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अमेरिका मजाक बन रहा है !

वही हुआ जो होना था। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी क्लास याकि अपनी जात वापिस बताई! दुनिया ने फिर जाना कि ‘अमेरिका फर्स्ट’ और उसके ‘प्रथम नागिरक’ राष्ट्रपति ट्रंप को पुतिन जैसों की संगत पसंद है!  ट्रंप ने पहले कार्यकाल में उत्तर कोरिया के राष्ट्रपति किम जोंग-उन से दोस्ती साधी थी और अब दूसरे कार्यकाल में पहले दिन से अब तक वे राष्ट्रपति पुतिन को सखा बताते हुए उन्हे वह सब दे रहे है जो उनके सहयोगी योरोपीय देशों के लिए सदमे से कम नहीं है। तभी आश्चर्य नहीं जो अलास्का में ट्रंप-पुतिन की आलस्का की बातचीत से निकला कुछ नहीं लेकिन पुतिन विजयी हो कर घर लौटे। उन्होने अगली मुलाकात के लिए ट्रंप को मास्को आने का न्यौता दिया तो यह भी कहा कि यदि ट्रंप राष्ट्रपति बने रहते है तो वे युक्रेन से लड़ते ही  नहीं।

दुनिया ने लाईव देखा ही नहीं फील भी किया होगा कि ट्रंप और पुतिन में कितनी गहरी दोस्ती है। ट्रंप ने लालकालीन पर पुतिन का सीधे स्वागत किया। सभी को समझ आ गया होगा कि विश्व राजनीति को रचने का उनका और उनकी रिपब्लिकन पार्टी का कैसे रोडमैप बना हुआ है।

तभी पुतिन अलास्का से लगभग सबकुछ लेकर गए—शक्ति, तस्वीरें और मंच। राष्ट्रपति ट्रंप की यात्रा का भी मकसद यही समझ आता है कि जैसे उन्हे अपने प्रिय “स्ट्रॉन्गमैन”  (पुतिन) से मान्यता प्राप्त करनी थी। शायद उन्हे यह चुभन है कि पश्चिमी देशों की बिरादरी में उन्हे पहले जैसा मान-सम्मान नहीं मिल रहा है इसलिए उन्हे भी एक फोटो-ऑप, पीठ पर थपकी चाहिए थी। प्रासंगिकता का भ्रम बनाना था।

सो अलास्का से दुनिया को कहीं गहरा नतीजा मिला है। एक तरह से नई विश्व-व्यवस्था की बेरहम सच्चाई। ट्रंप की दुनिया में रूस की औक़ात बढ़ रही है, निरंकुश शासकों की संगत हावी हो रही है। कह सकते है इससे खुद अमेरिका की दिशा, औक़ात, उसकी नैतिक आभा सबकुछ  उसके राष्ट्रपति, एक आदमी के अहंकार में सिमटती जा रही है।

नज़ारा अजीब था—अलास्का के भारी आसमान तले, दो “स्ट्रॉन्गमैन” आमने-सामने। पश्चिम का खुद को महान बताने वाला दबंग, पूरब के बहिष्कृत, युद्ध अपराधी के सामने झुकता दिखा। यह चौंकाने वाला हो सकता था, यदि यह इतना जाना-पहचाना न लगता। ट्रंप ने पहले खुद का मज़ाक़ उड़ाया और फिर उस “ग्रेट अमेरिका” का, जिसे वे बार-बार “फिर महान” बनाने का दावा करते हैं। यह राजनीतिक रंगमंच था—हताशा से सना, उस व्यक्ति का शो जिसे पता है कि वह अब मुख्य पात्र नहीं। फिर भी, वहीं थे—लाल कालीन बिछाते, कैमरों के लिए दाँत निपोरते, एक युद्ध-अपराधी को ‘द बीस्ट’ में साथ सवारी कराते हुए और इस बैठक को “टेन आउट ऑफ़ टेन” बताते हुए।

परिणाम? न युद्धविराम, न कोई दिशा। बस तस्वीरें—एक ऐसी दुनिया के लिए फिटिंग, जहाँ इमेज अब इरादे पर हावी है। और ट्रंप—जिन्होंने अपनी पहचान अक्खड़पन से बनाई—पुतिन के आगे झुके हुए दिखे।

पुतिन इसके विपरीत—शांत, आत्मविश्वासी और पूरी तरह नियंत्रण में। तकनीकी रूप से दुश्मन की ज़मीन पर, पर किसी दबाव के बिना। 2007 के बाद पहली बार अमेरिकी धरती पर आए, और निकले मुस्कुराहटों, गर्मजोशी और वैश्विक छवि के “नरम पुर्नवास” के साथ। राष्ट्रपती ट्रंप ने उन्हें सब दे दिया—बिना शर्त वैधता, बिना सिद्धांत प्रशंसा, और परमाणु बराबरी की तस्वीर। और सबसे महत्वपूर्ण, अपने ही घोषित लक्ष्य—यूक्रेन युद्धविराम—को छोड़कर पुतिन की “शांति योजना” के समर्थन की भाषा बोली, जिसमें यूक्रेन को अपनी ज़मीन छोड़नी पड़ सकती है। आगे ट्रंप की ‘आर्ट ऑफ़ द डील’ असल में  नाटो देशों की  ‘आर्ट ऑफ़ रिट्रीट’  साबित हो सकती है।

असल बात शौर, दिखावे और तस्वीरों में थी। मुस्कुराता पुतिन, झुकता ट्रंप। और अंतिम परत—रूसी राष्ट्रपति अमेरिकी धरती से बाहर निकलते हुए, जैसे यह वार्ता नहीं, बल्कि पाठ हो कि दुनिया का गुरुत्वाकर्षण अब कहाँ शिफ़्ट हो चुका है। “अगली बार मॉस्को में,” पुतिन बोले। ट्रंप का जवाब—“थोड़ी आलोचना होगी, लेकिन हो सकता है।” संदेश साफ़ था—अमेरिका की नैतिक रेखाएँ धुंधली हो रही हैं।

यह सिर्फ़ रंगमंच नहीं था—यह पुतिन के लिए भू-राजनीतिक तोहफ़ा था। वर्षों से उनकी नीति यही रही है—शीतयुद्ध के बाद की व्यवस्था को तोड़ना, नाटो को कमजोर करना। यूक्रेन पर हमले से उल्टा हुआ—नाटो बड़ा और मज़बूत हुआ, फ़िनलैंड और स्वीडन तक जुड़ गए। पर अलास्का में, ट्रंप ने वही किया जो पुतिन नहीं कर सके—नाटो के भीतर अविश्वास बोया। युद्धविराम की बात छोड़कर पुतिन के शब्द दोहराए—“व्यापक शांति समझौता,” यानी यूक्रेन की ज़मीन छोड़ना और यूरोप-नाटो में शामिल होने का सपना ख़त्म करना। यह न सिर्फ़ सहयोगियों को उलझाने वाला था, बल्कि उनके सबसे बुरे डर की पुष्टि भी—कि ट्रंप की वापसी, अमेरिका की प्रतिबद्धताओं को अंदर से तोड़ देगी।

फॉक्स न्यूज़ को दिए इंटरव्यू में ट्रंप ने कहा—“दो परमाणु शक्तियों का साथ आना अच्छा है। हम नंबर वन हैं, वे नंबर टू।” एक झटके में चीन और यूरोपीय संघ नक़्शे से मिटा दिए गए। यह रणनीति नहीं, नाटक था—पुतिन के घाव पर मरहम। और मॉस्को में इसे ऐसे ही समझा गया—वहा राष्ट्रीय चैनलों पर ख़ुशी के फव्वारे फूट पड़ है, पटाखे छूट रहे है।

यही है ‘स्ट्रॉन्गमैन’ राजनीति की क़ीमत। चापलूसी को एक नीति में बदल देना। तानाशाहों को बिना सुधार वैधता देना। और दुनिया को यह संदेश देना कि अमेरिका अब “फ्री वर्ल्ड” का नेता नहीं, बस स्ट्रॉन्गमैन फोटो-ऑप मंडली का हिस्सा है।

पुतिन की भाषा भी पाठ थी—न “युद्ध,” न “हमला।” बस “घटना” और “त्रासदी।” ट्रंप ने सिर हिलाया, कोई चुनौती नहीं। एक युद्ध-अपराधी को अमेरिकी ज़मीन से ढाल मिल गई।

सबसे चौंकाने वाली छवि पुतिन की मुस्कान नहीं थी, बल्कि उसका अर्थ- कि ट्रंप के अधीन, अमेरिका अब नैतिकता का मंच नहीं, बल्कि स्ट्रॉन्गमैन रंगमंच है। जो देश कभी लोकतंत्रों को तानाशाहों के ख़िलाफ़ खड़ा करता था, अब उनके लिए कालीन बिछाता है। न युद्धविराम, न प्रतिबंध। अपराधियों को बधाई मिलती है। क्या यह दुनिया के चौकीदार, नंबर एक महाशक्ति की कूटनीति है या आत्मसमर्पण है? महाशक्ति ताक़त के मुखौटे में धंधे,डील, सौदे, नोबेल पुरस्कार की लालसा की नौटंकिया!

और क़ीमत सिर्फ़ छवि को निकारने की नहीं, बल्कि व्यवस्था व ढांचे के है। हर ऐसे प्रदर्शन से दुनिया और साफ़ देखती है कि अमेरिका वह देश बन रहा है जहाँ शक्ति सिद्धांत से नहीं, शौशेबाजी और प्रदर्शन से मापी जाती है। जहाँ गठबंधन नेताओं की मनःस्थिति पर टेढ़े होते हैं। जहाँ दुश्मन भी तारीफ़ पर दोस्त हो जाते हैं।

कभी “फ्री वर्ल्ड” की अंतरात्मा कहे जाने वाला अमेरिका सचमुच अब मज़ाक का विषय बनने के ख़तरे में है।

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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