पहली खबर नॉर्वे की है। नॉर्वे सरकार के पेंशन का एक वैश्विक सॉवरेन वेल्थ फ़ंड (GPFG) है। लगभग दो ट्रिलियन डॉलर का कोष। इसे वहां की सरकार ने 1990 में तेल की कमाई को जमा करते हुए बनाया। यह विश्व में निवेश कर देशवासियों की पेंशन संभालता है। इसे किस देश, किस कंपनी में निवेश करना है, इसके सुझाव का काम एक नैतिक परिषद (Ethics Council) करती है। और पता है 2022 में जब रूस ने यूक्रेन पर हमला किया तो चार दिन के भीतर नॉर्वे की संसद और वित्त मंत्रालय ने फ़ंड को रूस और उससे जुड़ी कंपनियों से पैसा निकालने, यानी विनिवेश का आदेश दिया। ऐसा होना देश की नैतिक यानी एथिकल गाइडलाइंस से था। अब इन दिनों नॉर्वे में ग़ाज़ा में इज़राइली हिंसा व नरसंहार के विवाद में इज़राइली कंपनियों से निवेश हटाया जा रहा है। जैसे इज़राइल को लड़ाकू विमानों की सप्लाई करने वाली कंपनी (Bet Shemesh Engines) से फ़ंड अपना निवेश निकाल रहा है। नॉर्वेजियन फ़ंड (GPFG) ने इज़राइल से जुड़ी छह कंपनियों को ब्लैकलिस्ट किया है।
इसका क्या अर्थ है? बुनियादी तौर पर यह कि नॉर्वे उन रामजी के रामराज्य का एक सभ्यागत प्रतिनिधि देश है, जहां नैतिकता व मर्यादा का मान है। नॉर्वे राष्ट्र-राज्य यानी देश की एक “नैतिक वैचारिक विदेश नीति” है। वह क्या सही है, क्या ग़लत, कौन राम है और कौन रावण की एथिकल गाइडलाइंस में मानवाधिकारों, बाल मानवाधिकार उल्लंघनों, हिंसा, युद्ध के दौरान अमर्यादित व्यवहार, विवादित सैन्य गतिविधियों जैसे नैतिक मुद्दों को ध्यान में रखकर आचरण यानी निर्णय करता है। ध्यान रहे नॉर्वे कोई इस्लामी या ऑर्थोडॉक्स ईसाई देश नहीं है; बावजूद इसके वहां की राजनीति में, संसदीय बहस में सभी विचारधाराओं (दक्षिण, वाम, पर्यावरणवादी ग्रीन, मध्य-दक्षिण, लेबर पार्टी) की पार्टियों, जनमानस में यह प्राथमिकता है कि देश एथिकल गाइडलाइंस के पैमाने पर ही राष्ट्रीय पहचान, नीति व सरोकार रखे। तभी प्रधानमंत्री जोनेस गार स्टोरे को जून में 17 इज़राइली कंपनियों से विनिवेश की घोषणा करनी पड़ी।
मतलब जन सर्वेक्षणों में नॉर्वेजियन नागरिकों का यह दबाव स्थायी है कि कुछ भी हो जाए, विदेश नीति में देश को अपनी इमेज एक ‘नैतिक ताक़त’ (ethical power) या मानवता की महाशक्ति (humanitarian superpower) की बनाए रखनी होगी। इससे कोई समझौता नहीं।
अब ज़रा शनिवार को भारत के विदेश मंत्री जयशंकर के इस बयान पर ग़ौर करें। उन्होंने अमेरिका पर निशाना साधते हुए कहा, ‘हमने तो ख़रीदने के लिए मजबूर नहीं किया था। अगर आपको अच्छा नहीं लगता है तो आप भारत से तेल नहीं ख़रीदें! अगर आपको भारत से तेल या परिष्कृत पेट्रोलियम उत्पाद ख़रीदने में समस्या है तो मत ख़रीदिए। किसी ने आपको ख़रीदने के लिए बाध्य नहीं किया है। लेकिन यूरोप ख़रीदता है, अमेरिका ख़रीदता है, अगर आपको पसंद नहीं है तो मत ख़रीदिए’।
क्या अर्थ है इसका? क्या यह नहीं कि हम तो धंधेबाज़ हैं। हमारा कोई धर्म-ईमान नहीं। हम नंगे खड़े हैं बाज़ार में! आपको किसने कहा था आने के लिए!
सचमुच, ईमानदारी से दिल पर हाथ रख सोचें। क्या यही रामजी की पार्टी की, मोदी सरकार की अब तक की रीति-नीति का सार नहीं है? किस बेशर्मी के साथ भारत क्रोनी पूंजीवादी अंबानी के तेल धंधे को सही, जायज़ बता रहा है? भारत और उसके धंधेबाज़ों ने नैतिकता को ताक पर रख मौके का फ़ायदा उठाया और रूस से सस्ता कच्चा तेल लेकर, उसे रिफ़ाइन कर चोरी-छुपे यूरोप या एक्स–वाई–ज़ेड ग्राहकों को महंगा तेल बेच भरपूर मुनाफ़ा कमाया! और ऊपर से भारत के विदेश मंत्री की दुनिया को यह नसीहत कि आपने अनैतिकता की भारत मंडी से ख़रीदा ही क्यों? हम तो धंधेबाज़, लुढ़कते लोटे हैं, हमसे क्यों नाता रखते हैं?
दलील हो सकती है कि नरेंद्र मोदी भारत को विकसित देश बना रहे हैं। और यह तब संभव है जब बिक्री-ख़रीद के धंधे के बाज़ार में हमारी क़ीमत लगे और कमाई हो! इसलिए भारत को भला नैतिकता, राष्ट्र विशेष की सार्वभौमता, नियम, क़ानून-मर्यादा, युद्ध दौरान अमर्यादित व्यवहार, विवादित सैन्य गतिविधियों, मानवाधिकारों व मानवता, नैतिकता की क्यों चिंता करनी चाहिए? हम अमीर हो रहे हैं न? अंबानी-अडानी जगतसेठ बन रहे हैं तो उनके साथ भारत भी सोने की लंका हो रहा है!
यदि ऐसा है और रामजी की मर्यादाओं, नैतिकताओं को धंधे के राष्ट्रहित में यदि भारत सरकार ने क़ुर्बान कर दिया है तो इसका तब बेबाक़ी से ऐलान कर देना चाहिए कि दुनिया के लोगों गांधी के रामराज्य और नेहरू के 1947 के घोषित संकल्प दुनिया की नैतिक आवाज (“moral voice of the world”) या सत्यमेव जयते के सनातन धर्म को त्यागने की भारत राष्ट्र, भारतीय सभ्यता घोषणा करती है।
सो, सवाल है, क्या आज का भारत रामजी का अनुयायी, उनकी विरासत का अंशमात्र धर्म भी लिए हुए है? हम सनातनी हिंदुओं ने क्या यह पढ़ा-समझा नहीं है कि यदि मर्यादा और नैतिकता का आग्रह नहीं है तो फिर वैसा होना रावण होना है। रावण की सोने की लंका है!
इसलिए स्वतंत्र भारत के 78 वर्षों के शासन का यह गंभीर प्रश्न है कि रामजी का नाम लेकर शासन कर रही मोदी सरकार ने अपने ग्यारह वर्षों के अब तक के कार्यकाल की विदेश नीति में क्या तनिक भी नैतिकता कभी दिखी? हाल में तिब्बत पर चीन के क़ब्ज़े के 75 वर्ष या दलाई लामा के 90 वर्ष के होने जैसे मौक़े हों या म्यांमार में मानवाधिकारों के हनन जैसे तमाम मामलों में मोदी सरकार ने मानवता से सरोकार वाले किसी भी एक मसले पर कभी कोई स्टैंड नहीं लिया। चीन से भयाकुल सरकार ने तिब्बत पर चीन के 75 वर्षों के दमनकारी प्रभुत्व पर एक वाक्य की टिप्पणी नहीं की। 90 वर्ष के दलाई लामा के जन्मदिन पर प्रधानमंत्री मोदी का धर्मशाला जाने का नैतिक साहस नहीं था!
क्यों? क्या हिंदू धर्म-कर्म में मानवीयता, मर्यादा, नैतिकता, नैतिक साहस का मनुष्य व्यवहार वर्जित है? क्या मोदी सरकार के लिए आदर्श रावण की अनैतिक, स्वार्थी, अहंकारी विदेश नीति ही हिंदू राष्ट्र का रोडमैप है?
सोचें, याद करें पिछले ग्यारह वर्षों पर। मुझे कोई ध्यान नहीं आ रहा है जो प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार, विदेश मंत्रालय ने कभी भी, एक भी ऐसा साहसी, सत्यवादी, मानवाधिकारों के खातिर, लोकतंत्रवादी बयान दिया या कोई स्टैंड लिया, जिससे लगे कि भारत राम के नाम पर, उनके आदर्शों, मर्यादाओं की तनिक भी नैतिक गूंज लिए हुए है।
दलील दे सकते हैं भारत अब एक महाशक्ति देश है। इसलिए नैतिकता जाए भाड़ में! हमें अपना राष्ट्रहित, अपना स्वार्थ देखना है। अपनी जीडीपी बढ़ानी है। विकसित बनना है। सुरक्षा की चिंता करनी है। चीन को खुश रखना है। हमें सिर्फ़ स्वार्थों के लक्ष्यों की स्वार्थपूर्ति की राष्ट्र नीति और विदेश नीति बनाए रखनी है।
मेरा मानना है कि यूक्रेन-रूस युद्ध हो या इज़राइल के नेतन्याहू की ग़ाज़ा तबाही की ज़िद, जैसे सभी मसलों (इमिग्रेशन, पर्यावरण, ट्रंप संकट, भारत-पाक भिड़ंत, आतंकवाद, म्यांमार, पड़ोसी देशों से रिश्ते) में भारत रामजी यानी रामराज्यवादी पार्टी की सरकार के नाते मर्यादाओं यानी दुनिया की नैतिक आवाज़ के रूप में आचरण बनाता तो शायद वह नहीं होता जो हुआ है। मैं नेहरू की निर्गुट नीति को अर्थहीन मानता रहा हूं, बावजूद इसके यह तो हक़ीक़त है कि गांधी और नेहरू की भाव-भंगिमा ने भारत को उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और नस्लवाद के ख़िलाफ़ दुनिया का एक नैतिक अगुआ बनाया था। भारत की छवि तब “नई दुनिया की नैतिक शक्ति” व एशियाई अंतरात्मा के संरक्षक की थी। तभी दुनिया के संकट स्थानों, कोरियाई प्रायद्वीप से लेकर अफ्रीकी देशों में, भारतीय सेना के शांति सैनिकों की तैनाती होती थी। इज़राइल और रूस दोनों निश्चित ही भारत के लिए उपयोगी रहे हैं लेकिन नैतिक शक्ति के सॉफ़्ट पावर के रूप में प्रधानमंत्री मोदी इज़राइल जाकर नेतन्याहू को समझाएं या पुतिन के यहां युद्ध रोकने की लॉबिंग करें तो कोई रिश्ते बिगड़ते नहीं।
पर प्रधानमंत्री की मनोदशा का यह भाव विदेश नीति में भी हावी रहा कि “मेरा क्या”? मुझे और मेरे जगतसेठों को क्या फ़ायदा? हमें कोई पंगा नहीं, हमें धंधा चाहिए!
तभी नेहरू और मोदी का एक बुनियादी फ़र्क यह भी है कि नेहरू की प्राथमिकता में कभी धंधा नहीं रहा। वे हवा हवाई जोश में “नैतिक अगुआ” बने तो गांधी की छाया से अहिंसा, सत्याग्रह, न्याय, नैतिकता से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत को सॉफ़्ट पावर बनाया। शीत युद्ध के दौरान भारत की सेना शांति टुकड़ियों की भी दुनिया में पहचान थी। कोई नेहरू को भले रामजी और रामराज्य के विचार का प्रतिनिधि न माने लेकिन उनकी अगुआई में भारत की “नैतिक अगुआ” होने की एक इमेज तो थी।
बहरहाल, इन बातों का आज के ‘रामराज्य’ में कोई अर्थ नहीं है। विदेश मंत्री जयशंकर ने कह ही दिया है, हम तो ऐंवे ही हैं! क्यों आप हमारे पास आते हैं!