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उदार लोकतंत्र के लिए ब्रिटेन से आशा की किरण

ग्लोबलाइजेशन

करीब 14 साल तक लगातार सत्ता में रहने के बाद इंग्लैंड की जनता ने कंजरवेटिव पार्टी को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। यह नतीजा अवश्यंभावी और अपेक्षित था। लेकिन कंजरवेटिव पार्टी की इतनी बुरी गत होगी, यह किसी ने नहीं सोचा था। कंजरवेटिव पार्टी संभवतः दुनिया का सफलतम राजनीतिक दल है। सन 1945 के बाद से वह जितने समय सत्ता से बाहर रहा है, उसके दोगुने समय तक सत्ता में रहा है। लेकिन अब वह विपक्ष में है। ब्रेक्जिट, महामारी और राजनीतिक उथल पुथल, जिसके चलते एक साल में तीन प्रधानमंत्री बदले, का मिलाजुला प्रभाव यह हुआ कि कंजरवेटिव पार्टी मात्र 120 सीटें जीत सकी। अब तक इतनी कम सीटें उसे कभी नहीं मिली थीं।

दूसरी ओर सर कीर स्टार्मर के नेतृत्व में लेबर पार्टी ‘400 पार’ पहुंच गई। इस संख्या से सभी चकित थे। लेकिन साथ ही सबको खुशी भी हुई। कहा जाता है कि लेबर पार्टी एक पीढ़ी में केवल एक बार सत्ता हासिल कर पाती है। ‘द इकोनॉमिस्ट’ अखबार के अनुसार, लेबर पार्टी ने देश के सभी हिस्सों में सीटें हासिल की हैं। इनमें से कई सीटें ऐसी थीं, जिन पर 19वीं सदी से अब तक लगातार कंजरवेटिव पार्टी का कब्जा था। कई प्रमुख नेताओं, जिनमें कई मंत्री और पूर्व प्रधानमंत्री लिज ट्रस भी शामिल हैं,  को हार का मुंह देखना पड़ा। लेबर पार्टी ने कंजरवेटिव पार्टी (और अन्यों) से 174 ज्यादा सीटें हासिल कीं। सत्ता का हस्तांतरण बिना किसी परेशानी के हुआ। वकील से नेता बने कीर स्टार्मर ब्रिटेन के 58वें प्रधानमंत्री बन गए और उन्होंने ब्रिटेन में ‘चेंज’ के दौर की शुरुआत की।

ब्रिटेन में गर्मी का मौसम वैसे भी सुहावना होता है और चुनाव के नतीजों ने उसे और सुहावना बना दिया है। उम्मीदों की मिठास, गर्मी की ताजगी में घुल गई है। इस समय यूरोप के ज्यादातर देश धुर दक्षिणपंथ की ओर बढ़ रहे हैं। अमेरिका में जनमत ट्रंप के पक्ष में होता जा रहा है। ऐेसे में लेबर पार्टी की जीत और अधिक स्वागत योग्य है क्योंकि वह एक ऐसे बदलाव का प्रतीक है जो आधुनिक और उदार समाज और लोकतंत्र के निर्माण की दिशा में है। वह दुनिया भर में छाए अंधकार और उदासी भरे माहौल में एक आशा की किरण की तरह है।

लेकिन लेबर पार्टी को जबरदस्त बहुमत हासिल होने के बावजूद, इस चुनाव ने एक विभाजित और अनिश्चितता के भंवर में फंसे देश की तस्वीर पेश की है। साथ ही इंग्लैंड में कई ‘विकल्प’ भी उग आए हैं।

अब तक ब्रिटेन में चुनावी मुकाबला लेबर और कंजरवेटिव पार्टियों के स्थिर और स्थायी गठबंधनों के समर्थकों के बीच होता था। कौन किसे मत देगा, यह उसके वर्ग से निर्धारित होता था। लेकिन 2015 से चुनावों की फितरत बदल गई। अब दोनों बड़ी पार्टियां केवल एक एजेंडा वाली छोटी पार्टियों से यूड-एंड-थ्रो गठबंधन करने लगी हैं। ये गठबंधन केवल एक चुनाव के लिए होते हैं। कंजरवेटिव पार्टी का 2019 में बनाया गया गठबंधन बेचैनी, आर्थिक ठहराव एवं जनसेवाओं के गिरते स्तर आदि वजहों से ताश के पत्तों के महल की तरह बिखर गया। इस बार हालांकि लिबरल डेमोक्रेटस ने 71 सीटों पर जीत हासिल की है, लेकिन जिस बात ने नतीजों को पहेलीनुमा बना दिया वह है कंजरवेटिव पार्टी और रिफॉर्म यूके के बीच दक्षिणपंथी मतों का बंट जाना। सन 2015 के एकमात्र अपवाद को छोड़कर, यह ब्रिटेन में पहला ऐसा चुनाव है, जिसमें दक्षिणपंथी उसी तरह बंट गए हैं, जिस तरह मध्य वामपंथी बंटते रहे हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि लेबर पार्टी को 34 प्रतिशत मत प्राप्त हुए वहीं कंजरवेटिव पार्टी को लगभग 24 प्रतिशत वोट मिले, जो आधुनिक ब्रिटेन के इतिहास में सबसे कम हैं। इसकी वजह रही नाइजल फराज की लोक लुभावन वायदे करने वाली रिफॉर्म यूके पार्टी, जिसे लगभग 14 प्रतिशत वोट हासिल हुए।

लेकिन मतदान का कम प्रतिशत संकेत दे रहा है कि देश विभाजित है। ब्रिटेन की जनता का भी राजनीति और राजनीतिज्ञों ने उतना ही मोहभंग हो गया था, जितना वर्तमान चुनावी दौर में कई देशों में नजर आया। कुल मिलाकर, मतदान का प्रतिशत पिछले 20 वर्षों से भी अधिक का निम्नतम था। केवल 59.9 फीसदी मतदाताओं ने मतदान किया, जो 2019 के 67.3 प्रतिशत से काफी कम है। यह 2001 के आम चुनाव के 59.4 के बाद से अब तक का न्यूनतम है। 2001 का मतदान प्रतिशत द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत के बाद का न्यूनतम था।

कम मतदान की वजह यह थी कि कोई भी पार्टी मतदाताओं को उत्साहित करने में कामयाब नहीं हुई। लेबर पार्टी का ‘चेंज’ का नारा उतनी लोकप्रियता हासिल न कर सका, जितनी कंजरवेटिव पार्टी के 14 साल के निराशाजनक शासनकाल के बाद उसे हासिल करनी चाहिए थी। इस दौरान कंजरवेटिव अपनी आंतरिक राजनीति में उलझे रहे और उसके समर्थक भी हालातों से इतने तंग आ चुके थे कि उनमें मतदान के प्रति उदासीनता थी। इस तरह दोनों प्रमुख पार्टियों के मतदाताओं की चुनावों में कोई खास रूचि नहीं थी। दोनों पार्टियों के बीच के रास्ते पर चलने का प्रयास का नतीजा यह हुआ कि कंजरवेटिव पार्टी के दक्षिणपंथी और लेबर के वामपंथी धड़ों ने बगावत कर दी और मध्यमार्गी मतदाता ‘लिब डेम्स’ साथ हो लिए, जो पूरे जोश खरोश से जल प्रदूषण जैसे मुद्दे उठा रहे थे। केवल कुछ ही निर्वाचन क्षेत्र ऐसे थे, जिनमें दोनों प्रमुख दलों के बीच सीधा मुकाबला था। बाकी सभी क्षेत्रों में मुकाबला बहुकोणीय था, लेबर बनाम निर्दलीय एवं ग्रीन, कंजरवेटिव बनाम रिफॉर्म, लेबर बनाम रिफॉर्म, कंजरवेटिव बनाम लिब डेम्स, लेबर बनाम एनएनपी, लेबर बनाम निर्दलीय आदि। इसी का नतीजा था कि 50 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं का समर्थन हासिल करने वाले सांसदों की संख्या बहुत घट गई।

हालांकि लेबर पार्टी को सदन में जबरदस्त बहुमत हासिल हुआ है, लेकिन मतदाताओं में उसका समर्थन अपेक्षाकृत कम है और इसलिए मतदाताओं के जिन वर्गों ने उसका साथ दिया है, उनमें से किसी का भी समर्थन खोने का जोखिम वह नहीं मोल ले सकती। मगर यह भी सच है ब्रिटेन की समस्याओं का सुलझाव इस भानुमती के पिटारे के बिखरने का खतरा उठाए बिना नहीं किया जा सकता।

मगर शायद हमें आशा का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। यह तो हम कह ही सकते हैं कि जिन्हें चुना गया है, यदि वे कामयाब रहे, तो एक अपेक्षाकृत टिकाऊ चुनावी बहुमत का मार्ग प्रशस्त होगा।

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By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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