nayaindia भाजपा: नीतीश कुमार की वापसी के बाद बिहार में चुनावी रणनीति
गपशप

भाजपा बिहार में क्यों चिंतित है?

Share
भाजपा
Lok Sabha Chunav

नीतीश कुमार को एनडीए में वापस ले आने के बाद भी ऐसा लग रहा है कि भाजपा बिहार में बहुत भरोसे में नहीं है। जब तक नीतीश राजद और कांग्रेस के साथ थे और विपक्ष को एकजुट कर रहे थे तब तक भाजपा के सामने एक बड़ी चुनौती थी। उसे अपनी जीती हुई 17 सीटें और अपनी करीबी सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी के दोनों गुटों की छह सीटों की चिंता था। Lok Sabha Chunav

उसे किसी हाल में 23 सीटें बचानी थीं। लेकिन राजद, जदयू, कांग्रेस और लेफ्ट का गठबंधन बहुत मजबूत था। तभी नीतीश कुमार के लिए भाजपा ने अपने बंद खिड़की, दरवाजे सभी खोल दिए। उनको फिर से मुख्यमंत्री बना कर एनडीए में वापसी कराई। उनके आने के बाद लग रहा था कि भाजपा बहुत भरोसे में है और अब कई पुराने नेताओं की टिकट कटेगी और भाजपा जिसको चाहेगी उसको लड़ाएगी।

यह​ भी पढ़ें: भाजपा के अधिकांश टिकट दलबदलुओं को!

यह भी कहा जा रहा था कि भाजपा ज्यादा सीटों पर लड़ेगी। यह चर्चा थी कि अब छोटे सहयोगियों की भाजपा परवाह नहीं करेगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ है। भाजपा पहले की तरह 17 ही सीटें लड़ रही है, सहयोगियों की परवाह भी कर रही है और पुराने नेताओं को ही उनकी पारंपरिक सीट पर चुनाव लड़ने के लिए उतार दिया है।

भाजपा कैसे बिहार में चिंतित दिख रही है, इसके कुछ प्रत्यक्ष संकेत हैं। जैसे उसने नीतीश को नाराज नहीं किया। पहले कहा जा रहा था कि उनको मुख्यमंत्री बनाने के बदले भाजपा उनको कम सीट देगी। लेकिन वे 16 सीटों पर लड़ रहे हैं। पिछली बार वे 17 सीटों पर लड़े थे और 16 जीते थे। इसी तरह बड़ी संख्या में सीटों की अदला-बदली की बात कही जा रही थी लेकिन जदयू के साथ सिर्फ एक सीट की अदला बदली हुई है।

यह​ भी पढ़ें: मुकाबला बढ़ रहा है!

यह चर्चा थी कि नीतीश के आने के बाद भाजपा छोटी सहयोगी पार्टियों की परवाह नहीं करेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। भाजपा ने हिंदुस्तान अवाम मोर्चा के नेता जीतन राम मांझी को गया की लोकसभा सीट दी है और अपने कोटे से विधान परिषद की एक सीट देकर उनके बेटे संतोष सुमन को राज्य सरकार में मंत्री बनाया है। इसी तरह पुराने सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा को भी मना कर काराकाटा लोकसभा सीट दी गई है और कहा जा रहा है कि उनकी पार्टी के पुराने नेता रहे रमेश सिंह कुशवाहा की पत्नी को उनके कहने पर जदयू ने सिवान लोकसभा की सीट दी है।

भाजपा ने पिछले तीन साल से पशुपति पारस को केंद्र में मंत्री बना रखा था लेकिन चुनाव से पहले उसको अपनी फीडबैक और सर्वेक्षणों से अंदाजा हो गया कि पासवान वोट पशुपति पारस के साथ नहीं है, बल्कि दिवंगत रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान के साथ है तो उसने पारस को गठबंधन से बाहर कर दिया और चिराग को पांच लोकसभा सीटें दे दीं।

यह​ भी पढ़ें: क्या वैश्य भाजपा से नाराज हैं?

ध्यान रहे पार्टी में टूट के बाद चिराग अपनी पार्टी में इकलौते सांसद बचे थे लेकिन उनको पिछली बार उनकी पार्टी द्वारा लड़ी छह में से पांच सीटें दे दी गईं, जिनमें से तीन अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटें हैं। सोचें, बिहार में छह आरक्षित सीटें हैं, जिनमे से तीन पर अकेले चिराग पासवान लड़ेंगे। इसके अलावा एक सुरक्षित सीट जीतन राम मांझी को मिली है और भाजपा व जदयू सिर्फ एक एक सुरक्षित सीट पर लड़ रहे हैं।

भाजपा के चिंतित होने का सबसे बड़ा संकेत यह है कि उसने लगभग सभी पुराने नेताओं को वापस चुनाव मैदान में उतार दिया है। सिर्फ तीन मौजूदा सांसदों की टिकट कटी है, जिनमें एक रमा देवी है। उनकी टिकट इसलिए कटी क्योंकि समझौते में उनकी सीट नीतीश कुमार के खाते में चली गई। उनके अलावा पार्टी ने बक्सर के सांसद अश्विनी चौबे की टिकट काटी और सासाराम की सुरक्षित सीट पर छेदी पासवान को रिपीट नहीं किया है।

चौबे की जगह दूसरे ब्राह्मण मिथिलेश तिवारी को टिकट मिली और सासाराम में छेदी पासवान की जगह भाजपा ने अपने पूर्व सांसद और पूर्व आईएएस अधिकारी मुन्नीलाल राम के बेटे शिवेश राम को टिकट दिया है। इनके अलावा पार्टी ने सभी सीटों पर सांसदों को रिपीट कर दिया, जबकि कई सांसदों की टिकट कटने की चर्चा थी।

पूर्वी चंपारण के सांसद राधामोहन सिंह, आरा के आरके सिंह, महाराजगंज के जनार्दन सिग्रीवाल, सारण के राजीव प्रताप रूड़ी, पटना साहिब के आरके सिंह, औरंगाबाद के सुशील कुमार सिंह और पाटलिपुत्र के सांसद रामकृपाल यादव की टिकट कटने की चर्चा थी। माना जा रहा था कि नीतीश कुमार से तालमेल होने के बाद भाजपा इनकी टिकट काट देगी और नए लोगों को मौका देगी।

यह​ भी पढ़ें: ओडिशा और पंजाब में दूसरे के सहारे राजनीति

लेकिन पार्टी ने इन सबको फिर से उतार दिया। जानकार सूत्रों का कहना है कि पार्टी नए लोगों को चुनाव में उतार कर जोखिम नहीं लेना चाहती है। भाजपा को लग रहा है कि इन नेताओं को लोग जानते हैं, संगठन पर इनकी पकड़ है और अपने दम पर भी कुछ वोट हासिल करने की हैसियत रखते हैं। ऐसा लग रहा है कि भाजपा बिहार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे को इतना करिश्माई नहीं मान रही है कि सिर्फ उनके नाम पर चुनाव जीत सके। तभी नीतीश को लाने के बाद भी अपने तमाम पुराने नेताओं की जरुरत उसे महसूस हुई है।

इसका एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि राजद, कांग्रेस और लेफ्ट के पास एक मजबूत वोट आधार है। पिछले चुनाव में जहानाबाद, पाटलिपुत्र जैसी कई सीटों पर भाजपा कड़े मुकाबले में जीती थी। इस बार भी ऐसी सीटों पर कड़ी टक्कर हो सकती है। तभी भाजपा ने जोखिम नहीं किया। उसने अपने ज्यादातर सांसदों को फिर से चुनाव में उतार दिया। उम्र की सीमा का भी भाजपा ने ख्याल नहीं किया। उसके कई सासंद जो इस बार चुनाव लड़ रहे है वे 70 साल से ज्यादा उम्र के हैं।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

और पढ़ें

Naya India स्क्रॉल करें