क्या आपको पता है भारत अमेरिकी कंपनी ओपनएआई (OpenAI) का दूसरा सबसे बड़ा बाजार है! जल्द ही पहला हो सकता है! क्या पता है अमेरिकी गूगल, फेसबुक, एक्स, अमेजन, मेटा जैसी कंपनियों का भारत नंबर एक यूजर है, बाजार है? क्या आपको चीनी कंपनियों के भारत में सामान बेचने का आंकड़ा मालूम है? यह आंकड़ा 2024-25 के वित्तीय वर्ष में साढ़े नौ लाख करोड़ रुपए का था! मतलब 140 करोड़ लोगों की भीड़ का भारत साल में कोई 41.6 लाख करोड़ रुपए की जो देशी मैन्युफैक्चरिंग (इसमें भी चीन की कंपनियों जैसे ऑटोमोबाइल व ईवी कारों (MG, BYD) या स्मार्टफोन निर्माण में ओपो, विवो, वन प्लस जैसे फोन तथा अमेरिकी एपल जैसी कंपनियों सहित जापान, जर्मनी आदि की ऑटो कंपनियों की असेम्बलिंग की अधिकांश मैन्युफैक्चरिंग) करता है उसके चौथाई हिस्से जितना सामान चीन सीधे भारत के बाजार, मॉल, मेले व देहाती हाट में बेचता है!
यदि और बारीकी में जाएं तो चीन की नामी कंपनियों जैसे एंट फाइनेंशियल, टेनसेंट, फोसुन, अलीबाबा आदि कंपनियों ने भारतीय कंपनियों में (Paytm, Swiggy, Zomato, Ola, Byju) निवेश करके या सौदे पटा कर मुनाफा बना रखा है। मुकेश अंबानी की रिलायंस जैसी महाबली कंपनी भी चीन की उस शीन के घटिया फास्ट फैशन/ई कॉमर्स की एजेंट है, जिस पर ट्रंप ने डंडा चलाया था।
इसलिए सोचें, एआई की नई ताजा तकनीक हो या पोस्टल, कुरियर डाक के जरिए बेचे जाने वाले सस्ते कपड़े सभी तरह के विकास, निर्माण तथा औद्योगिक-बुद्धि क्रांति के हर आयाम में भारत वह दुधारू गाय है, जिसे दुहने का सर्वाधिकार या तो विदेशी कंपनियों को है या भारत सरकार का है!
कौन है जिम्मेवार? मेरा मानना है सर्वप्रथम भारत के हम 140 करोड़ लोग! इसलिए क्योंकि हम इतनी भी बुद्धि लिए हुए नहीं हैं, जो समझें कि बिना हाथ काले किए, मेहनत, प्रतिस्पर्धा, कौशल, स्वावलम्ब, स्वाभिमान के मनुष्य अस्मिता नहीं होती। दूसरे नंबर के दोषी देश कौम के वे नेता, वे प्रधानमंत्री, वे गड़ेरिए हैं जो भारत को हांकते चले जा रहे हैं! लोगों को आश्रित, पराश्रित, आलसी, नकलची, जुगाड़ु बनाते हुए हिंदुओं के लुटने-लुटाने के इतिहास को जिंदा रखे हुए हैं।
यों इतिहास में पहले भी हिंदुओं की सांस खेती के बूते बाजार (मर्केंटाइल आर्थिकी), हाट, मेलों की व्यवस्थाओं से थी। अंग्रेजों से पहले खेती, पारंपरिक हस्तकला, कुटीर उद्योग, वर्ण व्यवस्था से कामधंधों व रोजगार का स्वशासन था। अंग्रेज आए तो उन्होंने मर्केंटाइल नीति में भारत को कपास, नील, मसाले या कि कच्चे माल का निर्यातक बना कर लूटा। ब्रिटेन के कारखानों के निर्मित माल का भारत तब ग्राहक-उपभोक्ता था। उसमें बिचौलियों-व्यापारियों-जगत सेठों ने तब भी जमकर मुनाफा कमाया था। लोग गरीब होते गए! बावजूद इसके लोगों का कौशल, परंपरागत कुटीर उद्योग जिंदा बचा रहा। कच्चा माल बेच कर भी भारत को कमाई होती थी। भारत के मेलों, हाट, बाजार में स्वदेशी चीजें मिला करती थीं। दशहरा और दीपावली के त्योहार मिट्टी के दीयों, देशी-स्वदेशी, पटाखों से मना करते थे।
और अब? चाइनीज पटाखे व चाइनीज लाइटें है। चीन की सप्लाई न हो तो रावण पर राम की जीत के उत्सव की शान ही नहीं बनेगी! यों मर्यादा पुरूष राम के गुणगान यथावत हैं। प्रधानमंत्री बुराई पर अच्छाई की जीत का राग आलापते हैं! पर उनमें यह चिंता रत्ती भर नहीं कि देश और कौम का यह कैसा सफर जो उत्सव भी विदेशी साजोसामान पर आश्रित!
पूछ सकते हैं यह विश्लेषण क्यों? इसलिए क्योंकि इसी सप्ताह दशहरा है और इस दशहरे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सौ साल पूरे हो रहे हैं। वह इसे इस कीर्ति के साथ मना रहा है कि 140 करोड़ लोगों की भीड़ का अब नियंता है। उसके एक प्रचारक नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं। जिनकी कमान में हिंदू दिल-दिमाग अपने उड़नखटोले में अपने को विश्व महाशक्ति मानता है। अपना अमृतकाल, स्वर्णकाल आया समझता है।
पर क्या दुनिया का बाजार होना स्वर्णकाल है? आश्रित-पराश्रित होना अमृतकाल होता है? क्या यही हिंदू आइडिया ऑफ इंडिया था? सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर से लेकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी, देवरस, आडवाणी ने क्या ऐसे ही भारत के लिए अपना जीवन खपाया? कैसी तो 140 करोड़ लोगों की भीड़ है और उनमें क्या एकजुटता है? कैसी राजनीतिक-आर्थिक स्वतंत्रता, निडरता, निर्भयता व स्वाभिमान या पुरुषार्थ है? आत्मनिर्भरता, स्वदेशीपने का तो खैर रत्ती भर सवाल नहीं। जबकि मौजूदा हकीकत झूठ, अंधविश्वास, अहंकार, छल-कपट की उस अपसंस्कृति की है, जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी? सब कुछ बाजार में कनवर्ट है। राजनीति भी बाजार का धंधा है तो सभ्यता-संस्कृति, राष्ट्रवाद और चाल-चेहरा-चरित्र सभी धंधे की तासीर में पैसे, फायदे, मुनाफे, स्वार्थ से प्रभावित।
ऐसा दुनिया के किसी दूसरे सभ्यतागत देश में नहीं है। हर देश, हर नस्ल मेहनत, उद्यमशीलता, ईमानदारी, साहस, पुरुषार्थ, निडरता या उन संस्कारों, उस विचार, सोच से आगे बढ़ी है, जिससे अपने हाथों, अपने बूते निर्माण संभव हुआ। पहले निर्माण फिर धंधा। पर भारत ने आर्थिकी तो छोड़ें राजनीति, राष्ट्रवाद, कूटनीति, समाज, धर्म को भी धंधे की तासीर में ढाल दिया है!
पता नहीं नरेंद्र मोदी, अमित शाह और मोहन भागवत ने सावरकर, गोलवलकर का राष्ट्रवाद पढ़ा या नहीं? यदि पढ़ा होता तो सौवीं सालगिरह का विजयादशमी का दिन मंथन और चिंता का दिन होता। तब संघ विचारता कि कहां गया मर्यादा पुरूष राम के रामराज्य और भारत माता का विचार। हिंदुओं को राम की मर्यादाओं का रामराज्य चाहिए था या रावण का लोभी, स्वार्थी, अहंकारी शासन? अतिवाद, उपभोक्तावाद, बाजारवाद, धंधावाद क्या रामराज्य है? यदि आज की हकीकत संघ के सौ वर्षों का प्रारब्ध है तो स्वदेशी, आत्मनिर्भरता, आत्मानुशासन, नैतिकता, चाल-चेहरे, चरित्र, सत्यमेव जयते जैसी लफ्फाजी को तूली क्यों नहीं लगा देते?
वैसे बाजारों का भी ईमान-धर्म होता है। लेकिन तब जब बाजार स्वनिर्मित हो। अंग्रेजों ने भारत को कच्चे माल-निर्मित माल की मंडी बनाया। पर भारत के लोगों को आश्रित, कामचोर, निकम्मा तथा टाइमपास वाली भीड़ नहीं बनने दिया। नेहरू और कांग्रेस ने समाजवाद के जुमले से राजनीति की। अनाज संकट के दौरान राशन की व्यवस्था बनाई मगर कल-कारखाने बनवाते हुए। विदेशी पूंजी के खतरे को दिमाग में रखा। इसलिए लोगों को समर्थ-सक्षम बनाने के लिए शिक्षा, कौशल के उपाय किए। नेहरू के समाजवाद में दस हजार रुपए बांटना नहीं था। यह धूर्तता नहीं थी कि चुनाव आ रहे है तो उससे ऐन पहले घरों की महिलाओं को दस-दस हजार रुपए बांटो। तब राजनीति विचारों से सधती थी। राजनीति को राजनीति रहने दिया गया। उसे लेनदेन का बाजार नहीं बनाया। गांधी-नेहरू के वक्त भी बिड़ला-टाटा थे लेकिन मजाल जो उनकी जेब में नेहरू या टाटा कभी बैठे मिलें! या मजाल जो भारत के धन्नासेठ चीन, अमेरिका, यूरोप, जापान की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गेटवे ऑफ इंडिया बन कर उनका बाजार बना कर उनसे कमीशन खाते! देश के लोगों को विदेशी कंपनी का कैप्टिव यूजर बनाते।
जबकि अब 140 करोड़ लोगों की भीड़ का रेला मुफ्तखोरी-खैरात-धर्मादे में जी रहा है। वह चाइनीज फोन याकि हार्डवेयर और अमेरिकी सॉफ्टवेयर एप्स के झुनझुनों से टाइमपास करता है। मोदी के भजन गाता है तो अंबानी-मित्तल-अडानी जैसे जगत सेठों के खोंमचों से विदेशी चीजों, उत्पादों की खरीदारी करते हुए, उनका यूजर बनते हुए अमेरिकी डेटा कॉलोनी में नाम-पता दर्ज करा रहा है।
ऐसा दूसरे देशों में नहीं है। चीन ने ओपनएआई जैसी अमेरिकी कंपनियों को घुसने नहीं दिया है। वह स्वदेशी डीपसीक से चाइनीज आबादी को ड्राइव करेगा। उसके जरिए दुनिया में भी झंडा गाड़ेगा। जबकि भारत में अंबानी-मित्तल आदि के जरिए विदेशी कंपनियां गुलाम बाजार बना रही हैं। इसलिए क्योंकि भारत सरकार, प्रधानमंत्री मोदी और उनके नीति-निर्धारकों से लेकर अबानी-अडानी सभी सिर्फ धंधे की तासीर में विदेशी कंपनियों से सौदा मुनाफेदार मानते हैं। फॉर्मूला एक ही है। अंबानी-अडानी की धंधाखोरी! देश को मेहनत, बुद्धि-ज्ञान-शोध-आविष्कार जोखिम और निर्माण से बनाने की क्या जरूरत है जब व्यापार से मुनाफा है! 140 करोड़ लोगों की भीड को कैप्टिव याकि बंधुआ-बंधक बनाओ। उन्हें फ्री राशन, पैसा बांटकर बाजार के मेले में टाइमपास कराओ तो लोगों में न रोजगार का तकाजा, न शिक्षा की जरूरत और न काले हाथ करने की मेहनत जरूरी। केवल बाजार और उसकी भीड़ से ही धंधे के आकंड़े बनते-बनाते जाएंगे। भारत विकसित होता जाएगा!
तभी राम की मर्यादा, सात्विकता, सत्य, ईमानदारी, चरित्र, नैतिकता अनावश्यक। सोने की लंका ही बनानी है सो रावण का रास्ता अपनाओ। याद करें रावण के दस चेहरों की दस प्रवृत्तियों को। लोभ, स्वार्थ, मोह-आलस्य, मद, ईर्ष्या, अन्याय, अहंकार, नकल, फ्री के जुगाड़, क्रोध-अहंकार जैसे वे सूत्र जो बाजार की आर्थिकी में सर्वाधिक फिट बैठते हैं।
इसलिए किसी भी स्तर पर सोच-विचार नहीं है। कल्पना भी संभव नहीं कि इंटरनेट के जरिए सोशल मीडिया, एआई और डेटा के नशे से कंपनियों का अंधा लोभ कितना विशाल होगा। इससे भीड़ का कैसा शोषण संभव है। विदेशी कंपनियों को कुछ नहीं करना होगा। इसलिए क्योंकि अंबानी-अडानी-मित्तल जैसे बडे देशी घराने उनके एजेंट जो बने हैं। इनकी शक्ति व ताकत में ले दे कर भीड़ की संख्या है। जिसका एक छोटा वर्ग नकल करके (जैसे एआई के खुले मॉडल से अपना एप बना कर) लोगों को उल्लू बना लेगा। और उसके हवाले सरकार विश्वगुरू होने के भभके मारती रहेगी। जबकि मूल तकनीक, लैंग्वेज म़ॉडल विदेशी कंपनियों के। मतलब फ्री के जुगाड़ से अपना प्रचार और विदेश पर आश्रित होते जाना (निर्मित सामान में चीन का भारत ऐसे ही बाजार बना)। सो, मोदी सरकार की आयात और शॉर्टकट पर निर्भरता मोह और निकम्मेपन का प्रमाण है। मगर चीन और अमेरिका जब आईना दिखाएं तो ईर्ष्या-हताशा में केवल भुनभुनाना और जलना न की सीखना। नतीजतन क्रोध-गुस्से-निराशा में मेक इन इंडिया या आत्मनिर्भर भारत का हल्ला। और अंत नतीजा देश के लिए भी वैसा ही जैसा जो भीड़ में आम आदमी का है। चंद लोगों का वर्चस्व और डिजिटल असमानता में भारत की आर्थिकी का लगातार असमान होते जाना।
कल्पना करें आने वाले वर्षों की जब भारत के लोगों की बुद्धि विदेशी कैंपस में बने एआई मॉडल की ऊंगलियों में थिरकती हुई होगी। भारत की भीड़ दिमागी तौर पर विदेश निर्मित कृत्रिम बुद्धि मॉडल में शिक्षित-दीक्षित और उस पर पूरी तरह निर्भर होगी!


