नक़्शा—तीन अक्षरों का छोटा-सा शब्द, मासूमियत से भरा और तभी अक्सर नज़रअंदाज़ किया जाने वाला। हमें सिखाया गया कि यह बस दुनिया का एक चित्र है। एक पन्ना जिस पर महाद्वीप ऐसे चिपके हैं मानो नीले समुद्र पर तैरते कागज़ी कट-आउट हों। अक्षांश-देशांतर की रेखाएँ उसे थामे रहती हैं, भूमध्य रेखा बेल्ट की तरह उसे संतुलन देती है। बच्चे के लिए यह तथ्य है, छात्रों के लिए पाठ, और हममें से अधिकतर के लिए एक सामान्य आवश्यकता।
लेकिन नक़्शा, यह छोटा शब्द, असल में बहुत भारी और महत्वपूर्ण है। नक़्शे कभी मासूम नहीं होते। वे निष्पक्षता का भ्रम रचते हैं, और यही भ्रम उनकी सबसे बड़ी ताक़त है। और हम इसे महसूस नहीं करते—जब तक कि अचानक महसूस न हो जाए। एशिया फैलता जाता है, लेकिन उत्तर अमेरिका असमान रूप से बड़ा खींचा जाता है। यूरोप—छोटा-सा भूभाग—केंद्र में इतरा कर बैठा है, आकार से कहीं ज़्यादा आत्मविश्वास झलकाते हुए। ऑस्ट्रेलिया कोने में लटकता, ध्यान खींचने की कोशिश करता है। और अफ़्रीका—हमेशा विशाल, हमेशा अनिवार्य—नीचे खिसकाया गया, सिकुड़ा हुआ, मानो किसी शांत उपसंहार की तरह।
नक़्शा निष्पक्ष होने का दिखावा करता है, पर हर रेखा एक चुनाव है, हर छूट एक फ़ैसला, हर प्रोजेक्शन एक दृष्टिकोण। यह हमें बताता है कि कौन केंद्र में है और कौन हाशिए पर, कौन बड़ा है और कौन ग़ैर-ज़रूरी। नक़्शे दर्पण भी हैं और मिथक भी—धरती को दिखाते हुए उसे किसी की दृष्टि के अनुसार मोड़ देते हैं। नक़्शा पढ़ना मतलब राजनीति पढ़ना है—मौन में। सरहदें, अनुपात, रिक्त जगहें—सबमें नक़्शानवीस का अधिकार दर्ज होता है। सीमाएँ कहाँ खींचनी हैं, कौन-सा भूभाग उभारना है, क्या मिटा देना है—ये वैज्ञानिक दुर्घटनाएँ नहीं, दृष्टि के और अक्सर विजय के कार्य होते हैं।
वह परिचित मर्केटर नक़्शा—जो हमारी स्मृतियों में दर्ज है और आज भी गूगल पर चलता है—अब चुनौती के घेरे में है। अफ़्रीकी संघ ने कह दिया है कि बहुत हुआ, अब और बरदास्त नहीं। इस महीने उसने 16वीं सदी की मर्केटर प्रोजेक्शन—जो अब तक स्कूलों, किताबों और संस्थानों का डिफ़ॉल्ट था—को छोड़ने के अभियान का समर्थन किया। इसकी जगह ऐसा नक़्शा लाने की माँग है जो अफ़्रीका को उसके असली पैमाने पर रखे।
मर्केटर प्रोजेक्शन सच्चाई के लिए नहीं बना था। 1569 में गेरार्डस मर्केटर ने इसे नाविकों के लिए तैयार किया था—ताकि समुद्र पर सीधी रेखाएँ मिलें, न कि ज़मीन का ईमानदार अनुपात। और इसी में अफ़्रीका सिकुड़ गया और यूरोप फूल गया। यह विकृति सुविधाजनक साबित हुई: यूरोप मज़बूत दिखा, और उपनिवेशित महाद्वीप छोटे, तुच्छ। ताक़त नक़्शे पर खींची गई और अफ़्रीका को छोटा कर दिया गया।
यह केवल नक़्शानवीसों की बारीक़ी का झगड़ा नहीं, बल्कि इतिहास का घाव है। क्योंकि नक़्शे सिर्फ़ महाद्वीपों को नहीं बिगाड़ते, वे तक़दीरें भी बदलते हैं। जल्दबाज़ी में खींची गई सरहदें, भूगोल या संस्कृति की परवाह किए बिना, पीढ़ियों तक ख़ून बहाती हैं। भारत–पाकिस्तान की रेखा ऐसी ही चोट थी। ब्रिटिश वकील सिरिल रैडक्लिफ़—जिन्होंने उपमहाद्वीप में कभी क़दम नहीं रखा था—से पाँच हफ्तों में देश बाँटने को कहा गया। उनकी स्याही ने गाँव, परिवार, इतिहास बाँट डाले। यह याद दिलाते हुए कि नक़्शे राह दिखाते ही नहीं, घाव भी देते हैं।
भारत–चीन की सीमा पर भी वही भूत है। 1914 में खींची गई मैकमोहन रेखा—औपनिवेशिक अफ़सर की कलम से—आज भी विवाद का कारण है। उसकी पराई स्याही अब भी हिमालय में संघर्ष भड़काती है। और यह विकृति सिर्फ़ अतीत तक सीमित नहीं। आज भी दुनिया की नक़्शानवीस ताक़तें—अमेरिका का गूगल, चीन के राज्य एटलस, वाशिंगटन के आधिकारिक नक़्शे—सरहदों को राजनीति के दावों के अनुसार मोड़ते हैं। नक़्शे राष्ट्रों के हथियार हैं, जिनकी रेखाएँ भूगोल से नहीं, ताक़त से बदलती हैं।
इस दृष्टि से देखें तो मर्केटर के ख़िलाफ़ अफ़्रीका का विरोध एक बड़े हिसाब-किताब का हिस्सा है। सदियों तक नक़्शे साम्राज्यों के औज़ार रहे हैं—किसी को सिकोड़ने, किसी को बढ़ाने, कुछ सरहदों को वैध ठहराने और कुछ को कुचलने का। नक़्शे को सुधारना सिर्फ़ काग़ज़ पर अनुपात ठीक करना नहीं है। यह गरिमा की माँग है—हाशिए पर नहीं, केंद्र में देखे जाने की माँग।
शायद इसी वजह से अफ़्रीकी संघ की माँग गूँजती है। यह घमंड का मामला नहीं, भूगोल का नहीं। यह नज़र का मामला है—दृष्टि को वापस लेने का। नक़्शा—तीन अक्षरों का छोटा-सा शब्द—इतिहास का बोझ ढो रहा है, और अब उसे फिर से लिखा जाने की माँग उठ रही है। और ठीक ही है। क्योंकि अगर नक़्शे झूठ बोल सकते हैं, तो उन्हें सुधारा भी जा सकता है। और जिस दिन अफ़्रीका अपने असली पैमाने पर खींचा जाएगा, उस दिन शायद दुनिया को भी ख़ुद को नए सिरे से देखना पड़ेगा।