‘सेकुलरवाद’ के नाम पर देश में हिंदुओं को कलंकित करने के लिए वर्षों से झूठा नैरेटिव गढ़ा जा रहा है, जो केवल उन्हें आतंकवाद से जोड़ने और इस्लामी कट्टरवाद को दबाने-भटकाने तक सीमित नहीं है। इतिहास भी इस झूठे नैरेटिव से अछूता नहीं रहा। फातिमा शेख को ‘भारत की पहली मुस्लिम शिक्षिका’ कहा गया, जबकि इसका कोई प्रमाण मौजूद नहीं है। वास्तव में, यह ‘दलित-मुस्लिम एकता’ के अस्वाभाविक गठजोड़ को बल देने के लिए गढ़ा गया झूठा नैरेटिव था।
भारत के अधिकांश राजनीतिक दल (कांग्रेस और वामपंथी सहित) स्वयं को ‘सेकुलरवादी’ कहते हैं। लेकिन वास्तविक व्यवहार में उनके लिए सेकुलरवाद का अर्थ सर्वधर्म समभाव नहीं, बल्कि हिंदुओं को जाति के नाम पर बांटना, उनकी परंपराओं को कलंकित करना, कट्टर इस्लाम को मजबूती देना और इस्लाम के नाम पर होने वाली आतंकी-हिंसक गतिविधियों का प्रत्यक्ष-परोक्ष बचाव करना है। इसी मानसिकता से झूठे ‘भगवा/हिंदू आतंकवाद’ का फर्जी सिद्धांत भी जन्मा, जो तत्कालीन शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व की व्यक्तिगत खुन्नस, राजनीतिक स्वार्थ और वैचारिक शत्रुता के घालमेल से निर्मित हुआ था।
इस चिंतन का न्यायिक स्तर पर भंडाफोड़ तब हुआ, जब गत 31 जुलाई को मालेगांव बम धमाका मामले (2008) में विशेष एनआईए अदालत ने सभी आरोपियों को 17 साल बाद बरी कर दिया। न्यायालय ने पाया कि महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) की जांच प्रक्रिया में न केवल कई तरह की खामियां (फिंगरप्रिंट सहित) थी, साथ ही इसमें सबूतों के साथ गड़बड़ी भी की गई थी। यही नहीं, महाराष्ट्र एटीएस के पूर्व अधिकारी महबूब मुजावर ने खुलासा किया कि उनपर इस मामले में फर्जी आधार पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत को गिरफ्तार करने का दबाव डाला गया था।
यह सब एकाएक नहीं हुआ। इसकी जड़ें दशकों पुरानी हैं। इस मनगढ़ंत ‘भगवा/हिंदू आतंकवाद’ का मकसद— सनातन भारत, हिंदू समाज के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा और अन्य आनुषंगिक संगठनों को कलंकित करना था। इसके लिए जरुरत पड़ने पर स्वघोषित सेकुलरवादियों ने वैश्विक रूप से स्थापित ‘इस्लामी आतंकवाद’ को परोक्ष रूप से ‘जायज’ ठहराया, तो पाकिस्तान को ‘बेकसूर’ तक बता दिया। वर्ष 2008 में मुंबई का बीभत्स 26/11 आतंकवादी हमला इसका बड़ा प्रमाण है। जिहादी अजमल कसाब, डेविड हेडली और तहव्वुर राणा की गिरफ्तारी से अक्टूबर 2009 तक साफ हो गया था कि यह आतंकी हमला लश्कर-ए-तैयबा, पाकिस्तानी सेना और आई.एस.आई. की साझा साजिश थी। लेकिन कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने दिसंबर 2010 में मनगढ़ंत घटनाओं से भरी ’26/11-आर.एस.एस. की साजिश’ नामक किताब का विमोचन कर संघ को कटघरे में खड़ा कर दिया।
दरअसल, इस चिंतन का बीजारोपण 1993 के मुंबई आतंकवादी हमले में हुआ था, जिसमें हुए सिलसिलेवार 12 बम धमाकों में 257 मासूम मारे गए थे। तब महाराष्ट्र के कांग्रेसी मुख्यमंत्री शरद पवार ने असली आतंकवादियों की इस्लामी पहचान छिपाने और हिंदुओं को आतंकवाद से परोक्ष तौर पर जोड़ने के लिए झूठ फैलाया कि “13वां धमाका मस्जिद” के पास हुआ था। इसी मानस को 2004-14 के बीच कांग्रेस नीत संप्रग सरकार में और अधिक मजबूत मिली।
यह चिंतन मालेगांव, 26/11 और 1993 के मुंबई आतंकवादी हमले तक सीमित नहीं है। 1998 में कोयंबटूर (तमिलनाडु) में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को लक्षित करते हुए 12 सिलसिलेवार बम धमाके हुए थे, जिनमें 58 लोग मारे गए। आडवाणीजी की जान उड़ान में देरी के कारण बच गई। तब कांग्रेस के कुछ नेताओं ने इस हमले का आरोप अप्रत्यक्ष रूप से संघ-भाजपा पर डालने का प्रयास किया। बाद में अदालत ने सैयद अहमद बाशा, फखरुद्दीन और इमाम अली जैसे जिहादियों को दोषी ठहराया। ऐसा ही प्रकरण वर्ष 2013 में पटना आतंकवादी हमले में भी देखने को मिला।
गोधरा कांड (2002) में ट्रेन के डिब्बे में 59 रामभक्तों को जिहादियों द्वारा जीवित जला दिया गया। लेकिन 2005 में बतौर रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने एक समिति के माध्यम से इस जघन्य अपराध को ‘हादसा’ बता दिया। बाद में अदालत ने मामले हाजी, रज्जाक सहित 31 को दोषी ठहरा दिया। इसी तरह टीवी बहस से काटी गई कुछ सेकंड की क्लिप को आधार बनाकर पूर्व भाजपा नेत्री नूपुर शर्मा के खिलाफ वैश्विक स्तर पर ‘ईशनिंदा’ की साजिश गढ़ी गई। तब कन्हैयालाल और उमेश जैसे साधारणजन की हत्या सिर्फ इसलिए कर दी गई, क्योंकि उन्होंने नूपुर का समर्थन किया था।
इस वर्ष अप्रैल में कश्मीर के पहलगाम में बर्बर आतंकवादी हमला हुआ, जिसमें जिहादियों ने 26 पर्यटकों से उनकी मजहबी पहचान पूछकर मौत के घाट उतार दिया। गत 28 जुलाई को ‘ऑपरेशन महादेव’ के तहत जब सुरक्षाबलों ने पहलगाम के गुनाहगार जिहादियों को मार गिराया, तब उनके पास से पाकिस्तानी पहचान पत्र इत्यादि पाए गए। परंतु स्वघोषित सेकुलरवादी जमात का एक वर्ग अब भी पाकिस्तानी भूमिका का साक्ष्य मांगकर ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की सफलता को कलंकित कर रहा है।
‘सेकुलरवाद’ के नाम पर देश में हिंदुओं को कलंकित करने के लिए वर्षों से झूठा नैरेटिव गढ़ा जा रहा है, जो केवल उन्हें आतंकवाद से जोड़ने और इस्लामी कट्टरवाद को दबाने-भटकाने तक सीमित नहीं है। इतिहास भी इस झूठे नैरेटिव से अछूता नहीं रहा। फातिमा शेख को ‘भारत की पहली मुस्लिम शिक्षिका’ कहा गया, जबकि इसका कोई प्रमाण मौजूद नहीं है। वास्तव में, यह ‘दलित-मुस्लिम एकता’ के अस्वाभाविक गठजोड़ को बल देने के लिए गढ़ा गया झूठा नैरेटिव था।
वर्ष 2016 में रोहित वेमुला की आत्महत्या को ‘दलित हत्या’ बताकर स्वयंभू सेकुलरवादी कुनबे ने ‘दलित बनाम शेष हिंदू समाज’ का जातिगत रंग दिया, जबकि रोहित न तो दलित था और न ही उसके सुसाइड नोट में किसी संस्था या व्यक्ति को दोष दिया गया। उल्टा रोहित ने अपनी चिट्ठी में वामपंथी संगठनों से मोहभंग होने और इसके कारण ‘दानव’ बनने की बात लिखी थी। यही नहीं, श्रीरामजन्मभूमि मंदिर विवाद पर भी झूठा नैरेटिव दशकों तक हावी रहा। पुरातत्वविद् डॉ. के.के. मोहम्मद ने अपनी किताब में खुलासा किया था कि 1976-77 की खुदाई में सदियों पुराने मंदिर के अवशेष मिले थे, लेकिन वामपंथी इतिहासकारों ने मुस्लिम समाज को भ्रमित कर वर्षों तक इसके समाधान को टाल दिया। यही जमात आज भी सनातन संस्कृति को कलंकित करने के लिए प्रयासरत है।
यह विषैला गिरोह बेपर्दा हो चुका है। पिछले साल कांग्रेसी नेता सुशील कुमार शिंदे ने एक साक्षात्कार में स्वीकारा था कि उन्होंने अपनी पार्टी के कहने पर मनगढ़ंत ‘भगवा आतंकवाद’ का उपयोग किया। अब तत्कालीन गृहमंत्री ने यह झूठ किसके कहने पर कहा? पाठक इसका अंदाजा स्वयं लगा सकते है। यह स्थापित है कि कैसे देश में सेकुलरवाद की आड़ में ‘हिंदू/भगवा आतंकवाद’ का प्रपंच रचा गया। यक्ष प्रश्न यह है कि क्या इसमें उन विदेशी ताकतों का भी हाथ है, जो अपने औपनिवेशिक स्वार्थ के चलते भारत की सांस्कृतिक पहचान और उसकी आर्थिक-सामरिक तरक्की से घृणा करते है?