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राष्ट्रवादी मूल्यों में खंपे संघ के सौ वर्ष…

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ भारत को केवल राजनीतिक भू सीमा नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक राष्ट्र मानता है। इसकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति ही राष्ट्रीय एकता का आधार है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना के साथ साथ संघ मातृभूमि की सेवा को सर्वोपरि मानता है। यह आधुनिकता और परंपरा के संतुलन पर बल देता है। संघ की स्थापना के पीछे वीर सावरकर और बीएस मुंजे जैसे विचारकों की प्रेरणा भी थी और संघ के सभी सरसंघचालकों ने पूरी निष्ठा से इस प्रेरणा को निभाया है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस अपनी स्थापना का शताब्दी वर्ष मना रहा है। दो अक्टूबर को विजयादशमी के दिन संघ की स्थापना के सौ वर्ष पूरे होंगे। राष्ट्रवादी मूल्यों के साथ कार्य करने वाले किसी भी सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन के लिए एक सदी तक सक्रिय बने रहना और अपनी प्रासंगिकता बनाए रखना निःसंदेह बड़ी उपलब्धि है। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से पहले बनी संस्थाएं या तो समाप्त हो गई हैं या अपनी प्रासंगिकता खो चुकी हैं। आजादी से पहले के राजनीतिक दल भी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

जिन पार्टियों और संगठनों के लाखों सदस्य होते थे वे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ, जिसकी स्थापना सिर्फ 17 सदस्यों के साथ हुई थी उसके आज लाखों सक्रिय स्वंयसेवक हैं। उसकी करीब एक लाख शाखाएं हर दिन देश के अलग अलग हिस्सों में लगती हैं। और सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि संघ से दीक्षित और प्रशिक्षित संकल्पवान स्वंयसेवक देश और अलग अलग राज्यों के शासन की बागडोर संभाल रहे हैं। कह सकते हैं कि संघ की एक सौ वर्ष की यात्रा राष्ट्र एकता के संकल्प से सत्ता के शिखर तक पहुंचने की यात्रा है।

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की स्थापना वर्ष 1925 में विजयादशमी के दिन डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने नागपुर में की थी। उनके पीछे कई तरह की प्रेरणा कार्य कर रही थी। वे स्वंय एक बड़े फिजिशियन थे और कलकत्ता यानी आज के कोलकाता में रह कर मेडिकल की पढ़ाई की थी। वे कलकत्ता में अपनी पढ़ाई के दिनों में अनुशीलन समिति से जुड़े थे। इतिहास के विद्यार्थी अनुशीलन समिति के बारे में निश्चित रूप से जानते होंगे। यह एक अंडरग्राउंड संगठन था, जो सशस्त्र विद्रोह के जरिए अंग्रेजों से लड़ने और उन्हें देश से भगा देने में विश्वास करता था। संघ के शताब्दी वर्ष में यह लिखना और याद दिलाना इसलिए जरूरी है ताकि भाजपा विरोधी पार्टियों और संघ विरोधी विचारकों के इस दुष्प्रचार का जवाब दिया जा सके कि संघ या इससे जुड़े लोगों का आजादी की लड़ाई से कोई सरोकार नहीं था।

संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार स्वंय आजादी की लड़ाई के एक योद्धा थे। कलकत्ता से नागपुर लौटने के बाद 1917 में डॉ. हेडगेवार कांग्रेस में शामिल हुए और आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया। वे लंबे समय तक स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े रहे। 1920 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में उन्होंने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। वे महान देशभक्त बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित थे। तभी 1925 की विजयादशमी के दिन जब उन्होंने हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के विचारों का प्रसार करने के लिए एक सामाजिक व सांस्कृतिक संगठन की नींव रखी तो तिलक का समर्थन करने वाले लोग उनके साथ जुड़े।

स्थापना के पहले वर्ष में संघ की सिर्फ एक शाखा थी। अगले वर्ष यानी 1926 में दूसरी शाखा शुरू हुई और उसके बाद से यह सिलसिला अनवरत चल रहा है। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की एक सौ वर्ष की यात्रा सिर्फ एक संगठन की यात्रा नहीं है, बल्कि भारत की सामाजिक और राजनीतिक यात्रा भी है। अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने से लेकर आज आत्मनिर्भर भारत के निर्माण की यात्रा भी है। इस यात्रा के हर पड़ाव पर संघ ने रचनात्मक भूमिका निभाई है। सत्ता चाहे किसी भी पार्टी के हाथों में रही हो, संघ ने व्यक्ति निर्माण, समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण की अपनी भूमिका नहीं छोड़ी। संघ के लाखों स्वंयसेवक हर स्थिति में निःस्वार्थ सेवा में रत रहे। इसका कारण संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार की ओर से डाली गई वैचारिक नींव है, जिस पर आज तक संघ का कार्य होता है।

डॉ. हेडगेवार का मानना था कि भारत की गुलामी सिर्फ राजनीतिक कारणों से नहीं, बल्कि राष्ट्रीय अस्मिता और संगठन की कमी से है। उन्होंने अपने अनुभवों से देखा था कि समाज में एकजुटता, अनुशासन और आत्मविश्वास का अभाव है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इन्हीं कारणों से देश कोई एक हजार वर्ष तक गुलाम रहा। तभी डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय अस्मिता की भावना लोगों के दिलों में भरने, उन्हें अपने गौरवशाली इतिहास का स्मरण कराने, अनुशासन की भावना भरने, आत्मविश्वास से ओतप्रोत करने और संगठित करने के लिए 27 सितंबर 1925 को संघ की स्थापना की। इसका प्रमुख उद्देश्य राष्ट्र को संगठित करना और भारतीय संस्कृति के आधार पर नवजागरण करना था।

संघ के भारत में करोड़ों और विश्व भर में लाखों सदस्य और समर्थक है। संघ दुनिया के एक सौ से ज्यादा देशों में कार्यरत है। नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे यानी सदा वत्सल मातृभूमि, आपके सामने शीश झुकता हूं, संघ की प्रार्थना है। शाखा ही संघ की बुनियाद है, जिसकी रोजमर्रा गतिविधियों में संवाद, व्यायाम, खेल, सूर्य नमस्कार, समता (परेड), गीत और प्रार्थना और साथ साथ भारत एवं विश्व के सांस्कृतिक पहलुओं पर बौद्धिक चर्चा परिचर्चा शामिल है। यह व्यवस्था सिर्फ उपदेश देने वाली नहीं है, बल्कि आचरण और अनुशासन के माध्यम से राष्ट्रभावना का संस्कार करती है। ध्यान रहे उपभोक्तावादी संस्कृति के बीच चरित्र निर्माण एक बड़ी चुनौती है। ऐसे ही सनातन पर हो रहा चौतरफा हमला भी एक बड़ी चुनौती है। देश, समाज और नागरिक को इन चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार करने में संघ अपनी शाखाओं के जरिए महती भूमिका निभा रहा है।

ध्यान रहे स्वंय संघ के सामने कम चुनौतियां नहीं रहीं। स्वतंत्रता प्राप्ति के थोड़े दिन बाद ही 1948 में संघ के ऊपर प्रतिबंध लगाया गया, परंतु कोई दोष सिद्ध न होने पर इसे हटाना पड़ा। इसके बाद संघ ने स्वंय को सांस्कृतिक संगठन के रूप में स्थापित किया। इसने राजनीति से प्रत्यक्ष दूरी बनाते हुए समाज सेवा, शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामोन्नति के कार्यों पर ध्यान केंद्रित किया। आज संघ भारत के गांव गांव तक पहुंच चुका है। इसके कार्यों का विस्तार कई अलग अलग संगठनों के जरिए हुआ।

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद इससे जुड़ा एक संगठन है, जो आरंभिक दिनों में ही युवाओं के अंदर सेवा और राष्ट्रवाद की भावना भरता है। ऐसे ही सम्बद्ध संगठनों में भारतीय जनता पार्टी, भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ, सेवा भारती, राष्ट्र सेविका समिति, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विश्व हिंदू परिषद, हिंदू स्वयंसेवक संघ, स्वदेशी जागरण मंच, सरस्वती शिशु मंदिर, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच, बजरंग दल, लघु उद्योग भारती, विश्व संवाद केंद्र, राष्ट्रीय सिख संगत, हिंदू जागरण मंच, विवेकानंद केंद्र आदि हैं, जो अलग अलग क्षेत्रों में कार्य करते हैं।

देश के किसी भी हिस्से में कोई प्राकृतिक आपदा आए या मानवीय भूल से कोई आपद स्थित पैदा हो तो वहां सबसे पहले संघ के स्वंयसेवक दिखाई पड़ते हैं। आपदा राहत से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक समरसता के क्षेत्र में संघ और उसके स्वयंसेवकों ने उल्लेखनीय कार्य किए हैं। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ भारत को केवल राजनीतिक भू सीमा नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक राष्ट्र मानता है। इसकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति ही राष्ट्रीय एकता का आधार है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना के साथ साथ संघ मातृभूमि की सेवा को सर्वोपरि मानता है। यह आधुनिकता और परंपरा के संतुलन पर बल देता है। संघ की स्थापना के पीछे वीर सावरकर और बीएस मुंजे जैसे विचारकों की प्रेरणा भी थी और संघ के सभी सरसंघचालकों ने पूरी निष्ठा से इस प्रेरणा को निभाया है। ध्यान रहे संघ प्रमुख को सरसंघचालक कहा जाता है।

डॉ. हेडगेवार के बाद संघ प्रमुख बने माधव सदाशिवराव गोलवलकर यानी गुरु ने ‘वी ऑवर नेशनहुड डिफाइन’ नाम से एक पुस्तक लिखी, जिससे राष्ट्र के प्रति संघ विचार ज्यादा स्पष्टता के साथ लोगों तक पहुंचे। डॉ. हेडगेवार और गुरु के विचार आज तक संघ को निर्देशित कर रहे हैं। इन दोनों महानुभाओं के आगे मधुकर दत्तात्रेय देवरस उर्फ बाला साहेब, प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया, कृपाहल्ली सीतारमैया सुदर्शन उर्फ सुदर्शन जी, डॉ॰ मोहनराव मधुकरराव भागवत उर्फ भागवत  ने संघ के कार्यों को पूरी निष्ठा से आगे बढ़ाया है।

वर्ष 2025 में संघ की शताब्दी केवल संगठन के सौ वर्ष पूरे करने का उत्सव नहीं है, बल्कि भारतीय सामाजिक व राजनीतिक जीवन की उपलब्धियों और चुनौतियों का भी मूल्यांकन है। एक सदी की यह यात्रा बड़ी चुनौतियों से भरी रही है। आजादी के तुरंत बाद संघ का संचालन कर रहे पदाधिकारियों को अनुभव हो गया था कि संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक व्यवस्था के जरिए ही बदलाव हो सकते हैं। संघ यह काम स्वंय नहीं कर सकता था। इसलिए 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। संघ के आशीर्वाद से पंडित दीनदयाल उपाध्याय और डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसकी नींव रखी।

कोई तीन दशक बाद इसी राजनीतिक दल का भारतीय जनता पार्टी के रूप में पुनर्जन्म हुआ और संघ के यशस्वी स्वंयसेवकों  अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी इसके संस्थापक सदस्य थे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय और डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के अधूरे कार्यों को पूरा करने की जिम्मेदारी इनके ऊपर थे। जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए हटाने, अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर का निर्माण कराने और देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की महती जिम्मेदारी बाद के नेताओं के ऊपर थी।

ये तीनों लक्ष्य  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और संघ प्रमुख  मोहनराव भागवत  की सक्रिय उपस्थिति में पूर्ण हुए हैं। जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 ए समाप्त कर दिया गया। अयोध्या में भव्य राममंदिर का निर्माण हो गया है और राज्यवार समान नागरिक संहिता लागू होने लगी है। हालांकि इन तीन महान लक्ष्यों के पूर्ण होने का अर्थ यह नहीं है कि संघ की जिम्मेदारी पूरी हो गई। संघ को संगठन, सेवा और सांस्कृतिक चेतना के बल पर राष्ट्र निर्माण का कार्य़ आगे बढ़ाना है। सामाजिक समरसता सुनिश्चित करने के लिए जातीय, धार्मिक और भाषायी भेदभाव को दूर कर एकता को बढ़ावा देने का कार्य पूरा करना है। नई पीढ़ी को नैतिक मूल्यों और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जोड़ने काम निरंतर जारी रखना है। भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए सांस्कृतिक कूटनीति और मानवता की सेवा कार्य को आगे बढ़ाना है। इसके अलावा पर्यावरण व प्रौद्योगिकी के बीच सामंजस्य बैठाते हुए प्रकृति संरक्षण के लिए लोगों को प्रेरित करना है और विकास की तेज गति के लिए देश को तैयार करना है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों संघ प्रमुख मोहन भागवत  के 75 वर्ष पूरे करने एक आलेख लिखा था, जिसमें उन्होंने संघ प्रमुख की प्रशंसा करते हुए संघ की विकास यात्रा और राष्ट्र पर उनके कार्यों के प्रभाव को रेखांकित किया था।  प्रधानमंत्री ने लिखा था कि संघ के सभी प्रमुखों ने देशकाल की स्थितियों के अनुरूप महती भूमिका निभाई परंतु वर्तमान संघ प्रमुख कार्यकाल विशेष तौर पर प्रेरणा देने वाला रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अतीत की गौरवगाथा को लोगों के मन में पुनर्जीवित किया है और साथ ही भविष्य की दिशा निर्धारित करने के लिए भी प्रेरित किया है। इसने राष्ट्र को संगठन, सेवा और सांस्कृतिक चेतना का आधार दिया है। संघ सच्चे अर्थों में विविधता वाले भारत की एकता सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाता रहा है। आशा करनी चाहिए यह आने वाले कई सौ वर्षों तक मां भारती की सेवा करता रहेगा और करोड़ों भारतीयों को राष्ट्र सेवा के लिए प्रेरित करता रहेगा। (लेखक दिल्ली में सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तामंग (गोले) के कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त विशष कार्यवाहक अधिकारी हैं।)

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