nayaindia Kurma Dwadashi शुभ दिन है कूर्म द्वादशी

शुभ दिन है कूर्म द्वादशी

भारतीय परंपरा में कूर्म द्वादशी को शुभ तिथियों में एक माना जाता है। इसीलिए इस दिन की शुभता को देखते हुए अयोध्या में नवनिर्मित भव्य श्रीराम मंदिर में रामलला मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के लिए कूर्म द्वादशी के दिन को ही निर्धारित किया गया है। मान्यता है कि चांदी अथवा अष्टधातु से निर्मित कछुए को घर अथवा दुकान में रखना काफी शुभ होता है। इससे जीवन में उन्नति की संभावनाएं बढ़ जाती है। मान्यता के अनुसार समुद्र मंथन के समय देवताओं की सहायता के लिए और मंदराचल  पर्वत को डूबने से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने कूर्म अर्थात कछुए का अवतार धारण किया था।

22 दिसम्बर- कूर्म द्वादशी व्रत

भारतीय पंचांग के अनुसार पौष मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को कूर्म द्वादशी कहा जाता है। यह दिन जगत के पालनहार भगवान विष्णु के द्वितीय अवतार कच्छप अर्थात कूर्म  अवतार को समर्पित है। इस दिन भगवान विष्णु के कूर्म अवतार के पूजन -अर्चना की पौराणिक परिपाटी है। मान्यता है कि कूर्म द्वादशी के दिन दान, धर्म और श्राद्ध कार्यों से समस्त पापों का नाश होता है। इस वर्ष 2024 में पौष शुक्ल द्वादशी की तिथि 22 जनवरी दिन सोमवार को पड़ने के कारण इसी दिन कूर्म द्वादशी मनाई जाएगी। भारतीय परंपरा में कूर्म द्वादशी को अत्यंत ही शुभ तिथियों में माना जाता है। इसीलिए इस दिन की शुभता को देखते हुए अयोध्या में नवनिर्मित भव्य श्रीराम मंदिर में रामलला मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के लिए कूर्म द्वादशी के दिन को ही निर्धारित किया गया है।

प्रचलित पौराणिक मान्यता के अनुसार पौष शुक्ल द्वादशी के दिन की जाने वाली कूर्म द्वादशी व्रत में भगवान विष्णु की कृपा, आशीर्वाद, और सुरक्षा प्राप्ति हेतु उनके कूर्म स्वरूप के पूजन का विधान है। कुछ क्षेत्रों में इस दिन घर में कछुए लाने को शुभ माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि चांदी अथवा अष्टधातु से निर्मित कछुए को घर अथवा दुकान में रखना काफी शुभ होता है। इससे जीवन में उन्नति की संभावनाएं बढ़ जाती है। मान्यता के अनुसार समुद्र मंथन के समय देवताओं की सहायता के लिए और मंदराचल  पर्वत को डूबने से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने कूर्म अर्थात कछुए का अवतार धारण किया था।

विष्णु के दशावतार की कथा को विभिन्न मत के अनुसार कई रूपों में व्याख्यायित किया जाता है, जिनमें अनेक समानताएं, विषमताएं तथा विरोधाभास भी है। एक मत के अनुसार दशावतार की यह कथा सृष्टि की जन्म प्रक्रिया को दर्शाती है। इस मत के अनुसार जल से सभी जीवों की उत्पति हुई। इसलिए भगवान विष्णु सर्व प्रथम जल के अन्दर मत्स्य रूप में प्रगट हुए। फिर कूर्म बने। तत्पश्चात वराह, जो जल तथा पृथ्वी दोनों का जीव है। फिर पशु योनि से मानव योनि में परिवर्तन का जीव नरसिंह, अर्थात आधा पशु- आधा मानव हुए। वामन अवतार बौना शरीर है। परशुराम एक बलिष्ठ ब्रह्मचारी का स्वरूप है। राम अवतार से गृहस्थ जीवन में स्थानांतरित हो जाते हैं। कृष्ण अवतार एक वानप्रस्थ योगी, और बुद्ध पर्यावरण का रक्षक हैं। पर्यावरण के मानवी हनन की दशा सृष्टि को विनाश की ओर धकेल देगी।

यही कारण है कि विनाश निवारण के लिए कल्कि अवतार की भविष्यवाणी पौराणिक साहित्य में पूर्व से ही कर दी गई है। एक अन्य मत के अनुसार यह मानव जीवन के विभिन्न पड़ाव को दर्शाती है। मत्स्य अवतार शुक्राणु है, कूर्म भ्रूण, वराह गर्भ स्थति में शिशु का वातावरण, तथा नर-सिंह नवजात शिशु है। आरम्भ में मानव भी पशु जैसा ही होता है। वामन बचपन की अवस्था है, परशुराम ब्रह्मचारी, राम युवा गृहस्थी, कृष्ण वानप्रस्थ योगी तथा बुद्ध वृद्धावस्था का प्रतीक है। कल्कि  मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म की अवस्था है।

कूर्म अवतार से संबंधित कथाएं शतपथ ब्राह्मण, महाभारत आदि पर्व, विष्णु पुराण, पद्म पुराण, लिंग पुराण, भागवत पुराण, कूर्म पुराण आदि पौराणिक ग्रंथों में अंकित हैं। मान्यतानुसार विष्णु के दस अवतारों में द्वितीय कूर्म अवतार वैशाख पूर्णिमा को हुआ था।   नरसिंहपुराण के अनुसार कूर्मावतार द्वितीय अवतार और भागवतपुराण 1/3/16 के अनुसार ग्यारहवाँ अवतार हैं। शतपथ ब्राह्मण 7/5/1/5-10, महाभारत आदि पर्व 16 तथा पद्मपुराण उत्तराखंड के अनुसार संतति प्रजनन हेतु प्रजापति, कच्छप का रूप धारण कर पानी में संचरण करता है। कूर्म अवतार लेने के पीछे भगवान विष्णु का उद्देश्य महाप्रलय के पश्चात समुद्र की गहराइयों में चली गई बहुमूल्य रत्न तथा औषधियों को प्राप्त करने हेतु देव-दानवों का समुंद्र मंथन में सहायता करने लिए मंदार पर्वत का भार उठाना था। क्योंकि उसी के द्वारा सृष्टि का कल्याण संभव था। बुराई के प्रतीक दैत्यों का उपयोग अच्छाई के कार्य के लिए किए जाने का प्रदर्शन इस अवतार की विशेषता थी।

लिंगपुराण के अनुसार पृथ्वी के रसातल को जाते समय उसके उद्धार के लिए विष्णु ने कच्छपरूप में अवतार लिया। कच्छप की पीठ का घेरा एक लाख योजन था। प्रचलित पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन काल में एक समय देवताओं को अपनी शक्ति का अहंकार हो जाने पर उन्होंने ऋषि दुर्वासा का अपमान कर दिया था। इससे क्रुद्ध होकर ऋषि दुर्वासा  ने देवताओं को श्रीहीन होने का श्राप दे दिया था। पद्मपुराण ब्रह्मखंड के अनुसार इंद्र के द्वारा दुर्वासा ऋषि द्वारा दिए गए पारिजातक माला का अपमान किए जाने पर कुपित होकर दुर्वासा ने इंद्र के वैभव का नष्ट होने का शाप दे दिया। परिणामस्वरूप लक्ष्मी समुद्र में लुप्त हो गई। देवताओं की शक्ति दानवों के समक्ष कम पड़ गई। और दानवों के राजा बलि ने देवराज इंद्र को पराजित कर त्रिलोक पर अधिकार कर लिया। तीनों लोकों पर दानवों का राज हो जाने पर चारों ओर अधर्म बढ़ने लगा। यह देखकर देवता अत्यधिक हताश व विचलित होकर भगवान विष्णु के पास सहायता मांगने पहुंचे। तब भगवान विष्णु ने इसके लिए समुंद्र मंथन का उपाय बताया।

उससे कुछ समय पूर्व ही धरती गत प्रलय से उबरी थी, और कृतयुग का पुनरोदय हो रहा था। इसलिए नाना प्रकार के बहुमूल्य रत्न और अनमोल औषधियाँ समुंद्र की गहराइयों में जाकर छिपे थे। इसलिए विष्णु ने समुद्र मंथन कर उन बहुमूल्य रत्नों को पाने के लिए उद्यम करने को कहा। विष्णु ने देवों को समुद्र मंथन से अमृत निकलने का रहस्य बतलाते हुए कहा कि इसे प्राप्त कर देवता अमर हो जाएंगे। अमृत पीकर देवताओं की शक्ति में दानवों से अत्यधिक वृद्धि होने से वे देवलोक पर पुनः सिंहासनारूढ़ हो सकेंगे। उन्होंने यह भी बताया कि समुद्र मंथन का कार्य बहुत श्रमसाध्य और कठिनाईयुक्त होने के कारण उसे अकेले न तो देवता कर सकते थे, और न ही अकेले दानव। इसलिए विष्णु ने देवताओं को दानवों के साथ मिलकर इस कार्य को सम्पन्न करने की सलाह दी। विष्णु की सलाह मान देवताओं ने राजा बलि की नगरी जाकर उनके सामने समुंद्र मंथन का प्रस्ताव रखा। दैत्य गुरु शुक्राचार्य को देवताओं पर विश्वास नही था, लेकिन देवताओं का यह प्रस्ताव उन्हें बहुत पसंद आया तथा इस कार्य के लिए उन्होंने अपनी सहमति प्रदान कर दी। देव व दानव क्षीर सागर में समुंद्र मंथन के लिए पहुंचे।

समुंद्र के मंथन के लिए विशाल मथनी अर्थात मदारी की आवश्यकता थी, जो उसे मथ सके। इसके लिए विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र की सहायता से मंदार पर्वत को काटकर समुंद्र में रख दिया। इस पर्वत की सहायता से देव व दानव समुंद्र को मथने का कार्य कर सकते थे। लेकिन इस पर्वत को घुमाने के लिए उन्हें एक मजबूत रस्सी की आवश्यकता थी। इसके लिए विष्णु ने स्वयं अपना वासुकी नाग दिया। इस वासुकी नाग को मंदार पर्वत पर लपेटा गया। इसके मुख को दैत्यों ने और पूँछ को देवताओं ने पकड़कर समुद्र मंथन का कार्य प्रारंभ कर दिया, लेकिन कार्यारंभ के साथ ही उनके समक्ष एक समस्या आन पड़ी। समुद्र अत्यंत विशाल और गहरा होने तथा उसका अवलंब कोई पक्की भूमि नहीं होने के कारण मंथन के लिए प्रयुक्त मंदार पर्वत अंदर रसातल की ओर जाने लगा। उसके डूब जाने से समुंद्र मंथन का कार्य अधूरा रह जाने की संभावना उत्पन्न होने लगी। यह देखकर विष्णु स्वयं देव-दानवों की सहायता करने के लिए अपना द्वितीय कूर्म अर्थात कछुए का अवतार लेकर उनके सामने आये। और उन्होंने मंदार पर्वत का भार अपनी पीठ पर उठा लिया।

ऐसी मान्यता है कि यह दिन पौष शुक्ल द्वादशी का था। कछुए की पीठ ठोस होने के कारण मंदार पर्वत उस पर टिक गया। और देवताओं व दानवों ने कई दिनों तक अनवरत समुंद्र मंथन का कार्य सम्पन्न किया। समुंद्र मंथन से एक-एक कर चौदह रत्न प्राप्त हुए, जिनमें हलाहल, कामधेनु, माँ लक्ष्मी, ऐरावत हाथी, उच्च:श्रैवा घोड़ा, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, रंभा अप्सरा, वारुणी देवी, चंद्रमा, पारिजात, पांचजन्य, धन्वंतरि तथा अमृत शामिल थे। अमृत के प्राप्त होते ही देव-दानवों के बीच उसे प्राप्त करने के लिए भयानक युद्ध छिड़ गया। तब भगवान विष्णु ने अपना अंशावतार मोहिनी लेकर उस युद्ध को समाप्त किया तथा सृष्टि का उद्धार किया।

ऐसी मान्यता है कि एकादशी का उपवास लोक में कच्छपावतार के बाद ही प्रचलित हुआ। कूर्म नामक एक कूर्म पुराण भी है, जिसमें विष्णु भगवान के द्वारा कूर्मावतार अर्थात कच्छप रूप में समुद्र मंथन के समय मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण करने के प्रसंग में राजा इन्द्रद्युम्न को ज्ञान, भक्ति और मोक्ष का उपदेश दिए जाने का वर्णन है। उस कथा को ही लोमहर्षण सूतजी ने शौनकादि ऋषियों को नैमिषारण्य में सुनाया था। वही वर्तमान का कूर्म पुराण है। कूर्मपुराण में विष्णु ने अपने कच्छपावतार में ऋषियों से जीवन के चार लक्ष्यों -धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की वर्णन किया था।

By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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