nayaindia russia ukraine war यूक्रेनः आल इज़ नॉट वेल!

यूक्रेनः आल इज़ नॉट वेल!

आल इज़ नॉट वेल। दिसंबर ज़रा भी खुशनुमा नहीं है। हवा में उदासी और निराशा घुली हुई है। सन् 2023, इतिहास बनने वाला है। दुनिया झमेलों में उलझी हुई है। कई देश मुसीबतों से जूझ रहे हैं। हमें बताया जा रहा है कि लोकतंत्र का भविष्य अंधकारमय है। अर्थव्यवस्थाएं थपेड़े खा रही हैं। दुनिया गर्म, और गर्म होती जा रही है। दो युद्ध जारी हैं। और ऐसा लगता है कि वे 2024 में भी जारी रहेंगे।

पिछली सर्दियों में शुरू हुआ रूस-यूक्रेन संघर्ष इन सर्दियों में दम तोड़ता सा लग रहा है। पश्चिमी और अन्य देशों का ध्यान अब इजराइल-हमास युद्ध की और मुडा हुआ है। इस युद्ध में धर्म का तड़का लगा है और उसे “आतंकवाद के विरूद्ध लड़ाई” भी बताया जा रहा है। इसके विपीत, यूक्रेन पर हमले की प्रकृति विचारधारात्मक है। अमेरिका का ध्यान अन्यत्र केन्द्रित होने तथा जो बाईडन की राजनैतिक स्थिति में गिरावट के बीच यूक्रेन की मदद में अबयोरोपीय संघ (ईयू) का संकल्प भी कमजोर हो गया है।तभी 14 और 15 दिसंबर को आयोजित ईयू के शीतकालीन वर्षांत सम्मेलन को लेकर अनेक संशय हैं। इस वर्ष यूक्रेन को ईयू की सदस्यता और आर्थिक सहायता दी जानी थी। अब दोनों की संभावनाएं कम होती नजर आ रही हैं। इसकी एक वजह है हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान का एक बार फिर माहौल बिगाड़ने में जुटा होना। ओरबान यह दोहराते रहे हैं कि ईयू को यूक्रेन की सदस्यता से पहले उससे एक रणनीतिक भागीदारी समझौते पर हस्ताक्षर कराना चाहिए। इसलिए क्योंकि यूक्रेन को सदस्यता देने के ईयू पर क्या प्रभाव होंगे, इसका आकलन फिलहाल असंभव है।

सिर्फ ओरबान ही यूक्रेन की राह में रोड़ा नहीं हैं। उन्हें शीघ्र ही गीर्ट विल्डर्स के रूप में एक नया साथी मिलने वाला है जिन्होंने हालैंड में हुए चुनावों में 22 नवंबर को विजय हासिल की है।उधर जर्मनी में बजट से जुड़ी गड़बडियों से हालात और खराब हो रहे हैं और इसका ईयू की डावांडोल आर्थिक स्थिति पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।

यद्यपि युद्ध का अधिकतर आर्थिक भार अमेरिका ने उठाया है किंतु ईयू ने यूक्रेनवासियों  की आवास संबंधी जरूरतों की पूर्ति और वहां के राजनैतिक तंत्र को जीवित बनाए रखने में सहायता की है। अमेरिकी अनुमानों के अनुसार अमेरिका कुल मिलाकर यूक्रेन को 75 अरब डालर की सहायता दे चुका है वही यूरोपीय देश सामूहिक रूप से 100 अरब डालर से अधिक दे चुके हैं। ईयू ने जून में करीब 55 अरब डालर देने का वचन दिया था ताकि कीव में सरकार को कम से कम 2027 के अंत तक कंगाल होने से बचाया जा सके। लेकिन आने वाले दिनों और महीनों में धनराशि देने की गति धीमी हो सकती है। पहली बाधा ओरबान द्वारा खड़ी कर दी गई है, जो कई महीनों से यूक्रेन को नकद राशि दिए जाने का विरोध कर रहे हैं। समस्या यह है कि वे सदैव हर चीज को क्रेमलिन के नजरिए से देखने के लिए तत्पर रहते हैं। दूसरा मुद्दा यह है कि ब्रुसेल्स ने कई सालों से ईयू कहाँ पैसा खर्च करे, इस बारे में निर्णय प्रक्रिया से हंगरी को इस आधार पर अलग रखा है कि वह लोकतंत्र के पैमानों, जैसे स्वतंत्र न्यायपालिका पर खरा नहीं उतरा है। हालांकि ऐसी खबरें हैं कि यूक्रेन को अंततः नकद राशि मिल जाएगी, लेकिन उसमें देरी हो सकती है – वह भी 2024 की शुरूआत के उस खतरनाक समय के आसपास जब कीव को धन की कमी का सामना करना पड़ेगा।

लेकिन जो बात यूक्रेन के खिलाफ जा रही है वह यह है कि युद्ध को लेकर थकावट महसूस की जा रही है या शायद इसकी वजह है एक अन्य युद्ध का शुरू हो जाना।तभी यूरोप ने युद्ध के शुरूआती दिनों में उसको लेकर जिस एकता का प्रदर्शन किया था वह बनी रहेगी. इसमें अब शंका है। और अमरीका का समर्थन लगातार जारी रहेगा इसका भी भरोसा नहीं है। इस सबके बीच व्लादिमीर पुतिन इस घटनाक्रम से खुश हैं। उनका दावा है कि पश्चिम के समर्थन से वंचित यूक्रेन को एक सप्ताह के अंदर कुचल दिया जाएगा।जाहिर है यदि यूरोप सर्वसम्मति से यूक्रेन का साथ देने के संकल्प पर कायम नहीं रहा तो 2023 एक भयावह स्थिति में समाप्त होगा और 2024 की शुरूआत ज्यादा अनिश्चितताओं, और ज्यादा खतरनाक परिदृश्यों के बीच होगी। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

Tags :

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

और पढ़ें