरादा जितना साफ़ है, कहानी उतनी ही उलझी और खींची हुई लगती है। समाज को आईना दिखाने का प्रयास अधूरा और सतही लगता है।
इस फ़िल्म के लिए शाज़िया इकबार और राहुल बेडवेलकर का स्क्रीनप्ले काफ़ी बिखरा हुआ सा है। फ़िल्म की कहानी, दुनिया, पात्रों को रचने, बसाने वाले सेटअप में ही आधी फ़िल्म निकल जाती है और वो भी चींटियों की तरह रेंगती हुई। क़िरदारों की भावनाओं को गहराई से दिखाने की बजाय फिल्म सतही संवादों और दोहराव पर ज़ोर देती है। कई दृश्यों को छोटा किया जा सकता था, और पूरी फिल्म कम से कम 30 मिनट छोटी हो सकती थी, जिससे इसका प्रभाव और अधिक सघन हो सकता था।
फ़िल्म से फ़िल्म की निर्देशक का दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं लग पाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि निर्देशक से सामाजिक संदेश और प्रेम कहानी के बीच संतुलन बनाने में भारी चूक हो गई है। फ़िल्म कई बार दिशा विहीन महसूस होती है न तो यह पूरी तरह एक प्रेम कहानी बन पाती है, न ही सामाजिक संघर्ष का सशक्त चित्रण।
फ़िल्म में कुछ महत्वपूर्ण किरदारों को ठीक से गढ़ा ही नहीं गया है। उनके निर्णय, प्रतिक्रियाएं और संवाद कई बार अतार्किक लगते हैं। एक सामाजिक विषय पर आधारित फिल्म में किरदारों की गहराई बेहद जरूरी होती है, ताकि दर्शक उनसे जुड़ सकें, लेकिन ‘धड़क 2’ इस स्तर पर निराश करती है।
हालांकि, सिद्धांत चतुर्वेदी और तृप्ति डिमरी ने अपनी ओर से बेहतरीन प्रदर्शन किया है। सिद्धांत का किरदार जटिल है और उन्होंने अपने अभिनय से उसमें कुछ जान डालने की कोशिश की है। तृप्ति डिमरी ने एक मज़बूत लेकिन संवेदनशील लड़की का किरदार निभाया है और कई दृश्यों में उनकी आंखें बोलती नज़र आती हैं। इन दोनों की केमिस्ट्री स्क्रीन पर सजीव लगती है जो कि फ़िल्म की एकमात्र मज़बूती हैं।
पहली ‘धड़क’ फिल्म का संगीत सात सालों के बाद भी लोगों के दिलों में बसा हुआ है, जबकि ‘धड़क 2’ का संगीत बेहद औसत लगता है। कोई भी गाना ऐसा नहीं है जो सिनेमाघर से बाहर निकलते समय आपके साथ साथ चल पड़े। न ही बैकग्राउंड स्कोर में वह गहराई है, जो दृश्य की संवेदनशीलता को बढ़ा सके।
सिनेमैटोग्राफी ठीक ठाक है लेकिन कुछ जगहों पर दृश्य संरचना फीकी लगती है। फ़िल्म जब पहले ही बहुत लंबी हो, तो एडिटिंग में चुस्ती होनी चाहिए थी। एडिटिंग में बेहतर कर सकने का पूरा स्कोप था। हो न सका।
‘धड़क 2’ जैसी फिल्में बननी ज़रूर चाहिए, क्योंकि ये समाज में प्रचलित कुरीतियों को चुनौती देने का प्रयास करती हैं। युवाओं की आवाज़ बनकर ये फिल्में बदलाव का जरिया बन सकती हैं। लेकिन सिर्फ इरादा काफ़ी नहीं होता, कहानी, पटकथा, निर्देशन और अभिनय का मेल ज़रूरी है। अगर किसी फ़िल्म में सामाजिक संदेश हो लेकिन मेकिंग कमजोर हो, तो विषय की गंभीरता को भी काफ़ी कम कर देती है न ही दर्शकों में अपना प्रभाव छोड़ पाती है।
फ़िल्मकारों को यह समझने की ज़रूरत है कि सामाजिक मुद्दों को उठाना ज़िम्मेदारी से जुड़ा एक संवेदनशील काम है। दर्शकों को जागरूक करना है, तो उन्हें एक समर्पित और सशक्त कहानी के माध्यम से जोड़ना होगा। वरना ऐसे प्रयास केवल सतही दिखावा बनकर रह जाते हैं।
‘धड़क 2’ एक ईमानदार प्रयास है, लेकिन इसका निष्पादन बेहद कमजोर है। फिल्म में एक प्रासंगिक और ज़रूरी मुद्दा उठाया गया है, लेकिन उसे जिस तरह से पर्दे पर प्रस्तुत किया गया है, वह दर्शकों को न तो भावनात्मक रूप से जोड़ पाता है, न ही सामाजिक रूप से झकझोरता है। फिल्म की लंबाई, धीमा स्क्रीनप्ले, औसत संगीत और कमजोर निर्देशन इसे एक अवसर चूकने वाली फिल्म बना देते हैं।
यदि आप सिद्धांत चतुर्वेदी और तृप्ति डिमरी के अभिनय के प्रशंसक हैं, तो आप उनके कुछ दृश्यों में आनंद पा सकते हैं, लेकिन यदि आप एक सामाजिक रूप से प्रासंगिक और सशक्त फिल्म की उम्मीद कर रहे हैं, तो ‘धड़क 2’ निराश कर सकती है।
वैसे, आपके नज़दीकी सिनेमाघरों में लगी तो है पर आपको अपने समय का सदुपयोग कैसे करना है ये आप खुद तय कर लीजिएगा। (पंकज दुबे उपन्यासकार, पॉप कल्चर स्टोरीटेलर और चर्चित यूट्यूब चैट शो, “स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरिज़” के होस्ट हैं।)