अछिपुर (24 परगना, पश्चिम बंगाल)। पूर्वी भारत के इस छोटे से गाँव में मौसम ह्यूमिड और असहनीय है।बावजूद इसके आप उत्तर भारत से यहाँ बहकर आ रही बदलाव की बयार को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते।हैरानी भरा मूड है लोगों का।
अपनी तरह के अनोखे और अत्यंत सुन्दर चीनी मंदिर के बाहर 68 साल के असित कुमार शील टूटी-फूटी हिन्दी में अपने राजनैतिक नजरिए का बेझिझक खुलासा करते हैं- “अब चेंज आना ही चाहिए,” वे यह बात बिना किसी किन्तु-परन्तु के कहते हैं।
बदलाव की उनकी यह इच्छा पश्चिम बंगाल के संदर्भ में है, न कि भारत, केंद्र सरकार के सन्दर्भ में। नीले रंग के साफ-सुथरे कमीज-पेंट और मेचिंग गोल कैप पहने हुए असित मुझे चीनी मंदिर के अंदर ले जाते हैं। इसी परिसर में एक हिंदू मंदिर भी है। अन्दर पहुँच कर वे अपनी बदलाव की इच्छा के बारे में विस्तार से बताते हैं।और भ्रष्टचार, तृणमूल कांग्रेस की गुंडागर्दी, विकास का अभाव और अवसरों की कमी जैसे मुद्दे गिनाते हैं। “वे (ममता) आम लोगों के सुखद भविष्य का वादा करके सत्ता में आईं थीं पर न कोई बदलाव हुआ और न कोई सुविधा मिली।”
“तो चेंज के बाद किसे आना चाहिए?” मैं पूछती हूं।
“बीजेपी ही ठीक है,” वे धीमे लेकिन दृढ़ स्वर में कहते हैं।
वहां सिर्फ हम दोनों थे। फिर भी वे जोर से बोलने की हिम्मत नहीं जुटा सके!
अछिपुर कोलकाता से करीब 30 किलोमीटर दूर है। बताया जाता है कि यह भारत में चीनियों की पहली बसाहट थी, जो टोंग एटच्यू नामक एक चीनी द्वारा स्थापित चीनी मिल में काम करते थे। आज हालांकि यहां एक भी चीनी नहीं रहता है और एटच्यू की चीनी मिल का कोई नामोनिशां बाकी नहीं है।ले दे कर चीनी लोंगो का यह मंदिर बचा है जो चीनियों के आराध्य खुदा-खुदी को समर्पित है। दोनों धरती के देवता और देवी हैं। मुख्य चीनी मंदिर के पीछे एक अपेक्षाकृत छोटा हिंदू मंदिर है। अछिपुर के निवासियों में से 70 प्रतिशत मुस्लिम और 30 प्रतिशत हिन्दू है, जो कई पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं। “यहां एक भी बाहरी बंगाली नहीं रहता,” बिक्रम स्पष्ट करते हैं। उनका जोर ‘बाहरी’ शब्द पर है। वे अछिपुर से गुजरने वाले हाईवे के एक संकरे हिस्से में चाय की दुकान चलाते हैं।
दोपहर का समय है और सूरज आग उगल रहा है। आमतौर पर शांत और सोया हुआ सा गांव और भी शांत है, और ज्यादा गहरी नींद में है। लोग या तो अपने घरों में कैद हैं या नजदीक स्थित गंगा नदी में डुबकियां लगा रहे हैं।
मुस्लिम-बहुल होने के बावजूद इस क्षेत्र में हमेशा शांति रही है। यहां कभी ऐसा कुछ नहीं हुआ जिससे साम्प्रदायिक तनाव बने या बढ़े। शील और बिक्रम की बदलाव की इच्छा का मुसलमानों या सीएए या एनआरसी या किसी और साम्प्रदायिक मुद्दे या मीडिया द्वारा उछाली जा रही या प्रकाशित व प्रसारित की जा रही किसी बात से कोई लेना-देना नहीं है। उनकी बदलाव की इच्छा की वजह है ममता दीदी से उनका मोहभंग।
शोमा घोष, ममता बनर्जी की बहुप्रचारित ‘लक्ष्मी भंडार’ योजना की लाभार्थी हैं। लेकिन वे भी ममता दीदी और उनकी लोककल्याणकारी राजनीति से निराश हैं।भुनभुनाते हुए बांग्ला में कहती हैं-“एक हजार रूपये से क्या होगा? हमें काम चाहिए।”
पश्चिम बंगाल में लोगों के राजनैतिक जुड़ावों में जटिलता और छुपाव नहीं है। कम से कम ऊपर से देखने पर यही नजर आता है। कौन किसके साथ है, इसे समझना कभी मुश्किल नहीं रहा है। शुरू में बंगाल के लोग कांग्रेस के साथ थे, फिर वे वामपंथ से जुड़े और उसके बाद ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस से। टीएमसी दरअसल कांग्रेस और टीएमसी का मिश्रण है और उनकी नीतियों का भी।इन दिनों राजनैतिक चर्चाओं में ‘लेकिन’ शब्द आम हो चला है और लोग विकल्प तलाश रहे हैं। सतह के नीचे कुछ खदबदा रहा है। पुरूषों, महिलाओं, लड़कों और लड़कियों के मन में एक ही इच्छा है।यह इच्छा दो टूक है। वे चाहते हैं बदलाव होना चाहिए और भाजपा को एक मौका दिया जाना चाहिए।
यह बहुत अजीब सा लगता है। बंगाली जनता भला भाजपा के पक्ष में? धुर वामपंथ से धुर दक्षिणपंथ? ये बात कुछ जमती नहीं। लेकिन आज यही बंगाल की हकीकत है।
कीर्ति जाधवपुर विश्वविद्यालय की ग्रेजुएट हैं और अपनी नौकरी को लेकर फिक्रमंद हैं। जाधवपुर विश्वविद्यालय हाल के समय में कई गलत वजहों से चर्चा में रहा है। यह विश्वविद्यालय वामपंथियां का मजबूत गढ़ है और इन दिनों वह शिक्षा से ज्यादा राजनीति का केन्द्र बना हुआ है। कैथरीन अपने मित्रों के साथ कैंपस के मैदान में बैठ कर गप्पें लगा रही हैं। यहाँ सामान्यतः उन्हीं मुद्दों पर विचार-विमर्श होता है जो आमतौर पर वामपंथी विचारधारा के लोगों के बीच चर्चा के मुद्दे होते हैं – गाजा, फिलिस्तीन, भाजपा, एनआरसी और ऐसे ही अन्य विषय। लेकिन कैथरीन इन सबसे हटकर सोचती हैं। उन्हें भी राज्य में अवसरों की कमी की चिंता है। “यदि वे और ज्यादा कंपनियों और उद्योगों को पश्चिम बंगाल में आने की अनुमति देंगे तभी मुझे रोजगार के लिए राज्य के बाहर नहीं जाना पड़ेगा और मैं अपने परिवार के साथ रह पाऊंगी,” वे कहती हैं। जाहिर है कि वे अनिश्चितता और आशंका से ग्रस्त और त्रस्त हैं।
कोलकाता, जाधवपुर और दमदम – ये सारे शहरी इलाके तृणमूल कांग्रेस के मजबूत किले हैं। सोवाबाजार में एक चाय की दुकान पर हो रही राजनीतिक चर्चा तीखा स्वरुप अख्तियार कर लेती है। पिंटू सरकार, जो एक निजी कंपनी से सेवानिवृत्त हुए हैं, गर्व से कहते हैं कि बंगाली ‘शिक्षित लोग’ हैं और कभी भाजपा को वोट नहीं देंगे। मगर यह सुनकर प्राथमिक स्कूल के शिक्षक संजय सोनकर आपा खो बैठते हैं और शिक्षक भर्ती घोटाले और संदेशखाली का हवाला देते हुए ऊंची आवाज में कहते हैं “क्या यही हैं शिक्षित बंगालियों की कारगुजारियां?”
संजय सोनकर और असित कुमार शील की सोच एक सी है। सोनकर भी यही मानते हैं कि बदलाव होना चाहिए। हालांकि उत्तरी कोलकाता तृणमूल कांग्रेस का मजबूत गढ़ है, लेकिन वहां से पार्टी के उम्मीदवार सुदीप बंदोपाध्याय की राह आसान नहीं है। बदलाव की बयार के साथ-साथ तृणमूल कांग्रेस के आंतरिक झगड़ों ने लड़ाई को और मुश्किल बना दिया है। दक्षिण कोलकाता का माहौल, वहां के लोगों का नजरिया भी उत्तरी कोलकाता, जाधवपुर और अछिपुर जैसा ही है।
35 साल के अभिनव, कुमारतुली में मां दुर्गा की एक मूर्ति बना रहे हैं। वे मूलतः कृष्णनगर से हैं। बल्कि अधिकांश कारीगर वही से हैं। हालांकि उनके पास राजनीति की बातें करने के लिए समय नहीं है, लेकिन वे इतना ज़रूर कहते हैं कि यह समय है बदलाव का।
“क्या सीपीएम के पक्ष में बदलाव?” मैं जानना चाहती हूँ।
“वो तो बहुत पहले की बात है, अब उसका कोई मतलब नहीं है,” 54 साल के लखनपाल उनकी ओर से जवाब देते हैं।
सीपीएम इस चुनाव में अपनी खोई हुई आभा दुबारा हासिल करने की जुगत में है। युवा और नए चेहरों को मैदान में उतारने से लेकर जुबान पर चढ़ने वाले पैरोडी गीत बजाने और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के उपयोग तक – सीपीएम युवा मतदाताओं को आकर्षित करने का हर संभव प्रयास कर रही है ताकि इस चुनावी मैदान के दो मुख्य पहलवानों तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ वह भी अपनी मौजूदगी का अहसास करा सके। उम्रदराज और परंपरागत बंगालियों को अपनी ओर खींचने के लिए गणशक्ति (सीपीएम का समाचारपत्र) में संपादकीय लिखे जा रहे हैं जिनमें तृणमूल कांग्रेस और भाजपा की निकटता की चर्चा रहती है। ऐसा ही एक संपादकीय मुझे उत्तरी कोलकाता की एक बस्ती में लगे नोटिस बोर्ड पर पढ़ने को मिला। बांग्ला में इसकी हेडलाइन का हिंदी अनुवाद लगभग यह होगा – “नागपुर की ट्रेन पर सवार तृणमूल”।
हालांकि एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद सीपीएम दौड़ में बहुत पीछे है और नतीजों में वह तीसरे नंबर पर रहेगी।सो असली लड़ाई ममता बनर्जी और बदलाव की चाहत के बीच है।
ममता बनर्जी एक समय बदलाव की मैस्कॉट थीं। और संभवतः उन्हें ऐसे चुनावी माहौल की उम्मीद नहीं थी। सन् 2021 में विधानसभा चुनाव में कई ज्ञानियों की भविष्यवाणी के विपरीत, एक शानदार जीत हासिल करने के बाद ममता ने सोचा होगा कि इतनी ही आसानी से वे अगला लोकसभा चुनाव भी जीत लेंगीं। लेकिन घोटालों की पोल खुलने और चुनावी विमर्श से पैदा उत्तेजना और गुस्से का सामना करने के लिए वे तैयार नहीं थीं। महिलाएं ममता बनर्जी के वोट बैंक का मुख्य आधार है। अब वे नाराज हैं और यदि वे दूसरे कैंप में चली जाएं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। युवा और अधीर लोग और ज्यादा अधीर हो गए हैं। हमेशा से राजनीतिक दृष्टि से परिपक्व बंगाली युवा वर्ग का अब उस राजनीति से मोहभंग हो चला है जिसे देखते और जिसके बारे में सुनते हुए वे बड़े हुए हैं। हर चौथा बंगाली युवक बदलाव चाहता है। उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर नरेन्द्र मोदी के रूप में एक ऐसा नेता नजर आता है जो कुछ करके दिखा रहा है।
संभवतः इसलिए ममता बनर्जी राज्य स्तर पर वही करने का प्रयास कर रही हैं जो नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय स्तर पर कर रहे हैं – दिन रात हर निर्वाचन क्षेत्र, हर सीट पर अनवरत चुनाव प्रचार। अपने इस गढ़ में उनकी स्थिति डावांडोल है। उनकी और मोदी की लोकलुभावन राजनीति में घमासान मुकाबला है।मगर ममता का उनका मुकाबला नरेन्द्र मोदी की भाजपा से तो है ही, उनका साथ छोड़ चुके लोगों से भी है और तय मानिये यह मुकाबला आने वाले दिनों और सालों में और सघन तथा विकट होता जाएगा। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)