nayaindia West Bengal Lok Sabha Election सोच लीजिए यहां किसकी हवा है!

सोच लीजिए यहां किसकी हवा है!

बाटानगर (पश्चिम बंगाल)। “जब नाम ही नहीं पता तो सोच लीजिए यहां किसकी हवा है,” जोयदीप विस्वा दो टूक शब्दों में कहते हैं। मैं बाटानगर में हूं, एक झोपड़ीनुमा चाय की दुकान में, जिसके एक ओर है गंगा और दूसरी ओर निर्जन बाटानगर। बाटानगर महेशताला में है जो डायमंड हार्बर सीट का हिस्सा है। यह सीट ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी का गढ़ बन गयी है। शहर में और उसके बाहर ममता बनर्जी के इस वारिस के बड़े-बड़े होर्डिंग लगे हैं। और आप जोयदीप के शुरू में कहे गए इस कथन से असहमत नहीं हो सकते कि “जब (किसी और का) नाम ही नहीं पता तो सोच लीजिए लीजिये हवा यहाँ किसकी होगी?”

और कोलकत्ता में जानकारों की माने तो दक्षिण बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के तमामविरोधी लेफ्ट, भाजपा उम्मीदवारों का यह प्रमुख संकट है जो वे अपने को मतदाताओं के बीच नहीं पहुंचा पाए है।

किसी समय बाटानगरमें भी सीपीएम, सीपीआई और कांग्रेस मजबूत हुआ करती थीं। लेकिन 2009 के बाद से यहां तृणमूल कांग्रेस का प्रभुत्व है और इस पार्टी ने लगातार तीन चुनावों में जीत हासिल की है, जो राज्य की राजनीति में टीएमसी और अभिषेक के दबदबे को दर्शाता है।इस बार सीपीएम और भाजपा ने क्रमशः प्रतिकुर  रहमान और अभिजीत दास को मैदान में उतारा है, जिससे डायमंड हार्बर का मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है। लेकिन बाटानगर में अभिषेक बनर्जी को छोड़कर किसी अन्य उम्मीदवार का प्रचार नजर ही नहीं आता है।

बंगाल की राजनीति की दुर्दशा का असर लोगों द्वारा बनाए गए इस शहर पर भी है। बंगाल में किसी कंपनी के नाम के शहर का होना अजीब ही लगता है। कृष्नानू और सुप्रियो – दोनों 30 साल के हैं और बाटा फैक्ट्री में काम करते हैं। वे पुराने बाटानगर के अच्छे दौर के बारे में ज्यादा नहीं जानते और ना ही उन्हें इसके बारे में जानने में कोई रूचि है। लेकिन यह बात वे अच्छे से जानते हैं कि ‘किसकी हवा चल रही है‘। ‘अभिषेक दादा’ सुप्रियो मुस्कराते हुए दावा करते हैं। और फिर लंच और उसके बाद छोटी सी झपकी लेकर दुबारा फैक्ट्री में जाने के लिए आगे बढ़ जाते हैं।

बाटानगर एक समय आधुनिक फैक्ट्री श्रमिकों का स्वर्ग था, जिसे चेकोस्लोवाकिया ने अपनी वैश्विक महत्वाकांक्षाएं पूरी करने के लिए निर्मित किया था। यह छोटा सा उपनगर गंगा के किनारे था और आसपास थे खुले खेत और ढे़र सारी हरियाली।फैक्ट्री के बाद औद्योगिक हलचल शुरू हुई। यह एक पूर्णतः और शुद्धतः औद्योगिक नगर था जो मोरोवियन शहर बाटाविले जिल्न की तर्ज पर बनाया गया था। वहां श्रमिकों के लिए सारे इंतजामात थे। कारखाना तो था ही, मकान भी थे, स्कूल, डिपार्टमेंटल स्टोर भी और अस्पताल, सिनेमाघर, पुस्तकालय और क्लब भी। पूरा शहर नियोजित था और इसकी सड़कें एक-दूसरे से 90 अंश के कोण पर मिलती थीं। यह रहने और खुशहाल होने के लिए एक आदर्श जगह थी। यह सब मुझे बताया राहुल मित्रा ने जिनके दादा, फिर उनके पिता और अब उनकी बहन बाटा के कारखाने में काम करते हैं। वे कहते हैं “मैं तब पैदा भी नहीं हुआ था मगर मेरे दादाजी बताते हैं कि फैक्ट्री में एक समय 20,000 से ज्यादा लोग काम करते थे। बहुत बड़ा और मजेदार शहर था यह।”

स्थानीय लोगों के अनुसार अधिकांश श्रमिक बिहार और उत्तरप्रदेश से आए थे मगर ज्यादातर मैनेजर बंगाली थे जो अपने परिवार के साथ शेष बंगाल से कटे इस शहर में रहते थे। करीब 45 साल के जितेन्दर शाह को अभी भी याद है कि वीकेंड पर कोलकाता से लोकल ट्रेनों में महानगरवासी बाटानगर में फुटबाल खेलने आया करते थे। जितेन्दर के पिता काम के लिए बाटानगर में बस गए थे और यहीं उसका जन्म हुआ। अब वो एक ठेले से गन्ने का रस बेचता है। उसके ग्राहक कम ही होते हैं क्योंकि शहर में ही अब कम लोग बचे हैं।

राहुल और जितेन्दर दोनों इस इलाके में आए बदलाव के साक्षी हैं। अब वह औद्योगिक शहर की जगह ज़मीन के सौदागरों का स्वर्ग हो गया है। दोनों ने इस शहर की ख्याति नष्ट होते और इसे खूनी लड़ाईयों का इलाका बनते देखा है। इस छोटे से सुंदर शहर में पहले वामपंथी राजनीति का बोलबाला रहा और अब उसका स्थान तृणमूल कांग्रेस ने ले लिया है।

सन् 1988 में एक दिन लाकआउट के चलते फैक्ट्री में कामकाज ठप्प हो गया। सालों की हिंसक ट्रेड यूनियन गतिविधियों और प्रबंधन के सख्त रवैये के चलते अंततः कामगार बेरोजगार हो गए। इसके डेढ़ साल बाद फैक्ट्री पर जड़े ताले खुले, प्रबंधन ने थोड़ा लचीलापन दिखाया। यूनियनें भी सबक सीख चुकी थीं। ऐसा कहा जाता है  कि बाटा साहब अर्थात थामस बाटा जूनियर, जो यहां अक्सर आते थे, फैक्ट्री बंद कर अपने घाटे को कम रहने के प्रति अनिच्छुक थे। भारत में बाटा की इस पहली फैक्ट्री से उनका भावनात्मक जुड़ाव था।

अब हम आते हैं वर्तमान में। हकीकत यह है कि अब बाटानगर को इस नाम से नहीं जाना जाता बल्कि कलकत्ता रिवरसाईड कहा जाता है। हरियाली पहले से कम हो गई है और उसका स्थान ऊंचे-ऊंचे आवासीय भवनों ने ले लिया है – रेल के डिब्बों के मानिंद बक्सानुमा फ्लेट एकदम एक-से दीखते हैं लेकिन जिन्हें करोड़ों रूपये में बेचा जा रहा है। इनका यूएसपी ‘गंगा व्यू‘ बताया जाता है जिसके चलते बिल्डरों की तिजोरियां भर रही हैं। अगर आपको लगता है कि इससे शहर खूबसूरत और व्यवस्थित बन गया होगा, तो ऐसा नहीं है। सड़कों के किनारे झाड़-झंकाड़ हैं और यहां आने वालों या खरीददारों को आकर्षित करने वाली कोई चकाचौंध भरी या आकर्षक चीज नहीं है।

हाल में कोलकाता और बाटानगर के बीच की दूरी तय करने में लगने वाले समय को कुछ मिनट करने के लिए एक 7.5 किलोमीटर लंबा फ्लाईओवर बनाया गया है। जब मैंने ‘कलकत्ता रिवरसाईड’ के प्रवेशद्वार को पार किया तो मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैं किसी भुतहे शहर में घुस रही हूं। वहां के भवनों में निर्मित घर, जिनके बारे में बताया जाता है कि वे सभी बिक चुके हैं, बेजान और नीरस नजर आ रहे थे। जगह-जगह कूड़ा-कचरा और कबाड़ बिखरा पड़ा था, और कामकाज वाले दिन की दोपहर में भी सड़कें खाली पड़ी थीं।

केवल बाटा कारखाने के कर्मी दिख रहे थे जो लंच ब्रेक के लिए उसी समय बाहर आ रहे थे। तृणमूल कांग्रेस सरकार ने इस उम्मीद के साथ जमीन बिल्डरों को लीज पर दी है कि पॉश ऊंची-ऊंची इमारतें बनने से बाटानगर की आभा लौट आएगी और जैसे बंबई वासी सप्ताहांत पर अलीबाग जाते हैं वैसे ही मौज-मस्ती और घूमने-फिरने के लिए लोग यहां आएंगे। लेकिन जब मेरे जैसा कोई बाहरी व्यक्ति बाटानगर पहुंचता है तो उसे  सिर्फ एक बेजान शहर दिखता है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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