मेरा भारत के समय में पहले भान था देश बिना कविता के हो गया है! पर अब तो दुनिया भी बिना कविता के है! ‘दि इकॉनोमिस्ट’ के ताजा अंक से यह जान धक्का लगा कि एक समय था जब कवि अपनी कविता बेच कर जिंदगी बसर करते थे। लॉर्ड बायरन की “द कॉर्सेयर” (The Corsair) की एक दिन में दस हजार प्रतियां बिकी थीं। लेकिन अब पश्चिम में कवि ‘कविता’ से नहीं, ‘कवि’ होने से रोज़ी कमाते हैं! विश्वविद्यालयों में नौकरी, ग्रांट और पुरस्कार ही कविता की आजीविका हैं। न कविता लिखी जा रही है और न कविता पढ़ी जा रही है! भला क्यों?
इसलिए क्योंकि पिछले 70-80 सालों ने काव्य रचना से उस तुक (Rhyme) याकि लय, छंद को गायब कर दिया है, जिसके प्रवाह में लोग निरक्षर होते हुए भी काव्य को दिल-दिमाग में पैठा लेते थे! याद है आपको मैथिलीशरण गुप्त की यह पंक्ति, “हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी”। या गोपालदास ‘नीरज’ का वह अंदाज कि “कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे”। या रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की ये लाइनें, “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है”।….“जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है”।
सचमुच इक्कीसवीं सदी के मानुष का विवेक मर गया है। वह जीवन की ताल, लय, छंद और तुक को छोड़ कर शोर, भाषणों और कथाओं की माया में खोया हुआ है। जिधर देखो उधर भाषण और कथा प्रवचक और उनके शोर में खोई हुई भीड़!
बात भारत पर आ गई! पर क्या आपको भारत का असली सत्य पता है? भारत कविता और छंद से उपजा हुआ है! भारत की सभ्यता-संस्कृति का पूरा शरीर, उसका दिल-दिमाग, उसकी चेतना, अवचेतना, उसके सत्य और झूठ सभी कविता में से थे और हैं। कविता से ही धड़कन थी। कविता से ही जीवन था, जीवन की ताल थी, लय था।
विषयांतर हो रहा है। लेकिन बात भारत की आ गई है तो जानें कि भारत के ऋषियों ने ही मानव समाज को कविता दी है। पहली कविता थी ऋग्वेद। होमो सेपियन के दिमाग में अक्षऱ बोध का बीज सिंधु-सरस्वती नदी सभ्यता के आदि मनुष्यों को जब भी हुआ तो उससे दिमाग का दौड़ना और वाणी का खुलना छंद से था! वीणा से था।
भारत में कविता का असली स्वरूप
मनुष्य प्रजाति ने जब प्रकृति पर सूर्य, इंद्र, वरूण आदि नामों से ध्यान बनाया तो दिमाग की गुनगुनाहट में सर्वप्रथम वेद मंत्र बुने-गुने गए! लिखना बाद में था। मंत्र, छंद को स्मरण तथा कंठस्थ करना पहले था। तभी श्रुति में भारत की सनातनी ज्ञान परंपरा थी। हमारे सनातनी पूर्वजों ने सब कंठस्थ किया। ऐसा होना इसलिए संभव हुआ क्योंकि मंत्र, श्लोक, दोहे, चौपाइयों सबमें तुक थी, लय और छंद था!
सोचें, कैसे तो मनुष्य ने दिमाग में शब्द गढ़े, कैसे स्मृति में भाषा और उसकी व्याकरण रची और वह भी पूरी तरह काव्य, कविता में! मैंने इस पर अध्ययन नहीं किया है और शायद ही किसी ने किया हो, लेकिन ‘पश्चिमी एशिया और ऋग्वेद’ की अद्भुत विवेचना करने वाले रामविलास शर्मा ने सृष्टिकथा और दार्शनिक उद्भावनाओं में ऋग्वेद, अथर्ववेद, उपनिषदों के काव्य के पश्चिमी संस्कृति पर प्रभाव का जैसा जो खुलासा किया है तो निर्विवाद है कि काव्य का सनातनी जरिया जबरदस्त था।
भारत कविता में ही जीता था। वह लोगों के लिए मनभावक रहा होगा क्योंकि हर मंत्र, श्लोक तुक, अनुप्रास, लय, छंद में गुंथा होता था। वह पीढ़ी दर पीढ़ी कंठस्थ होता जाता था। दिल-दिमाग में पैठे श्लोक, मंत्र, छंद पर ध्यान से अपने आप समय के साथ उनको विस्तार मिला। एक कविता से दस कविता, दस से सौ, सौ से हजार! कविता की लौकिक व्याख्या में ही पुराण लिखे गए। पर ऋषि, चिंतक, सृजक, लेखक, दार्शनिक याकि विचारमना मनुष्यों की अभिव्यक्ति कविता की ही बनी रही। तभी रामायण, महाभारत, गीता सब छंदबद्ध श्लोकों में है।
इतना ही नहीं पाली में लिखा बौद्ध महाकाव्य ‘बुद्धचरितम्’ और ‘धम्मपद’ भी पद्य में है तो ‘बुद्धचरितम्’ लय और तुक का महाकाव्य है। नागार्जुन, अश्वघोष, आर्यदेव आदि ने दर्शन और भक्ति ग्रंथ काव्यात्मक संस्कृत शैलियों में लिखे हैं तो जैन साहित्य में जैन प्रबंध, चरित्र कथा, और नीति काव्य (कुवलयमाला, पउमचरियं) भी पद्य में हैं।
बाद में वीर रस का वक्त आया हो या कलियुगी चारण परंपरा या ब्राह्मणवाद के खिलाफ भक्तिकाल का समय। सभी काल में सब कविता में लिखा गया। कबीर, सूर, मीरा, नानक और तुलसी सभी की भक्ति, तर्क, अनुभव, सच्चाई, विद्रोह की अभिव्यक्तियां कविता में हैं। दोहे, चौपाइयों, भजनों और ग़ज़लों के लिक्खाडपने में थी। हिंदुस्तान उन्नीसवीं सदी तक सचमुच कविता के सुरों में, आवाज़ में सांस लेता था।
मेरा मानना है आधुनिक हिंदुस्तान के इतिहास के वे तीन सुर आखिरी थे, जिसके बाद भारत शोर और झूठी कथाओं में खोने लगा। 1870 के दशक में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की छंदबद्ध काव्य में रची “वंदे मातरम्” एक मील का पत्थर था। फिर 1870 में पंडित श्रद्धाराम शर्मा फिल्लौरी की लिखी “ॐ जय जगदीश हरे’ आरती की रचना थी (सोचें, यह आरती हिंदू के घर-घर में गूढ़ धर्म की एक अभिव्यक्ति है!)। अंत में 1904 में मोहम्मद इक़बाल लिखित “सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा” की वह रचना है, जिससे हिंदुस्तानीपना काव्य में ही बोलता हुआ था।
उसके बाद तो हम हिंदुस्तानी अंग्रेजी शासन के मैकाले की उस शिक्षा नीति में पूरी तरह खो गए, जिसमें ज्ञान की भाषा व शैली के नाते सर्वप्रथम अंग्रेजी को महत्व था और फिर काव्य, पद्य की बजाय गद्य को उपयोगी और अनिवार्य ऩॉलेज माना गया। स्कूली व्यवस्था में कविता की जगह तर्क, विज्ञान, अंग्रेजी गद्य का बोलबाला बना। हां, यह भी इतिहास है कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने कोलकत्ता में फारसी को खत्म कर हिंदुस्तानी के उपयोग का फैसला किया तो उर्दू और खड़ी बोली के प्राध्यापकों को पहले यह साबित करने को कहा कि वे गद्य पाठ लिख कर बताएं कि उर्दू में बेहतर पुस्तक लिखी जा सकती है या हिंदी में!
उसके बाद ही खड़ी बोली, देवनागरी, हिंदी में निबंध, लेख, समाचार, किताब, कथा साहित्य को लिखा जाने लगा। ध्यान रहे पहले शासन-प्रशासन का काम फारसी में होता था। जबकि संस्कृत, हिंदुस्तानी बोलियों में अधिकांश लिखा काव्य शैली में था। वेदों और उपनिषदों की छंदबद्ध भाषा से शुरू सिलसिला ज्ञान की हर विधा की लेखन शैली में आगे बढ़ता गया। ब्रह्म ज्ञान, तत्व मीमांसा, धर्म सूत्र सब कुछ काव्य के लय में बंधे थे। लोक भाषा, बोलियों में भी लोकगीत, विरह, गाथाएं, रामचरित, कृष्णलीला, गांव मेले, जनवाद्य, नृत्य आदि सभी को गीत-संगीत काव्य में ही पिरोया गया था।
तर्क भी काव्य की रचना विधि में थे। न्याय सूत्र, योग सूत्र, भावार्थ दीपिका सभी छंदों में लिखे गए ताकि ज्ञान केवल बौद्धिक न रहे, बल्कि वह कठंस्थ, स्मरणीय और जीवंत रहे। जनमानस में यह दोहों, चौपाइयों, भजन और ग़ज़लों की तुक के सहारे पैठा रहा।
पर ईस्ट इंडिया कंपनी आई और उसकी रीति-नीति से सब धीरे-धीरे लुप्त हुआ। इसका अर्थ यह नहीं कि हिंदी के विकास की शुरुआत के साथ कविता लिखने के प्रयोग नहीं हुए। उसका असल वक्त आजादी से पहले का वह स्वर्णकाल था जब अंग्रेजों के संसर्ग में हिंदुस्तान की मेघा अचानक खिली। मैंने कविता अपने कॉलेज समय में ही कुछ पढ़ी थी। उस समय के नाम में जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंद पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, दिनकर, महादेवी वर्मा को किताबों में पढ़ा था और ये सभी कवि तुक, छंद, अनुप्रास, लय के प्रवाह में यह मजा बनाते थे कि वाह! क्या बात! क्या खूब!
लेकिन सत्यानाश हो हिंदी के कथित प्रगतिशीलों का! इन्होंने छंदबद्ध रचना करने वाले कवियों को मंचीय कवि करार दे कर उन्हें काका हाथरस की कैटेगिरी में बैठा दिया। इनकी बेइज्जती की। इनकी जगह प्रगतिशीलों ने निबंध कविता के वे पाठ लिखे कि अर्थ का अनर्थ हुआ। कविता की जगह एक गूढ़ गद्य। न तुक, न लोक, न दर्शन और ले देकर रोने-धोने के संशय, बिंब और अंधकार में गुंथे चंद शब्द।
कथित प्रगतिशीलों की भीड़ ने भीड़ के शोर की वेदना में रचनाएं लिखी और वे भीड़ में ही बिना पढ़े लुप्त हो गई! काव्य लेखन के नाम पर रघुवीर सहाय, कुंवर नारायण, मंगलेश डबराल आदि की आधुनिक जनवादी लेखकों ने ऐसी ‘लालटेन’ बनाई कि वह बेचारी खूंटी पर टंग गई। वह कभी जली ही नहीं!
ऐसी ही त्रासदी अंग्रेजी साहित्य में भी है। वहां भी तुकांत या छंद के बिना काव्य लेखन हुआ। ‘दि इकॉनोमिस्ट’ के अनुसार सन् 1900 में 80 प्रतिशत कविताएं तुकांत या छंदबद्ध होती थीं, अब मात्र 25 प्रतिशत रचनाएं ही यह खूबी लिए हुए होती है। 20वीं सदी की शुरुआत में हर दस में छह पंक्तियां तुकबंद होती थी, अब यह आंकड़ा पांच प्रतिशत से भी नीचे है। सो, अंग्रेजी साहित्य में भी ‘लालटेन’ का भभका खत्म होना ही था!
बहरहाल काव्य शैली मृत प्रायः है। उसकी जगह भारत में अब क्या है? भारत में कवि अब तुलसी की रामायण बांचते है और कवि कहलाते हैं! तुक और ताल से संवाद नहीं होता है, भाषण से होता है। कविता, चौपाइयों की जगह उनकी कथा बांचने, झूठ परोसने की एक नई शैली पैदा हुई है। कवि हो या संत या नेता सब अब कथा बांच कर कवि, गुरू, नेता और ईश्वर बने हुए हैं। या फिर वे ‘इंस्टापोएट्स’ पैदा हुए बताए जाते हैं जो बेतुकी तुकबंदी से इंस्टाग्राम हीरो हैं। तभी सोचें, काव्य सृजक भारत के ऐसे समय पर!
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