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बातूनी भारत को नई मशीन!

कल हिंदी दिवस था। और कल यह भी खबर थी कि एप्पल ने एयरपॉड्स प्रो 3 लांच किया है। एक ऐसा साधन, जो कान में किसी भी भाषा का तुरत-फुरत आपकी भाषा में अनुवाद सुना देगा। एक क्लिक में अंग्रेज़ी, फ़्रेंच या स्पैनिश हिंदी हो जाएगी। सोचें, हम हिंदीभाषी इस मशीन का कैसा उपयोग करेंगे? हिंदी के लिए एक और वायरस! इसलिए क्योंकि मेरा मानना है कि सोशल मीडिया ने भारत को पहले ही बातूनी, भाषाविहीन, बुद्धिहीन बना दिया है तो आगे यह मशीन हमारी भाषा, किताब और सोच को भी चबा-चबा कर सतही और फास्ट बनाएगी।

एयरपॉड्स चुनिंदा भाषाओं में दो व्यक्तियों की आमने-सामने बातचीत कराएगा। जब दो व्यक्ति अपने कान में एयरपॉड्स लगा आईफ़ोन से लाइव ट्रांसलेशन चालू करेंगे तो फिलहाल अंग्रेज़ी, फ़्रेंच, जर्मन, पुर्तगाली और स्पैनिश लोग अपनी-अपनी भाषाओं में बोलते हुए सामने वाले की भाषा का अनुवाद अपनी भाषा में सुन सकेंगे। यह सुविधा साल के अंत तक चार और भाषाओं में होगी। देर-सबेर हिंदी और भारतीय भाषाओं का भी आईओएस के अलावा एंड्रियोड में नंबर आ जाएगा।

तो इससे भारतीय भाषाओं और 140 करोड़ लोगों का क्या बनेगा? वही जो सोशल मीडिया से बना है। भारत बुद्धि, विचार, भाषा और पुस्तकों से और खाली व खोखला होगा। वैसे भी भारत के नेताओं, शासन व भीड़ ने देश को हजार, दो हजार शब्दों का देश बना दिया है। सोशल मीडिया ने पूरे देश की सोच को 280 अक्षरों की सीमा में बांधा है। हिंदीभाषियों ने भाषा, किताब, पाठ्यपुस्तक, अख़बार सभी को पढ़ना लगभग बंद कर दिया है।

हां, भारत की सभ्यता-संस्कृति का सनातन आधार याकि चिंतन, मनन, शास्त्रार्थ तथा पढ़ना, सोचना और बहस करना लगभग समाप्त है। भारत अब न पढ़ रहा है, न सोच रहा है, न बहस कर रहा है। वह सिर्फ़ बोल रहा है। वह बातूनी है। पिछले ग्यारह वर्षों के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों में उपयोग किए गए शब्दों का यदि कोई हिसाब लगाए तो मुश्किल से दो–तीन सौ शब्दों की जुगाली मिलेगी। मैं, मेरी मां, मेरा भारत, विकास, विकसित भारत, देख लेंगे, ठोक देंगे, सबका साथ–सबका विकास जैसे दो सौ जुमले और फिर उनके साथ वाक्य-विन्यास के कुछ और शब्द।

ऐसा दूसरी सभ्यताओं में नहीं है। यों दूसरे देशों में भी सोशल मीडिया, तकनीक, पॉपुलिस्ट राजनीति का प्रकोप है। लेकिन भारत में यह वायरस की तरह व्याप्त है। सोशल मीडिया ने भारत को बातूनी और बुद्धिहीन बनाया है। दिन-रात नैरेटिव हैं, पर उनमें न तर्क होता है, न गहराई। भाषा के पीछे छिपे भाव, इतिहास, मुहावरे, कविता, सबका सत्यानाश है। सोशल मीडिया और स्मार्टफ़ोन ने सभी पीढ़ियों की लिखने और पढ़ने की आदत लगभग मिटा दी है।

एक वक्त था जब जवाहरलाल नेहरू शासकीय काम निपटाने के बाद अनिवार्यतः किताब पढ़ते हुए सोते थे। अंग्रेज़ों के समय भारत की जेलों में कैदियों के लिए भी पुस्तकालय थे। स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों में पढ़ने वाले घंटों बैठते थे। अब पुस्तकालय ऑनलाइन जरूर हैं, गूगल पर सब उपलब्ध है। लेकिन न तो गूगल से लोगों को ज्ञान के तिनके बटोरने का हुनर है और न ही ज्ञान की ललक।

तो आज क्या है? अब चैट है, उसकी झटपट चटपट है। सहूलियत के नए खिलौनों से देश बातूनी, टाइमपास करता हुआ मोबाइल स्क्रीन का नशेड़ी और मनोरोगी बन गया है।

जो कुछ है, वह बुद्धि को खोखला बना रहा है। टीवी चैनलों और सोशल मीडिया ने देश को बातूनी बनाया है। बहस के नाम पर दिन-रात मुर्गों की लड़ाई का स्थायी शोर बना दिया है। सभी 280 शब्दों की सीमा में गाली-गलौज, ट्रोल का शोर बनाए हुए है। शास्त्र, वेद, उपनिषद, किताब की जगह फेसबुक पोस्ट और व्हाट्सऐप फॉरवर्ड लाइनों से धर्म, दर्शन और जीवनसूत्रों की बाढ़ ला दे रहे हैं। अब सूचना ही ज्ञान है तथा गाली-गलौज व ट्रोल तथ्य हैं। भावना, संवेदना और तथ्य सब टके भाव हैं।

यह सब बनवाने का पहला स्थायी वायरस सोशल मीडिया है। दूसरा वायरस मशीनी अनुवाद है। तीसरा सरकार के राग दरबारी का कीड़ा है। हिंदी और भारतीय भाषाओं के मामले में मेरा मानना है कि अनुवाद की मशीनें भी खतरनाक साबित हो रही हैं। इसका प्रमाण प्राइम, नेटफ्लिक्स आदि प्लेटफ़ॉर्म पर विदेशी व दक्षिण की फिल्मों के हिंदी अनुवाद से मिलता है। बॉलीवुड के बुरे दिन केवल विदेशी धारावाहिकों की लोकप्रियता के कारण नहीं हैं, बल्कि इसलिए भी है क्योंकि हिंदी में कहानियां लिखने वालों का टोटा है। वही बाज़ार इस सदमें में है कि जब कोरियाई ड्रामा हिंदी मशीनी अनुवाद से धड़ल्ले से बिक रहा है तो हिंदीभाषी को कहानी लिखने या फिल्म बनाने की ज़रूरत ही क्या है!

यह मानसिक बीमारी सिर्फ़ देखने, सुनने, टाइमपास की हरामखोरी से बनी है। मेहनत कौन करे, पढ़े कौन, कहानी कौन लिखे और फिल्म बनाने की जोखिम कौन उठाए? जब दुनिया अपने बाजार के लिए तैयार फिल्में और सीरियल अनुवाद करके दे रही है तो हमें मौलिक और अपनी भाषा-संस्कृति में रची-पगी कहानियां लिखने के लिए मेहनत क्यों करनी चाहिए? कौन पढ़ेगा, कौन देखेगा?

जबकि विदेशी सीरियल और विदेशी फिल्मों का हिंदी अनुवाद बेहूदगी का पिटारा हैं। बेहद खराब, भ्रष्ट और हिंदी को चंद शब्दों में बांध देने वाला।

भाषा विकास, लेखन, पठन, विचार और सृजन का ऐसा भट्ठा बैठना सरकारी सोच और तौर-तरीकों से भी है। बॉलीवुड का पिछले ग्यारह वर्षों में जो पतन हुआ है, वह रिसर्च का विषय है। मोदीशाही की राजनीति ने इतनी भी समझ नहीं दिखाई तो भीड़ के टाइमपास में विदेशी मनोरंजन का बेखटके प्रवेश हुआ। और स्वदेशी हिंदी मनोरंजन को या प्रोपेगेंडा की मशीन बना दिया या मशीनी अनुवाद में रूखा-सूखा-बेजान बना दिया।

अख़बार और मीडिया जहां सत्ता के आगे नतमस्तक हैं वही विश्वविद्यालय और प्रकाशन संस्थान डरे हुए या दरबारगिरी करते हुए हैं। नतीजा यह है कि कठिन किताबें, जटिल विचार और असहमत स्वर किनारे हो गए हैं या खत्म हो गए हैं। नतीजतन कुल मिलाकर देश में स्थिति है कि पढ़ना मत, सोचना मत, बस मशीन तुम्हें सीधा मतलब बता देगी। सोशल मीडिया, मशीनी अनुवाद और राग दरबारी संस्कृति ने भाषा, भाषा बोध, भाषा विकास, ज्ञान-विज्ञान, साहित्य और मनोरंजन सभी को रियल टाइम में “सरल” और “फास्ट” बना दिया है। भाषा शोर है और किताबों लायक साक्षरता नहीं के बराबर।

और इस सबकी जगह सभ्यता-संस्कृति, भाषा, बुद्धि, सत्य की जगह है झूठ केंद्रित नैरेटिव और घृणा-हिंसा का राष्ट्रधर्म या राष्ट्र मिजाज। त्रासद यह है कि ऐसी भारी दुर्दशा के बावजूद लोगों के दिमाग़ में तनिक भी चिंता नहीं कि समाज, संस्कृति हो क्या गई है?

दिमाग़ सिर्फ सोशल मीडिया की गंगा में बहता हुआ है। पढ़ना पिछली सदी की बात समझ आती है। इसलिए क्योंकि गूगल व यूट्यूब जो आ गए है। वह सब बता दे रहा है तो सोचने, विचारने, समझने की जरूरत नहीं है। अब मनुष्य को दिमाग दौड़ाने की जरूरत नहीं है। 140 करोड़ विकसित भारत में रहते हैं और विकास जब हो गया है, गूगल, चैटजीपीटी, मोबाइल स्क्रीन अब आ गए है तो दिमाग को घर बैठाना चाहिए। इनसे ज्ञान, सूचना, सत्य सब कुछ तो प्राप्त है!

कोई कहेगा ऐसा तो और देशों में भी होता होगा। लेकिन जान ले भारत जैसा हाल और कहीं नहीं है। बाकी सब सभ्यताओं में मनुष्य दिमाग, पुस्तक, शोध से सत्य जाना, तलाशा और समझा जा रहा है। अमेरिका और पश्चिमी देशों में अभी भी थिंक-टैंक, सचमुच के विश्वविद्यालय, सचमुच के अखबार, पुस्तक, प्रकाशन संस्थान हैं, जिन्हें गंभीरता से लिया जाता है। पश्चिम में पुस्तकालय, प्रकाशन और बौद्धिक संस्कृति लोगों की जिंदादिली, दिमाग का हिस्सा है। जापान में तकनीक के बीच भी किताब पढ़ने और अक्षरों का सम्मान है। चीन ने तो फेसबुक, व्हाट्सऐप और गूगल जैसी चीजों को देश में ही नहीं घुसने दिया। अपनी भाषा को चालू, सतही, शोर नहीं बनाया। तभी वहां तकनीकी-इंजीनियरिंग अनुशासन ने लोगों के दिमाग़ को अभ्यास और मेहनत से सक्रिय रखा है।

और यह भी नोट करें कि इन देशों का कोई नेता भारत के प्रधानमंत्री मोदी की तरह हर दिन भाषण देकर, शोर बनवा कर खोखला नैरेटिव नहीं गढ़ता।

सो, भारत अकेला सभ्यताजन्य देश है कि जिसने अपनी सनातन सभ्यता के आधार याकि चिंतन-मनन, पढ़ने, सोचना और बहस करने को गूगल की गंगा में बहा दिया है। लोग सिर्फ़ बोल रहे हैं, देख रहे हैं और गर्दन हिला रहे हैं। 140 करोड़ लोग सिर्फ़ एक शोर हैं। फ़ोन स्क्रीन उनका टाइमपास है। और जब एयरपॉड्स की मशीन के आने के बाद तो मशीन से ही जुबानी बक-बक होगी। हिंदी और भारतीय भाषाएं हजार-दो हजार शब्दों के लोक व्यवहार याकि बोली में बदली हुई होगी। कोई हिंदी पढ़ेगा, सीखेगा नहीं, मशीन की जुबानी लेक्चर देगा, बोलेगा और भ्रम पालेगा कि वह विश्वगुरु है!

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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