कांग्रेस पार्टी राज्यों में सहयोगी पार्टियों के साथ ही विधानसभा का चुनाव लड़ेगी। लोकसभा में ‘इंडिया’ ब्लॉक का जो प्रयोग था, भले वैसा व्यापक प्रयोग राज्यों में नहीं हो पाए लेकिन वैसा भी नहीं होगा, जैसा हरियाणा और दिल्ली में हुआ। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की आपसी लड़ाई का फायदा भाजपा को हुआ। हालांकि इस निष्कर्ष का मकसद भाजपा की अपनी तैयारियों, रणनीतियों और उसके नेताओं की मेहनत को कमतर बताना नहीं है।
भाजपा ने लोकसभा चुनाव हारने के बाद राज्यों का चुनाव बहुत दमदारी से लड़ा और दूसरी ओर लोकसभा में अपेक्षाकृत अच्छे प्रदर्शन के बाद कांग्रेस और ‘इंडिया’ ब्लॉक की दूसरी पार्टियां लापरवाह हुईं। सबने सत्ता हाथ में आई मान ली और नेतृत्व का मुद्दा निपटाने में लग गए। एक दूसरे से बड़ा बनने की होड़ में हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली में ‘इंडिया’ ब्लॉक की पार्टियों ने सत्ता थाली में सजा कर भाजपा को परोस दी।
तीन राज्यों के चुनावों ने कांग्रेस को जो सबक दिया है उसके हिसाब से वह आगे के राज्यों के चुनाव की रणनीति बनाती दिख रही है। तभी बिहार प्रदेश कांग्रेस नेताओं के साथ दिल्ली में हुई बैठक में राहुल गांधी ने दो टूक अंदाज में कहा कि बिहार में कांग्रेस गठबंधन में ही लड़ेगी। यानी राजद और कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ ही विधानसभा का चुनाव लड़ेगी। हालांकि यह बात उन्होंने पश्चिम बंगाल कांग्रेस के नेताओं के साथ हुई बैठक में नहीं कही। फिर भी ऐसा नहीं है कि कांग्रेस की रणनीति बिहार और पश्चिम बंगाल के लिए अलग अलग होगी।
अभी दोनों अलग अलग इसलिए दिख रहे हैं क्योंकि बिहार का चुनाव इस साल के अंत में और पश्चिम बंगाल का चुनाव अगले साल के मध्य में है। दूसरे, बंगाल में ममता बनर्जी शासन में हैं। वे लगातार तीन बार चुनाव जीती हैं। उनको राज्य में गठबंधन की राजनीति का अनुभव नहीं है और ऊपर से वे एक झटके में तेवर के साथ फैसला करती हैं। सो, उनके साथ तालमेल की बात उतनी आसान नहीं होगी, जितनी बिहार में लालू प्रसाद के साथ है। बिहार, झारखंड, तमिलनाडु, महाराष्ट्र आदि राज्यों में कांग्रेस की सहयोगी पार्टियों के नेताओं को गठबंधन की राजनीति का अनुभव है और वे मोलभाव के महत्व को जानते, समझते हैं।
बिहार और पश्चिम बंगाल में एक समानता यह है कि दोनों जगह भाजपा को रोकना है। बिहार में जब तक नीतीश कुमार सर्वोच्च नेता थे और मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर चुनाव लड़ते थे तब तक राज्य की राजनीति अलग तरीके से चलती थी। परंतु अब उनका चेहरा नहीं है। वे मानसिक रूप से ऐसी अवस्था में नहीं हैं कि उनकी पार्टी या उनका गठबंधन उनको मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करके चुनाव लड़े। तभी यह धारणा बनी है कि अगर एनडीए जीतती है तो भाजपा का मुख्यमंत्री बनेगा।
अभी तक आजाद भारत में हिंदी पट्टी का एकमात्र राज्य बिहार है, जहां भाजपा का मुख्यमंत्री नहीं बन पाया है। सो, भाजपा इस बार अपना मुख्यमंत्री बनाने के लिए चुनाव लड़ रही है। यही पेंच कांग्रेस के सामने है। वह इस बात का जोखिम नहीं ले सकती है कि उसके किसी फैसले से बिहार में भाजपा की सरकार बनने का रास्ता साफ हो। हरियाणा या दिल्ली में जो हुआ उसे बिहार या बंगाल में नहीं किया जा सकता है।
हरियाणा और दिल्ली में कांग्रेस को आम आदमी पार्टी व अऱविंद केजरीवाल के बारे में फैसला करना था। उनके बारे में यह धारणा है कि वे भाजपा की बी टीम हैं और आरएसएस की मदद से अन्ना हजारे का आंदोलन चला था, जिससे उनकी पार्टी का जन्म हुआ। उन्होंने कोरोना के समय तबलीगी जमात को बदनाम करने का जो काम किया या दिल्ली दंगों के दौरान जैसी चुप्पी साधी उससे मुसलमानों में उनके प्रति स्थायी संदेह है।
इसलिए अगर कांग्रेस की वजह से दिल्ली में केजरीवाल हार गए तो मुस्लिम और दूसरे सेकुलर मतदाताओं में कांग्रेस के प्रति कोई निगेटिव धारणा नहीं बनी। लेकिन कांग्रेस लालू प्रसाद के साथ वैसा नहीं कर सकती है, जैसा उसने केजरीवाल के साथ किया। बिहार में वह ये स्टैंड नहीं ले सकती है कि वह तो अकेले लड़ेगी, चाहे भाजपा जीत जाए। लालू और उनकी पार्टी राजद की छवि सेकुलर राजनीति के एक स्तंभ की तरह है। इसलिए कांग्रेस को वहां राजद के साथ लड़ना है। हां, अगर सीटों का बंटवारा जल्दी हो जाए तो वैसा नुकसान नहीं होगा, जैसा महाराष्ट्र में हुआ।
कांग्रेस की चुनावी रणनीति: गठबंधन या अकेले मुकाबला?
पश्चिम बंगाल में भी यह तर्क लागू होता है। कांग्रेस भले दबाव की राजनीति करेगी और केंद्र के साथ साथ राज्य सरकार को भी निशाना बनाएगी लेकिन यह स्टैंड नहीं ले सकती है कि वह अकेले लड़ेगी फिर चाहे उसके अकेले लड़ने से ममता बनर्जी चुनाव हार जाएं। पश्चिम बंगाल में पहली भाजपा सरकार बनवाने का दाग कांग्रेस अपने माथे पर नहीं ले सकती है। जब तक भाजपा बड़ी ताकत के तौर पर नहीं उभरी थी और इस बात की गारंटी दिख रही थी कि ममता बनर्जी भाजपा को हरा देंगी तब तक बात अलग थी।
लेकिन अब ममता के खिलाफ 15 साल की सत्ता विरोधी लहर होगी और दूसरे, भाजपा जिस रणनीति से एक के बाद एक राज्यों में जीत रही है उसे देखते हुए बंगाल को लेकर तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस दोनों में चिंता है। तभी लेफ्ट को अकेले लड़ने के लिए छोड़ कर कांग्रेस तालमेल का रास्ता चुनेगी। बंगाल में कांग्रेस इस बार लेफ्ट के साथ नहीं लड़ेगी क्योंकि इसका नुकसान उसे केरल में होगा। पिछली बार ऐसा ही हुआ था।
हालांकि गठबंधन को लेकर एक सिद्धांत यह दिया जाता है कि अगर तृणमूल और कांग्रेस दोनों साथ लड़ेंगे तो यह मैसेज जाएगा कि दोनों मुस्लिम वोटों की एकजुटता के लिए साथ आए हैं और तब इसकी प्रतिक्रिया में हिंदू ध्रुवीकरण ज्यादा हो सकता है। लेकिन इससे बचने का उपाय कांग्रेस का अकेले लड़ना नहीं है। अगर बंगाल में कांग्रेस का तालमेल तृणमूल के साथ होता है तो फिर यह प्रयोग असम में भी हो सकता है। असम में कांग्रेस ने मुस्लिम वोटों पर एकाधिकार बनाया है।
बदरूद्दीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएफ पूरी तरह से हाशिए में गई है। लेकिन अगर ममता बनर्जी के साथ तालमेल होता है तो बंगाली वोटों का रूझान भी कांग्रेस की ओर हो सकता है। असम में ममता बनर्जी के पास सुष्मिता देब का नेतृत्व है, जो पहले कांग्रेस में थीं और अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष थीं। उनके पिता संतोष मोहन देब राज्य के बड़े नेता थे और सिलचर के इलाके में अच्छा असर रखते थे। संतोष मोहन देब की बेटी सुष्मिता देब और तरुण गोगोई के बेटे गौरव गोगोई की जोड़ी प्रदेश में हिमंत बिस्वा सरमा को लिए चुनौती पैदा कर सकती है।
तमिलनाडु में कांग्रेस का गठबंधन पहले से डीएमके से है और इस बार भी दोनों साथ लड़ेंगे। जहां तक केरल का सवाल है तो वहां कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व का गठबंधन यूडीएफ और सीपीएम के नेतृत्व वाले गठबंधन एलडीएफ का सीधा मुकाबला होगा। वहां कांग्रेस और लेफ्ट तालमेल नहीं कर सकते हैं क्योंकि ऐसा हुआ तो 45 फीसदी हिंदू वोटों का बड़ा हिस्सा भाजपा की ओर जाएगा। उसे रोका नहीं जा सकेगा। हालांकि इससे कांग्रेस और लेफ्ट गठबंधन की जीत सौ फीसदी पक्की होगी लेकिन भाजपा दूसरी बड़ी ताकत के तौर पर राज्य की राजनीति में स्थापित होगी।
यह जोखिम कांग्रेस और लेफ्ट में से कोई नहीं ले सकता है। इसलिए वहां दोनों गठबंधन लड़ेंगे और भाजपा को कम से कम वोट और कम से कम सीटों पर रोकने की कोशिश करेंगे। अगले 14 महीने में छह राज्यों के चुनाव होने हैं, जिनमें से पांच में कांग्रेस अपने सहयोगियों के साथ लड़ेगी और केरल में लेफ्ट के साथ सीधी लड़ाई होगी। इन छह राज्यों के नतीजों से उससे आगे के यानी 2027 में होने वाले सात राज्यों के विधानसभा चुनाव की रणनीति तय होगी।
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