वैसे तो पिछले कुछ समय से जीवन के हर क्षेत्र में गिरावट आ रही है। हर चीज की गुणवत्ता खराब हो रही है। हवा-पानी से लेकर खाने-पीने की चीजों और कला, साहित्य, फिल्मों से लेकर राजनीति तक की गुणवत्ता निम्नतम स्तर की ओर बढ़ रही है। लेकिन सर्वाधिक गिरावट शिक्षा के क्षेत्र में दिख रही है। केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति लागू की है, जिसके असर का अंदाजा आने वाले समय में लगेगा लेकिन अभी शिक्षा की गुणवत्ता में चौतरफा गिरावट दिख रही है।
कई सर्वेक्षणों में स्कूली बच्चों के गणितीय कौशल या किसी भी विषय को समझने की उनकी क्षमता में गिरावट देखी गई है। हालांकि अपनी सुविधा के लिए इसे कोरोना महामारी से जोड़ दिया जाता है। कहा जाता है कि महामारी के स्कूल-कॉलेज बंद हो गए थे और पठन-पाठन का वैकल्पिक यानी ऑनलाइन सिस्टम अपनाया गया था, जिससे लर्निंग प्रोसेस पर व्यापक असर हुआ। लेकिन यह अकेला कारण नहीं है, बल्कि कई कारणों में से एक कारण है।
बहरहाल, शिक्षा के स्तर में गिरावट का एक बड़ा नमूना अभी देखने को मिला है, जब नेशनल मेडिकल कौंसिल यानी एनएमसी ने मेडिकल के पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स यानी विशेषज्ञता वाली चिकित्सा शिक्षा के लिए दाखिले का कटऑफ मार्क्स शून्य कर दिया। यानी एमबीबीएस पास करने वाले जो डॉक्टर इससे आगे की उच्च शिक्षा हासिल करना चाहते हैं और किसी खास विषय का विशेषज्ञ बनना चाहते हैं उनको अगर नीट की पीजी परीक्षा में शून्य अंक आया है तब भी वे पीजी में दाखिला ले सकेंगे। इतना ही नहीं 13 छात्र ऐसे हैं, जिनको शून्य से भी कम अंक मिले हैं।
उनके मार्क्स निगेटिव में हैं फिर भी वे विशेषज्ञ बनने की पढ़ाई के लिए पीजी कोर्स में दाखिला ले सकेंगे। सोचें, यह कैसी हैरान करने वाली और कितनी दुखद बात है! शून्य या माइनस मार्क्स वाले जिन छात्रों को पीसी कोर्स में दाखिला दिया जाना है वे ऐसे छात्र हैं, जिन्होंने चार या पांच साल तक मेडिकल की पढ़ाई की है। मेडिकल का कोर्स पूरा करने के बाद उनका स्तर यह है कि वे पीजी कोर्स में दाखिले की परीक्षा में एक भी अंक हासिल नहीं कर पाए तो फिर उनकी एमबीबीएस की पढ़ाई का क्या मतलब है?
नीटी पीजी की परीक्षा में शून्य या माइनस मार्क्स हासिल करने वाले छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए दाखिला देने की बजाय इस बात की जांच की जानी चाहिए कि ऐसे डॉक्टरों ने किस मेडिकल कॉलेज से पढ़ाई की है। उस मेडिकल कॉलेज की पूरी फैकल्टी की जांच की जानी चाहिए और उसका पंजीयन रद्द किया जाना चाहिए।
यह कोई मामूली बात नहीं है कि चार-पांच साल तक एमबीबीएस की पढ़ाई करके डॉक्टर बनने वाले लोग पीजी कोर्स में दाखिले के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षा में एक भी अंक नहीं हासिल कर पाएं। ऐसे डॉक्टर किस तरह से लोगों का इलाज करेंगे? क्या उनको डॉक्टर बनाना आम लोगों की जान से खिलवाड़ नहीं है? यह सही है कि देश में आबादी के अनुपात में डॉक्टरों की संख्या बहुत कम है लेकिन क्या इसके लिए नीम हकीम डॉक्टर बना कर बाजार में उतार दिया जाएगा? क्या एनएमसी ने नीम हकीम खतरा ए जान का मुहावरा नहीं सुना है?
मेडिकल में दाखिले के लिए पहले से चल रही तमाम प्रवेश परीक्षाओं या प्रक्रिया को खत्म करके 2017 में नीट को अपनाया गया था। उसके बाद से पहली बार ऐसा हुआ है कि पीजी कोर्स में दाखिले के लिए कटऑफ जीरो या माइनस में किया गया है। अगर ऐसा नहीं किया जाता तो पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स की 13 हजार से ज्यादा सीटें खाली रह जातीं।
देश में पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स यानी अलग अलग क्षेत्र की विशेषज्ञता की पढ़ाई के लिए कुल 68 हजार सीटें हैं। इन 68 हजार सीटों पर दाखिले के लिए एमबीबीएस कर चुके करीब सवा दो लाख डॉक्टरों ने परीक्षा दी थी। इनमें से सिर्फ 55 हजार डॉक्टर पीजी कोर्स में दाखिले के लिए तय किया गया कटऑफ मार्क्स हासिल कर सके। बाकी करीब पौने दो लाख डॉक्टरों के बारे में सोचें, जो दाखिला परीक्षा का कटऑफ मार्क्स नहीं हासिल कर सके! इस बार खाली रह गई सीटों को भरने के लिए उन सबको छूट दे दी गई है कि वे काउंसिलिंग में शामिल हों।
अब इससे जुड़े दूसरे पहलू को देखें। चूंकि नेशनल मेडिकल कौंसिल ने नीट पीजी की परीक्षा में शामिल हुए सभी एमबीबीएस डॉक्टरों को काउंसिलिंग में शामिल होने का मौका दे दिया है तो पीजी कोर्स में किसका दाखिला होगा? अगर सरकारी मेडिकल कॉलेजों को छोड़ें तो यह तय मानें कि तमाम निजी मेडिकल कॉलेजों में पीजी कोर्स में दाखिला उनका होगा, जो अनाप-शनाप पैसा खर्च करने में सक्षम होंगे। सरकारी कॉलेजों में पीजी की पढ़ाई की फीस बहुत कम है।
50 हजार रुपए सालाना से भी कम फीस वाले कॉलेज हैं लेकिन निजी मेडिकल कॉलेजों में एक साल की फीस एक-एक करोड़ रुपए तक है। सो, ऐसे डॉक्टर, जिनको प्रवेश परीक्षा में जीरो या माइनस में मार्क्स हैं वे आसानी से ज्यादा पैसा खर्च करके पीजी की सीट हासिल कर लेंगे। अब सवाल है कि आगे विशेषज्ञ डॉक्टर की डिग्री हासिल करके ऐसे लोग क्या करेंगे? महंगी फीस लेकर इलाज करेंगे लेकिन क्या उनके इलाज पर भरोसा किया जा सकेगा?
सरकार ने एमबीबीएस की डिग्री हासिल करने वाले डॉक्टरों के लिए एक एक्जिट एक्जाम का प्रावधान किया है। इसके तहत हर डॉक्टर के लिए प्रैक्टिस करने से पहले यह परीक्षा पास करना अनिवार्य किया गया है। इसे नेक्स्ट यानी नेशनल एक्जिट टेस्ट नाम दिया गया है। हैरानी की बात है कि एमबीबीएस की पढ़ाई करने, डिग्री लेने और नेशनल एक्जिट टेस्ट पास करने के बाद भी अगर डॉक्टर नीट पीजी में एक भी अंक हासिल नहीं कर पाएं तो क्या उनको मेडिकल प्रैक्टिस की इजाजत दी जानी चाहिए? जीरो या निगेटिव मार्क्स पर भी दाखिले का बचाव करते हुए कुछ जानकार बता रहे हैं कि पहले जब पीजी कोर्स में दाखिले की परीक्षा नहीं होती थी तब एमबीबीएस पास करने वाले हर डॉक्टर को पीजी में दाखिले के लिए योग्य समझा जाता था।
उसी तरह इस बार भी एमबीबीएस पास करने वाले हर डॉक्टर को पीजी के लिए योग्य माना गया है। लेकिन क्या यह आंखों देखी मक्खी निगलने का काम नहीं है? जब पीजी कोर्स के लिए दाखिला परीक्षा या प्रैक्टिस के लिए नेशनल एक्जिट टेस्ट नहीं होता था तब कम से कम परदा तो था। किसी को पता नहीं होता था कि एमबीबीएस डॉक्टर कितने पानी में हैं। लेकिन अब तो परीक्षा के जरिए पता है कि उसे कुछ नहीं आता है फिर भी उसको दाखिला देना और प्रैक्टिस की इजाजत देना एक बहुत खराब मिसाल बनाने वाली बात है। तमिलनाडु जैसे कुछ राज्य पहले से मेडिकल में दाखिले के लिए एक राष्ट्रीय परीक्षा आयोजित करने के विचार का विरोध करते रहे हैं। उनके विरोध का एक कारण अब यह भी होगा कि ऐसी प्रवेश परीक्षा का क्या मतलब है, जिसमें जीरो मार्क्स पर भी दाखिला होता हो!
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