कल रात फिर बिजली कड़की, आंधी आई और बारिश हुई! इतनी की बगल का पार्क सुबह तालाब बना हुआ था। मई का महीना और सुबह चौमासे जैसी! पार्क में पलास (टेसू के फूल) का पेड़ वसंत (मार्च) में खिलने वाले लाल-गुलाबी फूल लिए हुए है। इतनी भर गनीमत जो इस सुबह आंधी से पेड़ों के झड़े पते नही थे। जबकि मई की शुरुआत में तो पतझड़ भी दिखा। हर आंधी-बारिश के बाद तब सड़कों पर टूटे पेड़ों और पतों का अंबार जमा मिला था। सो यह इस समय का प्रत्यक्ष सत्य है कि मई में गर्मी, बारिश, वसंत, पतझड़ सबका घालमेल है। वह पसीना भी है जो आद्रर्ता से जुलाई-अगस्त में आता है। आखिर अप्रैल-मई की गर्मियों में एक दिन आंधी-बारिश है और अगले दिन से 40-42 डिग्री की कड़क तीखी धूप का सिलसिला तो भला उमस क्यों न बने? तभी मई में भी अगस्त के सड़े, पसीने का अनुभव!
कह सकते हैं दिल्ली, उत्तर भारत में लोगों की नियति अब नए किस्म के मौसमी फ्यूजन में जीना है। यों जलवायु परिवर्तन के विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी की हुई है कि दक्षिण एशिया में गंगा-यमुना से सिंधु नदी के दोआब का इलाका सर्वाधिक प्रभावित होगा। लोगों का जीना हराम होगा। जाहिर है जब समय की सेहत बिगड़ रही है तो लोगों का जीना भी बिगड़ेगा। समय चुपचाप ऋतुओं का चक्र छोड़ रहा है। अपना मूल खो रहा है और वह भी हम इंसानों की नकली, झूठ की जिंदगी में झूठा होता जा रहा है। समय कृत्रिमताओं के फ्यूजन का आदी हो रहा है। गर्मी अब बारिश, वसंत, पतझड़ का मिक्स है तो सर्दियों में शीत लहर में सूखे और गर्मी का तड़का! सब घिचपिच और इस जबरदस्ती के साथ कि मनुष्यों फ्यूजन में जीना रहना और खाना सीखो!
विषयांतर हो गया। कहां से कहां पंहुच गया। दरअसल अब मैं उम्र के उतरार्ध में हूं। सो, मौसम के बिगड़ते मिजाज पर मेरा झुंझलाना समझ सकते हैं। कभी खराब-प्रदूषित हवा से परेशानी तो कभी ठिठुराती सर्दी या 42-45 डिग्री की कड़काती धूप पर हायतौबा! इसलिए भी कि मौसम की मार से बचने के पुराने समय के जितने तरीके, जितने स्थान थे वे सब खुद समय के सच्चे-झूठे फ्यूजन में तबाह हैं। न सर्दियों में दक्षिण या गोवा, बेंगलुरू या पुड्डुचेरी रहने लायक है और न गर्मियों में कश्मीर घाटी, शिमला, मसूरी, नैनीताल, मनाली पहले जैसे सकूनदायी हैं! इसलिए क्योंकि एक तरफ मौसम धोखेबाज है तो दूसरी और आबादी तथा भीड़ से सब सत्यानाश हुआ पड़ा है। इन स्थानों पर पहले जो भी मनभावक था और जिससे तरो-ताजगी के तमाम सुख-स्वाद थे, स्थानीयता की शांति थी, सौंध थी, स्वाद थे वह सब तबाह है। इन स्थानों पर छुट्टियां, छुट्टियों की तरह गुजर ही नहीं सकती हैं।
भारत में मौसम और स्वाद का फ्यूजन
तो बाहर क्यों न जाएं? दुबई, सिंगापुर, उज्बेकिस्तान ही चले जाएं? जैसे बाकी भारतीयों का सैलाब हाल के सालों में बना है? अपने को उस तरह के दिखावे, छलावे में समय काटना पसंद नहीं है। मैं दुनिया अच्छी-खासी घूम चुका हूं। और मेरा मानना है कि प्रकृति की सुंदरता, सांस्कृतिक वैभव तथा कला-संस्कृति में रमते हुए फुरसती घमुक्कड़ी में यदि सैर-सपाटा न हो तो सब व्यर्थ है। उससे अच्छी घर की चारदिवारी में एसी का अपना हिल स्टेशन!
जैसे समय और मौसम बिगड़े हैं वैसे हमारा घूमना और हमारे स्वाद भी बदले हैं। सब में अजीब सा फ्यजून है, जिसमें ठोस कुछ नहीं सब छलावा और झाग है। मूल, मौलिक कुछ भी नहीं और सब इधर-उधर का नकली और बासी! हाल में यूरोप, जर्मनी, स्विट्जरलैंड घूम कर आए नीरज शर्मा के अनुसार इन दिनों वहा सूटकेस में थेपला भर कर घूम रहे भारतीयों से होटलें आबाद हुई पड़ी हैं। यूरोप में भी भीड़ भारत की पहचान है!
बहरहाल, मैं हाल में अपनी डायबिटीज के कारण एक डायटिशियन के पास गया! अब सर्वप्रथम मेरी यह त्रासदी कि अपने जिस कुनबे में बुजुर्गों को मैंने 65-70-75 वर्ष की उम्र में मृत्यु का औसत देखा है और वह भी सीधे गुड़-शक्कर खाने की आदतों के बीच का है तब मुझे क्यों डायबिटीज की चिंता होनी चाहिए? अभी भी मेरी सगी भुआ, 98-99 वर्ष की उम्र में नियमित दिनचर्या में जी रही हैं तो मैं भला क्यों खुराक की चिंता करूं। पर मुझे डायटिशियन ने निरूत्तर किया जब उन्होंने कहा कि आपने दिल्ली में रहते जो खाया है, खाते हैं उसके आटे से लेकर सब्जियों में कितनी तरह की मिलावट, केमिकल खाए हैं, क्या इसे आप बता सकते हैं? आप कैसी हवा में, कैसी पैकेटबंद, प्रोसेस चीजें खाते हुए जी रहे हैं? आदि, आदि!
जवाब देना संभव नहीं था! हां, कथित अमृत भारत का पैकेटबंद, प्रोसेस हुआ हर खाना मिलावटी है और उन रसायनों, उन तड़कों का मिक्स या फ्यूजन है, जिसमें जिंदगी निश्चित ही देश, कौम के समरूप खोखली हुई पड़ी है। आज जो भी है वह हमारी बुनावट, तासीर, डीएनए से मेल नहीं खाती है। उलटे समय के झूठ के आगे हम बुद्धि, विवेक का इस्तेमाल करने में भी पूरी तरह अशक्त हो चुके हैं। मैं दिल्ली में इन दिनों जब भी घूमता हूं तो ऑब्जर्व करते हुए समझ ही नहीं आता कि संपन्नता के साथ हम इतने बेस्वादी, नकलची क्यों हो गए हैं? मैं शाकाहारी हूं लेकिन हर तरह का खाना भेड़चाल में है। सब खूब खा रहे हैं, पी रहे हैं। लेकिन पेट में ठूंसते हुए। हार्ड शराब के नशे के साथ उस खानपान का चस्का लगा है, जिसमें स्वाद नहीं है, जायके का भ्रम है!
इस बात को इस सवाल से समझें कि भारत में नंबर एक धंधा यदि अब रेस्टोरेंट व खाने-पीने के ठिकानों और डिलीवरी का है तो कौन सा खाना, ब्रांड, रेस्टोरेंट चेन प्रमुख है? दिल्ली के खान मार्केट से लेकर दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेसवे में नए खुल रहे रेस्टोरेंट या फाइव स्टार होटलों में कौन सा खाना सर्वाधिक बिक रहा है? सोचें, फास्ट फूड से लंच, डिनर के ठोस खाने के सभी मौकों पर मुंह क्या निगल रहा है? क्या कहीं भी भारतीय खाने (देशी, राजस्थानी, मेवाड़ी, मालवी, अवधि, मुगलई, बांग्ला, मराठी, गुजराती, असमी, दक्षिण भारतीय में कन्नड़ी, कोंकणी, केरल व मद्रासी आदि दर्जनों तरह के अलग-अलग स्वाद वाले छप्पनभोगी अंदाज के थाल वाले) की मास्टरी बतलाने वाले आपको क्या कहीं रेस्टोरेंट बोर्ड मिलेंगे? हल्दीराम और बीकानेर के छोले भटूरे फास्टफूड में आते हैं और इनकी भी औकात मैकडॉनल्ड्स, बर्गर किंग, केएफसी, पिज्जा हट, डोमिनोज़, स्टारबक्स, कोस्टा, सबवे, बारबिक्यू नेशन आदि के आगे नगण्य है।
जाहिर है भारत में भारत का स्वाद लुप्त है! उसकी जगह सर्वाधिक नंबर एक पर इटैलियन पास्ता, पिज्जा है और फिर चाइनीज है। जापानी, मैक्सिकन टाको और बर्रिटो और थाई व कॉन्टिनेंटल है। सोचें, इन विदेशी ‘कुजीन’ के असल स्वाद का कितने भारतीयों को पता होगा? ऐसे नगण्य संख्या के शेफ ही होंगे। आमतौर पर लोग केवल संपन्नता, दिखावे और पेट भरने के लिए विदेशी स्वाद के नाम पर कचरा खा रहे हैं। मैदा खा कर मोटे हो रहे हैं। हम भारतीय दुनिया की अकेली वह नस्ल हैं, जिसे न अपने मूल-मौलिक स्वाद मालूम हैं और न विदेशी खान का असल स्वाद। हम भारतीय क्योंकि जीभ पर कौर को टिका कर स्वाद का जायका, भान, रस-सुगंध टेस्ट की इंद्रीय में अचेत हैं तो खाना केवल भूख और पेट को भरना है। तभी स्वाद के वैश्विक पैमाने की पारखी मिशेलिन प्रतिष्ठान भारत में खाने का जायका लेने अभी तक नहीं आई है। जहां तक मुझे सूचना है भारत में एक भी मिशेलिन स्टार रेस्टोरेंट नहीं है।
सोचें, कितना गजब पर त्रासद सत्य है कि दुनिया भर के खाने की खिचड़ी याकि उसका फ्यूजन बना उसे पेट में हम ठूंस रहे हैं लेकिन उसका न कोई वैश्विक मान है और न क्वालिटी की गारंटी है। मैं पहले कभी अपने देशी स्वाद में दिल्ली में कनॉट प्लेस में अल्का, राजधानी की थाली या सरवण भवन, क्लैरिजेज में ढाबा या राज्यों के भवनों में अलग-अलग थाली का स्वाद लिया करता था। अब पता नहीं ये भी किस दशा में होंगे? लेकिन पिछले चालीस सालों में दिल्ली में या पूरे देश में मोती महल से ले कर ताज ग्रुप के अलग-अलग फाइव-सेवन स्टार होटलों के रेस्टोरेंटों में कोई एक भी इंडियन थाली तो डवलप होनी थी जो सचमुच भारतीय छप्पन भोगी स्वाद या क्षेत्र विशेष के स्वाद में दुनिया की निगाहों में, मिशेलिन स्टार की निगाहों में आती! ब्रांड के रूप में ख्यात होती?
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सोचें, इटली और इटली के पिज्जा तथा पास्ता पर। भारत से दस गुना छोटा और केवल छह करोड़ लोगों की आबादी का इटली आज वैश्विक मंच पर अपने खाने की ‘ब्रांड’ से जाना जाता है! और भारत में हम उसी के पिज्जा और पास्ता के नाम पर वह कचरा खाते हैं, जो उनका स्वाद नहीं है। इसे समझना है तो नेटफ्लिक्स पर स्टैनली टुची का ‘सर्चिंग फॉर इटली’ सीरियल जरूर देखें। यह इटली के स्वादों (पिज्जा-पास्ता के ही अलग-अलग जायके) की वह खोज है, जिसमें हर इलाके का जायका अलग है। हिसाब यह बारीकी भारत पर ज्यादा लागू होती है। इटली का पिज्जा, पास्ता, और जैतून के तेल का साझा स्वाद परपंरा, सहज, सरल प्रस्तुति के चलते ‘कुजीन’ और ब्रांड के रूप में प्रचलित हुआ। वही भारत की खाने-पीने की परंपराओं में कितनी ही तरह की भारतीय प्लेट के कई ब्रांड बन सकते थे। भारत के स्वादों में क्षेत्रीय विविधता, पकाने के तौर-तरीके, समय से ले कर मसालों की ढेरों वे जटिलाएं हैं जो भारतीय थाली की खूबी बनती है। उसे लोकप्रिय होना था या भूला दिया जाना चाहिए था? या उसका स्वाद हम लोगों को ही छोड़ देना था? हां, नई पीढ़ी देशी खाने के स्वाद, उसकी बारीकियों को भूलाती हुई है।
सो, भारत समय, संस्कार, स्वभाव, स्वाद सब भूल रहा है या भूला चुका है। मैं सचमुच समझ नहीं पाया जब मैंने बगल के अपने मॉल के भव्य, पंचतारा रेस्टोंरेंट में एवोकाडो फल की अलग-अलग क्वालिटी का प्रदर्शन और उसके व्यंजन देखे! भला आम खाने के मौसम में यह एवोकाडो कहां से आ गया? इसका क्या क्रेज! नई पीढ़ी और डायटिशियन के कहे में चलने वाले शाकाहारी भारतीय अब एवोकाडो, पैशन फ्रूट, ड्रैगन फ्रूट और ब्लैकबेरी का स्वाद ले रहे हैं, जबकि मौसम का अपना देशी मजा तो आम की अलग-अलग किस्म, तरबूज-खरबूज, लीची, नारियल के पानी और संतरे का है!
मुझे भी कहां गया कि आम कतई नहीं खाएं और प्रोटीन के लिए एवोकाडो जरूर खाएं! सो, विदेशी खाना खाओ, फल खाओ और समय की लीला की झूठ बोलो, झूठे में जीयो और गर्मी में भी वसंत, पतझड़, मानसून सबको भुगतो!