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शशि थरूर, सावरकर व कैटल क्लास

शशि थरूर

पिछले सप्ताह ख़बर थी कि शशि थरूर ने सावरकर के नाम पर दिए जाने वाले पुरस्कार को अस्वीकारा। क्यों? एक ओर वे हिंदू राजनीति का गुड़ खा रहे हैं, मोदी–पुतिन की दोस्ती की व्याख्या से लेकर सरकार की विदेश नीति और ‘मैं हिंदू क्यों हूं’ जैसी वैचारिक प्रस्तुति है वही दूसरी ओर, कांग्रेस और केरल की राजनीति में वे पैंतरे हैं, जिनसे कमल खिले और कांग्रेस सिमटे। तब फिर सावरकर के नाम से परहेज़ क्यों? मामला वही है, गुड़ खाना है, पर गुलगुलों से दूरी बनाए रखनी है। सवाल है कि थरूर को सावरकर के नाम और उनकी तस्वीर से एलर्जी है, या उस हिंदू राजनीति की थीसिस से, जिसे आज हिंदुत्व की झंडाबरदार जमात ने अपने क़ब्ज़े में ले लिया है?

कारण शायद मनोवैज्ञानिक है। शशि थरूर स्वतंत्रता बाद की उस पहली पीढ़ी की वह प्रतिनिधि शख्सियत हैं जो नेहरू के आईडिया ऑफ इंडिया के ज़माने के प्रभुवर्ग की कुलीनताओं में पली और बढ़ी है। थरूर दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज में पढ़-लिख करियरवादी बुनावट में आईएएस की बजाय अमेरिका–संयुक्त राष्ट्र के मौकों से डिप्लोमेट बने। अब कूटनीतिज्ञ भी शब्दों, भाषा के खिलाड़ी, बढ़ई होते है। विशेषकर वे बौद्धिक, जिनका दिमाग मूल मातृभाषा पर औपनिवेशिक, याकि पराई भाषा की परत में पढ़ते–लिखते और बोलते हैं। खांटी शब्दों में—मैकॉले की संतानों की मनोदशा का यह वह स्थायी सत्व-तत्व है जो बिजनेस क्लास से सांस, सुकून पाता है और उसके लिए बाकी कैटल क्लास के मनुष्य!

मैं भी उम्र की कसौटी में स्वतंत्रता-उपरांत की पहली पीढ़ी का प्रतिनिधि हूं। मेरा संयोग है जो मेरी मौलिकता मातृभाषा से पोषित है और मैंने 1975 में जेएनयू, पत्रकारिता में बेनेट कोलमैन की शुरुआत से, लुटियन दिल्ली की पत्रकारिता में पहुंच आदि के ज़रिए अंग्रेज़ीदां शशि थरूर, मणिशंकर अय्यर, दून टोली आदि से लेकर अंग्रेज़ीदां श्रीश मुलगांवकर, जॉर्ज वर्गीज़, अरुण शौरी सहित कैबिनेट सचिव, आईएएस, आईएफएस पर जहां बारीकी से गौर किया है वहीं अपने खुद के हॉस्टल साथी या पत्रकार सतीश झा, सीताराम येचुरी, रविशंकर की संगत में बखूबी जाना-बूझा है कि अंग्रेजीदां एलिट जमात का बिज़नेस क्लास भाव कैसी-कैसी चाहनाओं, रंग-रूप, इच्छाओं–आकांक्षाओं से बना होता है।

हिसाब से इसमें कुछ बुरा नहीं है। यों भी भारत का इतिहास गवाह है कि दिल्ली और भारत, और ख़ासकर हम हिंदू, सदा-सनातनी वर्ण–वर्ग से अधिक बिज़नेस क्लास बनाम कैटल क्लास का वह विभाजन लिए रहे हैं, जिसकी प्रभु-वर्गीय देवभाषा संस्कृत, फ़ारसी, अंग्रेज़ी रही है, वहीं आमजन पाली, हिंदुस्तानी, हिंदी, क्षेत्रीय भाषाओं, बोलियों से गुज़ारा करता आया है। मातृभाषा–मातृबुद्धि बनाम सत्ता-भाषा–प्रभुवर्गीय बुद्धिका सनातन संस्कृति में अंतराल न कभी घटा और न कभी मिटा।

इसलिए जिसने भी देशज, स्वभाषा में कैटल क्लास की आकांक्षाओं में अपनी देशज राजनीति की, वे सदैव लुटियन दिल्ली में अमान्य रहे। स्वतंत्रता के बाद नेहरू का आईडिया ऑफ इंडिया चूंकि सत्ता की भाषा–बुद्धि–चिंतन का खूंटा था, तो बौद्धिकता में उस मैकाले मानस का एकाधिकार बनना ही था जो सत्ता की भाषा याकि अंग्रेजी में सोचे, बोले, लिखे। तभी स्वतंत्र भारत में सावरकर अछूत थे और संघ–जनसंघ की राजनीति टिमटिमाती हुई थी।

तभी अटल बिहारी वाजपेयी यह सोच फड़फड़ाते थे कि जाएं तो जाएं कहां! वही 2014 से पहले नरेंद्र मोदी का रंज में कटाक्ष था—वाह, क्या गर्लफ्रेंड है, आपने कभी देखा है पचास करोड़ की गर्लफ्रेंड! और मैंने वह समय प्रत्यक्ष देखा है जब संसद में स्पीकर मनोहर जोशी की लगभग ज़िद से सेंट्रल हॉल में सावरकर की तस्वीर जब लगाई गई, तब कांग्रेस की मणिशंकर अय्यर एंड पार्टी ने इस शिद्दत से विरोध किया था मानों संसद भवन अपवित्र हुआ हो।

इस नाते मणिशंकर अय्यर और शशि थरूर की बौद्धिकता का एक ही स्तर, एक सा विन्यास, एक ही खूंटा है। मैं बिज़नेस क्लास बनाम कैटल क्लास का रूपक बार-बार इसलिए उपयोग कर रहा हूं क्योंकि हवाई यात्रा के सफर को लेकर शशि थरूर ने ही ऐसे कहा था।

तो शशि थरूर और सत्ता–पावर पोषित नेहरू के आईडिया ऑफ इंडिया के रंग में ढली-बनी बुद्धि आदतन सत्ता की भूख लिए हुए है। इसलिए मोदी राज में अवसर तलाशने की फड़फड़ाहट है, मगर कैटल क्लास में बैठने, उसके पूजनीय को अपना पूजनीय मानने का मन नहीं करता। शर्म आती है। असंभव नहीं है, पर कल्पना करें—संघ प्रोग्राम में मोहन भागवत का बौद्धिक सुनते हुए शशि थरूर को। या थरूर को मोदी द्वारा यह ज्ञान दिया जाना कि मैं तुम्हे समझाता हूं कि तुम क्यों हो हिंदू?

थरूर ने पिछले ग्यारह वर्षों में अपने को हिंदू बतलाने की कई कोशिशें की हैं। अवसरवाद के औचित्य बनाए हैं। भय, भूख, भक्ति के उपक्रम किए हैं। लेकिन सावरकर को लेकर इनकार या दुविधा का जो भाव हाल में दर्शाया है, वह भारत की बौद्धिकता का वह राष्ट्रीय खोखलापन है जो मौजूदा संक्रमण काल में और गाढ़ा होते हुए है। इसलिए क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने दो टूक घोषणा की है कि ज़माना हार्वर्ड याकि बुद्धि का नहीं, हार्ड वर्क का है—और भाजपा–संघ के लिए यह परम पूजनीय, आदरणीय प्रातः स्मरणीय ज्ञान सूत्र है।

एक और सत्य व तथ्य। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी सौवीं वर्षगांठ तक भी सरकार से जब सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर या करपात्री में से किसी को भी भारत रत्न से पुरस्कृत नहीं कर पाया और वे जस के तस लुटियन दिल्ली में अमान्य हैं, तो भला शशि थरूर क्योंकर सावरकर का महिमामंडन करें?

मान लें, शशि थरूर सावरकर अवॉर्ड ले लेते। अपने ऊपर सावरकरवादी होने का ठप्पा लगवा लेते तो इससे प्रधानमंत्री मोदी के लिए क्या उपयोगिता बनती? केरल उनके चेहरे से चुनाव नहीं जीता जा सकता। और थरूर के डाक टिकट आकार के फोटो से भाजपा विधानसभा चुनाव जीत भी जाए, तो उसका श्रेय नरेंद्र मोदी, अमित शाह के खाते में ही जमा होगा। भाजपा में अब बुद्धिजीवी, ज्ञानी या हार्वर्ड के चेहरे श्रेय के कैसे हकदार हो सकते हैं?

शशि थरूर ने जब बिज़नेस क्लास बनाम कैटल क्लास का फर्क बताया था, तब उसके पीछे उनका एक बौद्धिक अहंकार भी था। इसलिए शशि थरूर ने भाजपा–संघ में इंटेलेक्चुअल उपयोगिता का हिसाब बनाया हुआ होगा। मोदी सरकार के ग्यारह वर्ष बाद भला कौन नहीं बूझ सकता है कि लुटियन दिल्ली की सत्ता, सत्तावान पार्टी, परिवार को तर्क, विमर्श, आलोचना, बहस, बुद्धि नहीं चाहिए, बल्कि भीड़, नैरेटिव, भावनात्मक आक्रोश और एंटी-इंटेलेक्चुअलिज्म का शोर चाहिए तब भला थरूर जैसों का क्या काम?

ग्यारह वर्षों का यह आम निष्कर्ष है कि भाजपा-संघ परिवार के तमाम कथित या उधार के बुद्धिजीवी सत्ता के घेरे में रहते हुए भी निष्प्रभावी सिद्ध हुए हैं। वे केवल उपस्थिति दर्ज करवा रहे हैं। न काम के न काज के। झूठ-प्रोपेगेंडा की गंगा-यमुना बहाए हुए हैं। लुटियन दिल्ली अब वह राजधानी नहीं है जहा विचारों की ठंडी हवा चले, बुद्धि के सौ फूल खिलें और शोर की जगह संवाद उगे। अब दिल्ली में ही नहीं पूरे भारत में ज्ञान, बहस और आलोचना को संदेह से नहीं, बल्कि शत्रुता की दृष्टि से देखा जाता है।

यह स्थिति न तो सावरकर के हिंदुत्व की मूल राजनीतिक चेतना से मेल खाती है, न ही गोलवलकर, मदन मोहन मालवीय या करपात्री जैसे परंपरागत हिंदू विचारकों की उस दृष्टि से, जहां वैचारिक स्पर्धा को बौद्धिक गरिमा से निभाया जाता था। शायद कम लोगों को याद हो कि 1952 के पहले आम चुनाव में बनारस के एक स्वामी करपात्री ने पंडित नेहरू के विरुद्ध कैसा विचार-युद्ध छेड़ा था—वह एक बौद्धिक टकराव था, केवल भावनात्मक नहीं।

इन चिंतकों की अपनी-अपनी मान्यताए थीं, अपनी आस्थाएं भी, पर उनमें बुद्धि का निषेध नहीं था। वे तर्क, विमर्श, और वैचारिक असहमति को हिंदू परंपरा का हिस्सा मानते थे। तभी उनके हिंदू दृष्टिकोण को गहराई, गरिमा और औचित्य प्राप्त था।

हां, सावरकर की बौद्धिक उर्वरता निर्विवाद है। उनके ज्ञान क्षेत्र के दायरे में इतिहास, समाज, दर्शन, राजनीति, भाषा सभी थे। वे वैचारिक रूप से बेचैन थे। अपने विचारों के लिए जान दांव पर लगाने वाले दुर्लभ व्यक्तित्व थे। वे आधुनिकतावादी थे, अंधविश्वासों के विरोधी, तर्कवादी, नास्तिक, जाति-विरोधी और कर्मकांड से मुक्त थे। उनकी निर्भयता और बहादुरी कभी किसी प्रमाणपत्र की मोहताज नहीं रही। दो-दो जन्मों की काला पानी की सजा, अपमान और बंधन के बावजूद, विचारों की उनकी लौ अंत तक जलती रही। वे चाहते थे कि हिंदू पहचान को सांस्कृतिक–राजनीतिक सांचे में ढाल कर परिष्कृत किया जाए।

कोई माने या न माने, पर सच यही है कि मोदी सरकार ने सावरकर के हिंदुत्व को रत्ती भर नहीं अपनाया है। केवल उनके नाम का उपयोग और ढोंग रचा है। असलियत में सरकार के कारण सावरकर बदनाम हुए हैं। उनका कद घटाया है।

विषयांतर हो गया है। असल मुद्दा यह है कि आज की लुटियन दिल्ली के खूंटे में वह कुछ भी नहीं है, जिससे शशि थरूर अपनी बौद्धिक गरिमा को ‘कैटल क्लास’ के बीच सहजता से बिठा सकें। उसमें बैठ सकें। फिर भले राजनीतिक मौकापरस्ती में वे न चूकें।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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