nayaindia Baramati Lok Sabha Elections बारामती में सिर्फ पवार!

बारामती में सिर्फ पवार!

बारामती। चाचा हो या भतीजा, गुरू हो या शिष्य, सदाबाहर दीलिप कुमार होया अजय देवगण या सिंघम, बारामती में न नरेंद्र मोदी का कोई अर्थ है और न देवेंद्र फड़नवीज, नीतिन गडकरी या उद्धव ठाकरे का। बारामती रियासत है पवार खानदान की। तभी बारामती में चुनाव 2024 को ले कर संस्पेंस है। आखिर यहां मुकाबला खानदान में है, व्यक्तित्वों में है और फायदे व सौदों में है। ऐसे में विचारधारा के लिए जगह ही कहां बचती है? दिल्ली का मीडिया हमें जो बता रहा है उसके विपरीत बारामती में मुकाबला बेटी और बहू के बीच नहीं है। और ना ही अन्य उम्मीदवार, जिनमें तुरही (जिसे भी मराठी में तूतरी कहा जाता है) के चुनाव चिन्ह वाले आजाद उम्मीदवार सुहेल शाह शेख शामिल हैं, मुकाबले में हैं।

बारामती में चुनाव चिन्ह को लेकर कोई कन्फ्यूजन नहीं है। पार्टी को लेकर कोई कन्फ्यूजन नहीं है। कन्फ्यूजन है तो व्यक्ति और उसके प्रति वफादारी को लेकर, कन्फ्यूजन है ‘साहेब’ बनाम‘दादा’ को लेकर, गुरू बनाम शिष्य को लेकर। मुकाबला है राजनीति के बेहतरीन खिलाड़ी औैर अपनी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध शरद पवार और राजनैतिक अवसरवादिता के प्रतीक अजीत पवार में। यह ‘नए’ बनाम ‘पुराने’ का मुकाबला है।

जब मैं बारामती से करीब 11 किलोमीटर दूर उंडाडावडिसुपे गांव में पहुंची तो जो पहली प्रतिक्रिया मुझे मिली वह थी: “मिक्सड है यहां”।

68 साल के विट्ठल गौरी अपनी आस्था बदलने को तैयार नहीं हैं। वे गुस्से से उबल रहे हैं। “जो घोटाला चाहता है वह अजीत पवार के साथ, जो साफ दिल का है वो साहेब के साथ।”

परंतु 41 साल के रविन्द्र गौड़ी उनसे सहमत नहीं हैं: “दादा ने काम किया, शरद पवार तो दिल्ली चले गए थे”।

बारामती के बारे में यह तो निःसंदेह कहा जा सकता है कि वह विकसित है। विकसित ही नहीं वह बहुत भड़कीला और चमकीला है। वह पुणे का एक्सटेंशन लगता है। पवार परिवार ने इस चुनाव क्षेत्र को विकसित करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी है। उन्होंने उसे अपना किला, अपनी रियासत सी बना ली है। बारामती में ढ़ेर सारे उद्योग हैं–देसी भी और विदेशी भी। ऐसा बताया जाता है कि बारामती-एमआईडीसी (महाराष्ट्र इंडस्ट्रीयल डेव्लपमेंट कारपोरेशन) के अंतर्गत 761.65 हैक्टेयर भूमि है और वह महाराष्ट्र में सबसे बड़े एमआईडीसी में से एक है। वहां खेती भी होती है औैर वहां के कई ब्रांड देश भर में प्रसिद्ध हैं। वहां ढ़ेर सारे रेस्टोरेंट हैं, सभी बड़ी कार कंपनियों के शोरूम हैं, बड़े-बड़े शापिंग काम्पलेक्स हैं और हाल में (2 मार्च को) बारामती के बीचों-बीच एक शानदार बस डिपो का उद्घाटन हुआ है।

वैशाली अपने गांव में एक दुकान चलाती हैं औैर उनके पति एमआईडीसी के एक उद्योग में स्थायी कर्मचारी हैं। “यहां तो तूतरी (पवार पार्टी की चिंन्ह तुताड़ी) का ही डंका बजेगा,” वे पूरे विश्वास के साथ कहती हैं। अर्जुन नाना गौड़ी और उनकी पत्नि प्रमिला गौड़ी भी यही मानते हैं।

वैशाली 34 साल की हैं और गौड़ी दंपत्ति 70 से थोड़े ज्यादा के। मगर तीनों शरद पवार के साथ हैं अर्थात सुप्रिया ताई के।

टूटी-फूटी हिंदी में प्रमिला गौड़ी कहती हैं। “ताई बहुत अच्छा”।

कुछ किलोमीटर दूर गोजूबावी में भी शरद पवार ही हीरो हैं। चाहे आप किसी बुजुर्ग से पूछें या जवान से कि ‘‘माहौल किसका है?” जवाब एक ही आता है “तूतरी का”।

‘‘अजीत पवार का कोई माहौल नहीं है?” मैं पूछती हूं।

एक कहता है अजीत पवार बहुत अहंकारी हैं और उनकी भाषा बहुत छिछली है। उसका इशारा पुणे के इंदापुर में एक गांव की एक आमसभा में अजीत पवार की एक टिप्पणी की ओर है, जिसमें उन्होंने कहा था कि “अगर बांध में पानी नहीं है तो क्या हम उसमें मूतें?”

56 साल के पोपट जाधव, जो एक किसान हैं, अपना गुस्सा छुपाए बिना कहते हैं। “शरद पवार ने कभी ऐसी भाषा नहीं यूज़ की”। जेजुरी में 35 साल के अजहर बागबान भी इससे सहमत हैं कि अजीत पवार अपने मद में चूर हैं।

26 साल के घनश्याम शरद पवार को पसंद करते हैं परंतु वे यह भी जोड़ते हैं कि, “आमदार के लिए अजीत पवार, खासदार तो सुप्रिया ताई”।

सभी जगह और सभी जातियों और आयु वर्गों के लोगों की आम राय यही है कि आमदार के रूप में अजीत दादा सबसे बढ़िया हैं।

“क्यों?” मैं पूछती हूं और उत्तर तुरंत आता है, “आखिर यहां काम तो अजीत दादा ही करता है”।

कुल मिलाकर बारामती में आम राय यही है कि शरद पवार गॉडफादर हैं, जिन्होंने बारामती का विकास किया और उसे अपना किला बनाया। मगर अजीत पवार ने विकास को और आगे बढ़ाया। और लोगों को अजीत पवार द्वारा किया गया विकास ही दिख रहा है। युवा अजीत दादा को पसंद करते हैं। जैसे-जैसे आप बारामती शहर के नजदीक आते जाते हैं, युवाओं और बुजुर्गों की सोच का यह अंतर और साफ होता जाता है और ऐसा लगने लगता है कि मुकाबला एक-तरफ़ा नहीं है।

सुप्रिया सुले के चुनाव ऑफिस के बाहर मेरी मुलाकात रोहित पवार से होती है। वे बारामती में व्यवसाय करते हैं। बिना किसी लागलपेट के वे कहते हैं, “अजीत दादा ने सब काम किया, सुप्रिया सुले तो दिल्ली रहती हैं।”

और ऐसा ही कुछ उन अनेक युवाओं ने कहा जिनसे मैं मिली।

मगर 23 साल की कल्याणी, सुप्रिया ताई के साथ हैं। उनको लगता है कि अजित पवार ने सुप्रिया ताई के साथ गलत किया। “फुगादी खेल (तितली खेल) खेला अजित दादा ने सुप्रिया ताई के साथ और उन्हें गिरा दिया।”

शरद पवार की पुत्री सुप्रिया सुले पिछले 15 सालों से बारामती से खासदार (सासंद) हैं। मगर उन्हें पहले अपने पिता की छाया बतौर देखा जाता रहा और बाद में उनके भाई ने उनकी आभा को फीका कर दिया। मगर इससे सुप्रिया को फायदा ही हुआ। मोदी की सुनामी में भी वे बारामती से विजयी हुईं। बारामती में कभी कोई बाहरी व्यक्ति न तो अपनी पैठ बना सका और न ही पवार परिवार के लिए खतरा बन सका है। मगर इस बार सुप्रिया को खतरा किसी बाहरी व्यक्ति से नहीं बल्कि अपने ही भाई से है। और मुकाबला आसान नहीं है। स्थानीय पत्रकारों का कहना है कि अब तक अजीत ही सुप्रिया के चुनाव अभियान का संचालन करते आए थे। अजीत ही कार्यकर्ताओें को मैनेज करते थे और उन छोटी-छोटी चीज़ों का ख्याल रखते थे जो जीत को हार में बदल सकती हैं।हालांकि पिछले पांच सालों में सुप्रिया अपने संसदीय क्षेत्र में काफी सक्रिय रही हैं। वे आम लोगों और कार्यकर्ताओं के संपर्क में लगातार बनी रही हैं। मगर इसके बाद भी वे लोगों के दिलों में अपनी जगह नहीं बना पाईं हैं और यही कारण है कि जब लोग उन्हें वोट देने की बात करते हैं तब वे दरअसल शरद पवार को वोट देने की बात कर रहे होते हैं।

अजीत पवार को भले ही बारामती के पुराने निवासी पुणे का बताते हों मगर उनकी पहचान काम करने वाले दादा की है। दादा, जो काम करवाना जानता है, दादा जिसकी स्टाइल सिंघम जैसी है।

28 साल के विट्ठल अजीत पवार पर फिदा हैं। टूटी-फूटी हिंदी में वे बहुत प्रफुल्लता से बताते हैं कि अजीत पवार अपनी बात मनवाना जानते हैं। वे अपने काम को गंभीरता से लेते हैं।

विट्ठल बताते हैं कि बारामती में नए भव्य बस डिपो के बोर्ड को अजीत पवार ने दो बार बदलवाया क्योंकि उनका कहना था कि बोर्ड की ऊँचाई उतनी होनी चाहिए जिससे कोई व्यक्ति बिना ऊपर देखे उसे पढ़ सके, अर्थात आई लेविल पर।

उनके मित्र सागर भी सहमति में अपना सिर हिलाते हैं। “दादा परफेक्शनिस्ट हैं”।

सुप्रिया और शरद पवार इस सीट को बचाने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। मगर अजीत पवार भी पीछे नहीं हैं। स्थानीय लोगां का कहना है कि वे वह सब कर रहे हैं जिसकी उनसे उम्मीद नहीं की जा सकती थी। वे झाड़ू वालों से लेकर छोटी-छोटी सोसायटियों और वार्डों में जाकर हाथ जोड़कर अपनी पत्नी के लिए लोगों से वोट मांग रहे हैं।

जिन लोगों ने बड़े होते हुए शरद पवार को अपने एकमात्र नेता के रूप में देखा है वे अब भी उनके मुरीद हैं। मगर शहरी युवाओं की पसंद अजीत पवार हैं। दोंनो के पक्ष और विपक्ष में भावनाओं का ज्वार है। एक तबके की शरद पवार के प्रति सहानुभूति है तो एक विशिष्ट आयु समूह के लोग अजीत पवार के प्रति हमदर्दी रखते हैं।

तानाजी जगताप अजीत पवार के वफादारी बदलने को उचित सिद्ध करने की कोशिश करते हैं: ‘‘अजीत पवार को जाना पड़ा बीजेपी में, बारामती के लिए। बीजेपी ने सब बंद कर दिया था बारामती के लिए”।

जनता सब जानती है। और बारामती की जनता तो पक्का सब जानती है। बारामती के लोगों को लगता है कि उनका परिवार टूट गया है और उन्हें अब अपने ही परिवार के दो सदस्यों में से एक को चुनने के लिए कहा जा रहा है।

साहब और दादा, दादा और साहब – मुकाबला पुराने औैर नए के बीच है। लड़ाई सम्मान की है। वफ़ादारी की है।  दोनों पवार – एक ओर सुप्रिया और दूसरी ओर अजीत पवार, उनकी पत्नि और उनके दो लड़के आर-पार की लड़ाई लड़ रहे हैं।

मगर इस सबके बीच पैसा भी एक फैक्टर है। “मूड कैसा है?”‘ के जवाब में गणेश गौड़ी कहते हैं: “15 साल हमने सुप्रिया सुले को खासदार बनाया। अबकी बार जो पैसा देगा…”

राजनीति में वफादारियां की उम्र बहुत ज्यादा नहीं होती। किसी को भी समझौता करने में तनिक भी हिचकिचाहट नहीं होती। (कापीः अमरीश हरदेनिया)

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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