nayaindia darwins theory of evolution डार्विन का विकासवाद कहानी है!

डार्विन का विकासवाद कहानी है!

डार्विन के विकासवाद को आरंभ से ही विरोध का सामना करना पड़ा, और अनेक देशों व सभ्यताओं के विद्वानों ने इसे नकार दिया, लेकिन अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य विस्तार के क्रम में अन्य सभ्यताओं को अपनी दास बनाए रखने और अपनी सता कायम करने लिए इस वाद का बखूबी प्रयोग किया, और डार्विन के विकासवाद को प्रश्रय देकर अन्य सभ्यताओं में सृष्टि रचना से संबंधित प्रचलित मान्यताओं को नकारने का इसे स्रोत बना लिया।

12 फरवरी -अंतर्राष्ट्रीय डार्विन दिवस

डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत को पाठ्यक्रम से हटाने पर देश के कुछ विद्वानों व शिक्षकों ने हैरानी जताते हुए कहा है कि डार्विन का सिद्धांत छात्रों के लिए काफी अहम है। इसे पाठ्यक्रम से हटाने पर अब बच्चों को मनुष्य के विकास यात्रा के बारे में कैसे पता चलेगा?12 फरवरी 1809 को इंग्लैंड के हैम्पशायर में पेशे से एक डॉक्टर रावर्ट डार्विन के घर जन्मे चार्ल्स डार्विन के द्वारा बीस वर्षों तक मनुष्य और जीव-जंतुओं के क्रमिक विकास के संबंध में किए गए खोज पर आधारित उनका यह सिद्धांत बताता है कि मनुष्य के पूर्वज बंदर थे, और सभी जीवों की उत्पत्ति एक ही जीव से हुई है। हम सभी के पूर्वज एक ही हैं। हर प्रजाति चाहे वह मनुष्य हो, जानवर हों, पक्षी हों अथवा पेड़-पौधे हों, सभी एक-दूसरे से संबंधित हैं।

डार्विन के इस विचार को थ्योरी आफ इवोल्यूशन यानी विकासवाद का सिद्धांत कहा जाता है। इसके अनुसार इस धरती पर सबसे पहले एक कोशिका वाले जीव बने। ये जीव पानी में रहते थे। समय और परिस्थितियों के अनुसार इन्होंने स्वयं को ढाल लिया। एक कोशिकीय जीव के बाद बहुकोशकीय जीव बने। इस तरह जीव विकास की यह यात्रा करोड़ों वर्षों तक चली, जिसके परिणामस्वरूप बंदर से मनुष्य बना। धरती पर जीवन की शुरुआत से ही जीवों का आपसी और प्रकृति के प्रति संघर्ष चला आ रहा है। जो इस संघर्ष में अनुकूल रहे, वे जीवित रहे, वहीं, जो प्रतिकूल रहे, वो नष्ट हो गए।

डार्विन के इस विकासवाद को आरंभ से ही विरोध का सामना करना पड़ा, और अनेक देशों व सभ्यताओं के विद्वानों ने इसे नकार दिया, लेकिन अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य विस्तार के क्रम में अन्य सभ्यताओं को अपनी दास बनाए रखने और अपनी सता कायम करने लिए इस वाद का बखूबी प्रयोग किया, और डार्विन के विकासवाद को प्रश्रय देकर अन्य सभ्यताओं में सृष्टि रचना से संबंधित प्रचलित मान्यताओं को नकारने का इसे स्रोत बना लिया। 1831 से लेकर 1836 तक एचएमएस बीगल पर डार्विन की समुद्र यात्रा के संग्रहों पर आधारित इस विकासवाद संबंधी विचार के लिए उन्हें 1839 में फेलो आफ रायल सोसायटी, 1853 में रायल मेडल, 1859 में वोल्स्टन मेडल और 1864 में कापली मेडल से सम्मानित किया गया।

अनेक देशों में वहाँ के स्थानीय मान्यताओं के अपमान, तिरस्कार के लिए आंग्ल शासन के साये में डार्विन के विकासवाद को शिक्षा तत्पश्चात नौकरी देने की लालच देकर पाठ्यक्रमों में शामिल कर दिया गया, और स्थानीय मान्यताओं को दबाकर, हतोत्साहित कर ब्रिटिश इतिहास, मान्यताओं को प्रश्रय देने का भरपूर कोशिश किया गया। फिर भी डार्विन के इस विचार को अनेक सभ्यताओं के विद्वानों और कई देश के लोगों ने आरंभ से ही विरोध किया और डार्विन के इस विचार को मानने से इंकार कर दिया।

सांस्कृतिक दृष्टि से अति समृद्ध भारत जैसे देश में भी यहाँ के सनातनी वैदिक विद्वानों और भारत, भारतीय व भारतीयता के समर्थकों ने इसका आरंभ से ही विरोध किया है। ऐसे लोग आज भी राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद के द्वारा नौवीं और दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम से डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत को हटा दिए पर प्रसन्न, उत्साहित हैं। इस आदेश से प्रसन्न सनातनी वैदिक विद्वानों और भारत, भारतीय व भारतीयता के समर्थकों का कहना है कि विकासवाद आज तक सिद्धांत नहीं बन पाया, यह सिर्फ वाद है। वर्तमान युग का सबसे बड़ा छलना अर्थात फ्रॉड है यह डार्विन का विकासवाद। विकासवाद एक महान गल्प है। इसको न तो वैज्ञानिक माना जा सकता है और न ही इसमें कोई प्रमाण है। विकासवाद आज तक सिद्धांत नहीं बन पाया, यह सिर्फ वाद है।

डार्विन ने इस संसार के लोगों पर एक बहुत बड़ी छलना खेली है। उसका परिणाम ही है कि मानव समाज की दृष्टि से सत्य लोप होकर असत्य ही सत्य प्रतीत होने लगा है। डार्विन के विकासवाद को दो भागों में बांटा जा सकता है। प्रथमतः तो सब जन्तु एक प्रकार के एक कोशीय प्राणी से उत्पन्न होने और द्वितीयः इस विकासवाद के मनुष्य पर किए जाने वाले प्रयोग से। डार्विन का प्रथम विचार यह है कि सब जन्तु एक प्रकार के एक कोशीय अर्थात सिंगल सेल्लुलर प्राणी अमीबा से उत्पन्न हुए हैं। परन्तु संसार में नियमानुसार निरन्तर घट रहे घटनाओं के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि एक जन्तु से दूसरे प्रकार का जन्तु नहीं बन सकता और न ही कभी बनता देखा गया है। इसके दूसरे भाग का सम्बन्ध इस विकासवाद के मनुष्य पर प्रयोग किये जाने से है।

परन्तु मानव इतिहास के अध्ययन से इस तथ्य की ही पुष्टि होती है कि विकासवाद से सम्बंधित यह कथन मिथ्या है कि मनुष्य में शारीरिक, मानसिक अथवा आत्मिक विकास हुआ है। इस तथ्य से सहमत नहीं होने वाले वैज्ञानिक अथवा व्यक्ति जब किसी दिन किसी बन्दर को मनुष्य बनाकर दिखला देंगे, तब उस दिन डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत के वैज्ञानिक होने पर विचार किया जा सकगा। हाँ, मानव मन के विषय में स्पष्टतः कहा जा सकता है कि सृष्टि के आदि काल से लेकर आज तक इसमें रंच मात्र भी परिवर्तन नहीं हुआ है। भारतीय इतिहास यही बतलाता है। वर्तमान युग की बड़ी- बड़ी मशीनें और रेलगाड़ियाँ, बड़े – बड़े जहाज और उड़नखटोले अर्थात वायुयान व अन्य सुख -सुविधा के साधन भी मन के विकास को प्रकट नहीं करते और न ही मन के विकास के साथ ये सम्बंध रखते हैं।

हाँ, इन आविष्कारों का बुद्धि से सम्बन्ध है। बुद्धि वह यंत्र है जिसको आंग्ल भाषा में ब्रेन कहते हैं। यह शरीर के हाथ, पाँव इत्यादि अंगों की भांति ही एक अंग है। जैसे हाथ- पाँव को कोई भी मनुष्य व्यायाम से अधिक सबल कर सकता है, इसी प्रकार बुद्धि को भी व्यायाम कराने से सुदृढ़ अथवा दुर्बल किया जा सकता है। बुद्धि का विकासवाद के साथ सम्बन्ध नहीं, इसका प्रयोग और अभ्यास के साथ सम्बन्ध है। एक ही जन्म में शिक्षा और अभ्यास से बुद्धि विकसित हो सकती है, अथवा उसका ह्रास हो सकता है।

विकास अर्थात वे परिवर्तन जो मानव जाति में पीढ़ी के अनन्तर पीढ़ी तक चलते हैं, वे कहीं दिखाई नहीं देते। मानव मन के विकार- काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, जैसे मनुष्य में सृष्टि के आदि काल में थे, वैसे आज भी हैं। प्राणियों में किसी प्रकार का अंतर होता हुआ दिखाई नहीं देता। मनुष्य आज भी वैसे की वैसे ही है, जैसे आज से पांच सहस्त्र वर्ष पूर्व था अथवा आदि काल में था। उन्नति तो हुई नहीं, बल्कि उसमे घटियापन ही आया है। चौर्यक्रम, बलात्कार करने वाले, क्रोध से सर्वनाश करने वाले अथवा लोभ में संसार को बेच देने वाले तो वैसे की वैसे ही हैं। तब ये बैलगाड़ी पर यात्रा करते थे, अब रेलगाड़ी में जाते हैं। परन्तु चोर, डाकू, कामी तो वैसे के वैसे ही हैं। नेपोलियन और चार्ल्स तो आदि काल में भी थे। उस समय उनके नाम हिरण्याक्ष और रावण थे, कंस और दुशासन थे। इतिहास तो मनुष्य के इन विकारों और उनको परास्त करने की कहानी है। यह बार- बार उसी रूप में चलती है, जिसमें सदा चलती आई है। इस कारण इतिहास महान विद्या है। इसको भली प्रकार समझ कर मनुष्य सुख और शांति प्राप्त कर सकता है।

एक अन्य विचार के अनुसार डार्विन का यह विकासवाद भारतीय पौराणिक दशावतार का ही प्रतिरूपण है। विकासवाद मुख्यतः चार भाग में विभक्त है – पशु, पशुवत, अपूर्ण प्राणी एवं पूर्ण प्राणी। ठीक इसी प्रकार पौराणिक ग्रंथों में अंकित विष्णु दशावतार भी विभाजित है। मत्स्य, कूर्म एवं वराह पशुरूपी अवतार हैं, नृसिंह पशुवत अर्थात पशु एवं मनुष्य के मिले जुले रूप हैं, वामन और कुछ हद तक परशुराम अपूर्ण तथा श्रीराम, बलराम, श्रीकृष्ण एवं कल्कि पूर्ण पुरुष अवतार हैं। यह सभी अवतार चार युगों में भी बटें हैं। मत्स्य, कूर्म, वराह एवं नृसिंह सतयुग में, वामन, परशुराम, श्रीराम त्रेतायुग में, बलराम एवं श्रीकृष्ण द्वापरयुग में तथा कल्कि कलियुग में अवतरित होंगे।

बहरहाल 19 अप्रैल1892 को डॉ कैंट इंग्लैंड में डार्विन का निधन हो गया और उन्हें लंदन में वेस्टमिंस्टर 90 में दफना भी दिया गया, लेकिन वर्तमान में भी प्राचीन सभ्यताओं में मान्यताप्राप्त सृष्टि रचना प्रक्रिया संबंधी मान्यताओं को वहाँ के स्थानीय लोगों के मानस पटल से हटाकर, दूरकर ब्रिटिश मान्यता संबंधी विचार को प्रश्रय देने वाली ऐसी प्रवृति निरंतर जारी है। विगत कुछ दशक से प्रकृतिवादी चार्ल्स डार्विन के जन्म दिन 12 फरवरी को विकासवाद के विचार को पूर्ण मान्यता प्रदान करने के उद्देश्य से अंतर्राष्ट्रीय डार्विन दिवस के रूप में मनाया जाने लगा है। अंतर्राष्ट्रीय डार्विन दिवस की शुरुआत तीन डार्विन उत्साहित लोगों द्वारा की गई थी। डॉ. रावत स्टीफन प्रोफेसर मसीह में पिघुची और अमांडा चैस्वर्ट 1995 में सिलिकॉन वैली मानवतावादी समुदाय को वार्षिक दारुण दिवस मना समारोह शुरू करने के लिए प्रेरित किया। 1997 में मैसिमटी ने संयुक्त राज्य अमेरिका के ट्रेन एसी विश्वविद्यालय में वार्षिक डार्विन दिवस समारोह की शुरुआत की। 2000 में अमनदाचे स्वस्थ न्यू मैक्सिको यूएसए में आधिकारिक तौर पर डार्विन दिवस कार्यक्रम को शामिल करने के लिए हिस्ट्री फंक्शन में शामिल हो गए। और अब सम्पूर्ण विश्व में 12 फरवरी अंतर्राष्ट्रीय डार्विन दिवस के रूप में मनाया जाता है।

By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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