संविधान के अनुच्छेद 370 की जद से जम्मू-कश्मीर को बाहर किए जाने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 7 मार्च को पहली बार कश्मीर घाटी पहुंचे। प्रधानमंत्री बतौर दूसरी पारी में यह उनकी पहली कश्मीर यात्रा थी। दूसरी बार सत्ता में आने के तुरंत बाद उनकी सरकार ने उस संवैधानिक प्रावधान को जम्मू-कश्मीर से हटाने की कवायद शुरू कर दी थी, जो राज्य को पीछे धकेल रहा था, उसकी प्रगति की राह में रोड़ा था। PM Modi Kashmir
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गत 7 मार्च को पहली बार उन्होंने कश्मीर से हमें यह याद दिलाया कि अनुच्छेद 370 कश्मीर का गला घोंट रहा था। अगर राजनैतिक नज़रिए से देखा जाए तो यह याद दिलाने की लिए कश्मीर से बेहतर जगह कौन-सी हो सकती थी? यह एक महत्वपूर्ण यात्रा थी जिसमें मोदी ने कई सन्देश दिए, जुमलेबाजी भी की और अपने राजनैतिक कौशल का प्रदर्शन भी किया। उन्होंने एक बार फिर याद दिलाया कि जो नैरेटिव वे बुनते हैं, उससे ज़रा भी इधर-उधर नहीं होते।
कश्मीर को हमेशा से दुहा और बेचा जाता रहा है – राजनैतिक सन्दर्भ में, सामाजिक सन्दर्भ में, भावनात्मक और सांस्कृतिक दृष्टि से, धर्म और पहचान की नाम पर और अपनी-अपनी आपबीती के ज़रिये। वहां के रहवासियों – मुसलमानों और पंडितों – दोनों ने उसे बेचा, अपने-अपने नैरेटिव के ज़रिये। PM Modi Kashmir
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और दोनों के नैरेटिव में दर्द है और दोनों के नैरेटिव दिल दहलाने वाले हैं। फिर कलाकारों, फोटोग्राफरों और फिल्म निर्माताओं ने कश्मीर को बेचा। उसकी कुदरती खूबसूरती और खूनखराबा, वहां की हसीन वादियाँ और हवा में तैरता डर, शांत माहौल को चीरती आहें और गुस्सा – इन सबको अगणित बार दुहा और बेचा गया।
अनुच्छेद 370 और 35ए के विशेष प्रावधानों से कश्मीरियों को कोई विशेष लाभ नहीं मिला – न आज़ादी, न गौरव, न स्वायत्ता और ना शांति और ना ही किसी लाभ की गारंटी। कश्मीर को बेच कर सबने फायदा कमाया और सबसे बड़े लाभार्थी थे राजनेता। जब राजनीति बांटने लगती है, ज़हर फैलाने लगती है तब सबसे ज्यादा कष्ट भोगते हैं आम लोग।
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कश्मीर और उसके लोगों – विशेषकर उन मुसलमानों, हिन्दुओं, सिक्खों और ईसाईयों ने जो अपने घर छोड़ कर नहीं गए और जो उथलपुथल और नीरवता दोनों को झेलते हुए वहीं रहे आए – ने बहुत कुछ भोगा है और बहुत लम्बे समय तक भोगा है। शांति के दिन छोटे और कम रहे और गड़बड़ियों और बेचैनी के रातें लम्बी और ज्यादा रहीं। बल्कि बेचैनी, असंतोष और गुस्सा कश्मीर की पहचान बन गए। PM Modi Kashmir
सन 2019 के चुनाव में भी कश्मीर को एक राजनैतिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया गया। कश्मीर पर लिखा गया, कश्मीर पर बोला गया, कश्मीर पर फिल्में बनीं। इन सबमें जो नैरेटिव बनाए गए उनमें भी और राजनैतिक प्रचार में भी, हिंसा छाई रही। और हिंसा ही कश्मीर का नैरेटिव बन गई। कश्मीर विलाप और विषाद की घाटी बन गई।
मगर 5 अगस्त, 2019 को इस सब पर पूर्ण विराम लगा दिया गया। नतीजा यह कि कईयों के लिए नरेन्द्र मोदी एक ऐसे व्यक्ति बन गए जो निर्णय लेना जानते है और जो निर्णय लेते है। वे एक तानाशाह नेता लगते हैं, उनके व्यवहार में दादागिरी का पुट है, नीतियों के निर्माण और उन पर अमल का उनका तरीका गैर-प्रजातान्त्रिक प्रतीत होता है और आने वाली पीढ़ियों को कदाचित उनकी विरासत उतनी शानदार नहीं लगेगी जितनी हमें अभी लगती है।
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लेकिन कश्मीर के मामले में उन्होंने जो किया उसके लिए वे हमेशा याद रखे जाएंगे और 370 एक ऐसा अंक होगा जो भुलाया नहीं जा सकेगा। कश्मीर की बेड़ियाँ काट दी गईं हैं। दर्द और दहशत के नैरेटिव के सौदागरों को नये नैरेटिव ढूँढने पड़ रहे हैं। इनमें अब प्रजातंत्र के अभाव का मसला जुड़ गया है।
सन 2019 के बाद कश्मीर की मोदी की इस पहली यात्रा के राजनैतिक निहितार्थ भी हैं। आम चुनाव के पहले मोदी ने बख्शी स्टेडियम के मंच से अपना नैरेटिव देश के सामने पेश किया। वसंत की उस सुबह हवा में ठंडक तो थी मगर आसमान साफ़ था और धूप भली लग रही थी। प्रधानमंत्री ने खुलकर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि भाजपा की लिए 370 केवल एक नंबर नहीं है बल्कि एक गंभीर सोच का प्रतीक है।
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वे उस नैरेटिव से ज़रा भी इधर-उधर नहीं हुए, जो नैरेटिव उन्हें ताकत देता है। चुनाव की पूर्वसंध्या पर कश्मीर के दिल से उन्होंने दरअसल कश्मीर को नहीं बल्कि भारत को संबोधित किया। उन्होंने याद दिलाया कि 2019 में उन्होंने कश्मीर के बारे में एक ऐतिहसिक और साहसिक कदम उठाया था। उन्होंने भारत को उन दीवारों की याद दिलाई जो कश्मीर और शेष भारत के बीच तामीर कर दी गईं थीं। उन्होंने कश्मीर के पुराने राजनीतिज्ञों की गन्दी करतूतों की याद दिलाई जिन्होंने कश्मीर को इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत से जुदा कर दिया था।
उन्होंने भारत को याद दिलाया कि उसी वेदना में से कमल खिला है। उन्होंने भारत को याद दिलाया कि कश्मीर को अब एक नई राजनीति आकार दे रही है जो कश्मीर के लोगों को देश की अन्य हिस्सों के लोगों से जोड़ रही है। उन्होंने भारत को याद दिलाया कि ‘विकसित भारत’ के उनके मिशन का कश्मीर एक आवश्यक हिस्सा है और वह उसमें एक आवश्यक भूमिका निभाएगा।
इसके पहले कि मैं नरेन्द्र मोदी की ‘नई राजनीति’ के पीछे की राजनीति की बात करूं और उनके नैरेटिव पर आऊं, थोड़ी चर्चा नए जम्मू-कश्मीर की। हो सकता है कि आप हर चीज़ में कुछ न कुछ नुक्स ढूँढने में माहिर हों, हो सकता है कि आप मोदी और उनके सरकार के अंध विरोधी हों, मगर फिर भी आप कश्मीर में आये बदलावों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। निसंदेह कुछ कश्मीरी एक ही सोच से चिपके रहना चाहते हैं।
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वहां के कुछ बुद्धिजीवियों की लिए कश्मीर की ‘पहचान’ (जिसकी परिभाषा बहुत साफ़ नहीं है) सबसे अहम, सबसे ऊपर है। फिर चाहे इसका मतलब सतत लूट, पहचान का राजनीतिकरण, उसे अन्य पहचानों से जुदा करना, लोगों को कट्टर बनाना, उनका दमन करना और कश्मीर की भूमि और उसकी पहचान को अतीत में धकेलना ही क्यों न हो।
इसलिए यह ज़रूरी है कि हम द्वेष के लेंस लगे चश्मे उतार कर जम्मू-कश्मीर और विशेषकर घाटी में हुई प्रगति को देखें। कश्मीर को बहुत समय बाद विकास का स्वाद चखने को मिल रहा है, वह प्रगति और शांति, ग्लैमर और चमक-दमक का मज़ा ले रहा है। कश्मीर का मतलब अब हिंसा नहीं है। वहां शांति है। अल्पसंख्यकों की हत्याएं और सेना पर हमले कब-जब इस शांति को भंग करते हैं मगर तुलनात्मक रूप से शांति तो है ही।
लोगों का मूड बदल रहा है। वे अब खुल कर बात करते हैं। वे अपने नए भविष्य, जो सुनहरा है, को गले लगाने तैयार हैं। श्रीनगर और उसके आसपास के इलाके गुलज़ार हैं। निराशा भी उतनी निराशाजनक नहीं लगती। राजनीति में एक नयापन है, एक नया परिप्रेक्ष्य है। लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा पूरी निष्ठा और समर्पण से इस कोशिश में लगे हैं कि प्रगति और उन्नति के साथ-साथ, राजनीति को भी जगह मिले, मगर एक नए कैनवास पर।
नए कश्मीर में एक नई तरह की राजनीति अंगड़ाई ले रही है। अब्दुल्लाओं और मुफ्तियों की राजनीति उतनी ही दयनीय अवस्था को प्राप्त हो चुकी है जितनी कि राहुल गाँधी और तेजस्वी यादव की। निवेश आ रहा है, प्रगति हो रही है। सरकार की योजनाओं का फायदा पुलवामा के कश्मीरी को ही उतना ही मिल रहा है जितना बिहार के मांझी को।
जैसा कि हम सब जानते हैं, आप कुछ करके ही मैदान जीत सकते हैं। केवल जुबानी जमाखर्च से कुछ होना-जाना नहीं है। कश्मीरियों को इस बात का अहसास है कि मोदी का जादू इस समय देश में सिर चढ़कर बोल रहा है और शक्ति और सत्ता मोदी के हाथों में केन्द्रित है। मोदी चुनाव के रणभूमि के भी विजयी योद्धा हैं। वे ही सब कुछ हैं।
इसे कश्मीर की नियति कहें या और कुछ और मगर अनुच्छेद 370 हटाए जाने के पांच साल बाद भी वह चुनाव और सत्ता की खेल में महत्वपूर्ण मोहरा बना हुआ है। हालाँकि एक फर्क है। अब चर्चा हिंसा की नहीं होती। और यही मोदी की 7 मार्च की कश्मीर यात्रा को महत्वपूर्ण बनाता है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)