nayaindia संघ-परिवार: हिन्दुओं का अंग्रेज़ी ज़िहाद? विदेशीता के लिए दोषी?

भाजपा बनाम इन्डिया: गलती कहाँ?

संघ-परिवार

भारत का इन्डिया नाम लगभग ढाई हजार वर्ष से चला आ रहा है। इस नाम के उद्भव और प्रयोग का अंग्रेजी राज से कोई लेना-देना ही नहीं है। ….सोचना चाहिए कि हमारे तमाम राजनीतिक दलों में असली बुद्धू कौन है? कथित पप्पू, या खुद को तीसमार खाँ समझने और अपने मुँह-मियाँ मिट्ठू बनने वाले संघ-परिवार-भाजपा नेता? केवल कुर्सी पर होना बुद्धिमत्ता का प्रमाण नहीं, जो विविध संयोग दुर्योग से भी होता है। इक्कीस वर्ष पहले गोवा में लालकृष्ण अडवाणी केवल चुप रह गए होते तो आज कुर्सीनशीन कोई और होते।

भारत में अधिकांश हिन्दू राष्ट्रवादी, विशेषकर संघ-परिवार के नेता और समर्थक लोग यहाँ ब्रिटिश-राज के काल के प्रति एक अस्वस्थ सी झक पालते हैं। अतीत या आज की भी गड़बड़ियों के लिए, या दूसरों जैसे इस्लामियों, वामपंथियों, यहाँ तक कि कांग्रेस और गाँधीजी, आदि के हानिकर कामों या भूलों के लिए भी अंग्रेजों को दोष देते रहते हैं। यह भी नहीं सोचते कि 75 वर्ष सुराज के बाद भी दूसरों को दोष देते रहना कैसा लज्जाजनक है!

अभी ‘इन्डिया’ बनाम भारत’ विवाद में भी, भाजपाई प्रचारक इन्डिया शब्द को गुलामी का प्रतीक, और यह शब्द अपनाने के लिए विपक्षी दलों को अंग्रेजों का पिट्ठू बताने में टूट पड़े। उन्हें इतनी भी जानकारी नहीं है, या वे इसे छिपाना चाहते हैं, कि स्वतंत्र भारत का संविधान स्वदेशी नेताओं ने बनाया, अंग्रेजी में ही बनाया, और उस में ‘इन्डिया दैट इज भारत’ भी उन्होंने ही लिखा। किन्हीं अंग्रेजों ने नहीं।

यही नहीं, खुद भाजपा नेताओं ने दशकों से, और हाल के बरसों में भी स्वयं अपने अनेक नामकरणों, जुमलों, योजनाओं, आदि में इसी शब्द का अनगिनत बार प्रयोग किया है। अपनी दलीय संस्थाओं के नामों में भी, जैसे ‘इमेज इन्डिया फाउंडेशन’, ‘इन्डिया फर्स्ट फाउंडेशन’, ‘इन्डिया पॉलिसी फाउंडेशन’, आदि। तो क्या संघ-भाजपा महाप्रभुओं को भी अंग्रेज ही घसीट रहे हैं?  यदि नहीं तो विपक्षी दलों द्वारा अपने समूह को इ.न.डि.या. का संक्षिप्त नाम (एक्रोनिम) देने पर भाजपा नेता बावले क्यों हो रहे हैं?

इस से तो उल्टे दिखता है कि कांग्रेसियों को बेवकूफ, खत्म, आदि कहने और देश को ‘कांग्रेस-मुक्त’ बनाने के अपने घमंड पर खुद भाजपा महाप्रभुओं को भी विश्वास नहीं है। वे विपक्षी दलों के एक सामान्य शब्द, जिस का खुद भाजपाई जम कर उपयोग करते रहे हैं, से बौखला उठे हैं। तो इस मुद्दे पर मूढ़ता किधर झलक रही है?

यहाँ एक मोटी सी बात भी याद करें कि भारत का इन्डिया नाम लगभग ढाई हजार वर्ष से चला आ रहा है। इस नाम के उद्भव और प्रयोग का अंग्रेजी राज से कोई लेना-देना ही नहीं है। बेल्जियन भाषाविद और भारतविद डॉ कूनराड एल्स्ट के अनुसार इस शब्द का मूल फारसी ‘हिन्दू’, चीनी ‘ईन्दू’/’खिन्दू’ तक जाता है। इस की व्युत्पत्ति सिन्धु नदी से जुड़ी सभ्यता और क्षेत्र की विदेशियों द्वारा दी गई संज्ञा से हुई थी। फारसी से ही अरबी भाषा में भी ‘हिन्दू’/’हिन्दवी’ शब्द आया।

चूँकि कई विदेशी भाषाओं में महाप्राण ‘ह’ की ध्वनि नहीं है, या हल्की है, जिस से उन के द्वारा ‘हिन्दू’ का उच्चारण ‘इन्डू’ हो जाता था। अतः इन्डस, इन्डू व इन्डिया जैसी संज्ञाएं रोमन साम्राज्य के समय से विख्यात है। दो हजार साल पहले मिस्त्र के विश्वप्रसिद्ध भूगोलविद टॉलेमी ने ‘इन्डिया’ का मानचित्र बनाया था। यह भी, कि सभी विदेशी भाषाओं में सदियों से हिन्दू, इन्दू, इन्डिया को धन और ज्ञान में उन्नत देश नोट किया गया मिलता है। यानी, विदेशियों द्वारा इन्डिया नाम कोई हीनता का प्रतीक नहीं रहा था।

बहरहाल, अब विपक्षी दलों के एक समूह द्वारा ‘इन्डिया’ स्व-नामकरण के बाद भाजपा महाप्रभुओं द्वारा ‘इन्डिया’ शब्द ही हटाने, मिटाने और बदले में ‘भारत’ शब्द जमाने की कोशिशें आश्चर्यजनक, और बड़ी बचकानी लगती हैं।

पहले तो, उन्हें तब भारत शब्द की कभी जरूरत महसूस न हुई जब वे स्वयं ‘इन्डिया शाइनिंग’, ‘डिजिटल इंडिया’, ‘मेक इन इन्डिया’, ‘स्टार्ट अप इन्डिया’, ‘इन्डिया फर्स्ट’, आदि रट रहे थे। तो क्या इन्डिया शब्द पर वे अपना दलीय एकाधिकार समझते थे? या कि उन्हें विदेशियों से अधिक अपने ही विपक्षी देशवासियों से शत्रुता है? यह कैसा राष्ट्रवाद है! यह तो क्षुद्र पार्टीवाद है।

इस का एक प्रत्यक्ष, और लज्जाजनक प्रमाण यह भी कि जब तक संसद द्वारा कोई औपचारिक नाम बदलाव नहीं हुआ, तब तक किसी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में इन्डिया शब्द हटा कर भारत लिखने की झक दिखाना अनुचित था। विदेशियों के सामने ऐसा करना राष्ट्रीय हितों के बदले क्षुद्र पार्टीबंदी का प्रदर्शन ही कहा जाएगा। इसलिए भी क्योंकि सारी दुनिया के औपचारिक दस्तावेजों में इन्डिया है, और अधिकांश विदेशी यही नाम जानते हैं।

यह सब वैसे भी मूढ़ता ही साबित होगी। क्यों कि अब भाजपा सारी ताकत लगा कर ‘इन्डिया’ शब्द को भारत में आधिकारिक प्रयोगों से हटा भी दे, तब भी उसे सही काम कर देने का श्रेय कदापि न मिलेगा। यह अवसर‌ वह चूक गई है। अब तो सारी दुनिया यही समझेगी कि यह देशभक्ति या स्वभाषा-प्रेम में नहीं, बल्कि विपक्षी दलों से डर कर किया गया। इस तरह, वे एक उचित काम करके भी नक्कू बनेंगे। तो बुद्धू कौन ठहरा?

तीसरे, बुद्धूपने का सब से दारुण पक्ष यह कि यदि भाजपा महाप्रभुओं ने देश-प्रदेश के राजकीय क्षेत्र में, जहाँ भी वे सर्वेसर्वा रहे या आज भी हैं, हर कार्य में भारतीय भाषाओं को कम से कम अंग्रेजी के समान स्थान देने की भी नीति अपनाई होती – यानी यहाँ अंग्रेजीदाँ भारतीयों को अधिक महत्व मिलने वाली स्थिति बदली होती – तो ‘इन्डिया’ शब्द स्वत: धूमिल पड़ जाता! तब सभी प्रयोगों ‘भारत’ शब्द अपने-आप प्रधान हो जाता, जो देश के हर कोने में, हर स्वदेशी भाषा में हजारों वर्ष पहले से स्थापित है।

किन्तु, तमाम राजकीय काम, संस्थाओं, औपचारिक शिक्षा-परीक्षा, नियुक्तियों, दस्तावेजों, कार्यालयों, आदि में अंग्रेजी भाषा का विशेषाधिकार यथावत् बने रहने देकर केवल एक ‘इंडिया’ शब्द हटाने की जुगत करना डफराना है। जैसे किसी पेड़ की जड़ शौक से सींचते रह कर, उस की डाली या पत्ते नोचने का जतन करना। उसी तरह, देश में विदेशी औपनिवेशिक भाषा का वर्चस्व हटाने के बजाए भाजपा महाप्रभु केवल एक शब्द हटाने की कसरत कर रहे हैं!

कुल मिलाकर, यह कैसी लज्जास्पद स्थिति है कि चीन, जापान, जर्मनी, फिन, आदि देश तो अपने राष्ट्रीय हित और सांस्कृतिक समृद्धि पर ध्यान केंद्रित करते हैं – जब कि भारत के हिन्दू नेता और उन के समर्थक मामूली झुनझुनों में व्यस्त मगन रहते हैं। इस बीच चाहे हमारे वास्तविक, मर्मभूत हितों पर भी हिन्दुओं के शत्रु मतवादियों, बाहरी तत्वों का अधिकार क्यों न बढ़ता जाए! दशकों से भारत के नीतिगत विकास की सरसरी समीक्षा भी दिखाती है, कि हिन्दू समाज अपने ही देश में क्रमशः ‘आठवें दर्जे का’ हीन समुदाय बना डाला गया है। जैसा अंग्रेजी राज में बिलकुल नहीं था! (अंग्रेजों को दोष देने की झक पालने वाले राष्ट्रवादी जरा इश पर भी विचार करें।)

अभी-अभी प्रखर बौद्धिक आनन्द रंगनाथन ने एक पुस्तक “हिन्दूज इन हिन्दू राष्ट्र: एट्थ क्लास सिटिजन्स एंड विक्टिम्स ऑफ स्टेट-सैंकसन्ड अपार्थेइड” लिखकर आठ बड़े नीतिगत मुद्दों का विश्लेषण करके हमारी यह दुर्दशा दिखाई है। यह प्रक्रिया देश में हर कहीं भाजपा वर्चस्व में भी बदस्तूर चलती और बढ़ती गई है। किन्तु इस पर कभी रंच मात्र भी चिन्ता न कर के, अपना सारा समय और ताकत पिटे हुए विरोधी दलों को ही पीटने में लगाना, और इस में देश की ऊर्जा एवं संसाधन नष्ट करना… यह कैसी बुद्धि हुई!

कभी सोचना चाहिए कि हमारे तमाम राजनीतिक दलों में असली बुद्धू कौन है? कथित पप्पू, या खुद को तीसमार खाँ समझने और अपने मुँह-मियाँ मिट्ठू बनने वाले संघ-भाजपा नेता? केवल कुर्सी पर होना बुद्धिमत्ता का प्रमाण नहीं, जो विविध संयोग दुर्योग से भी होता है। इक्कीस वर्ष पहले गोवा में लालकृष्ण अडवाणी केवल चुप रह गए होते तो आज कुर्सीनशीन कोई और होते।

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By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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