किसने कल्पना की थी एक दिन ऐसा भी आएगा जब रूस को अमेरिका दुश्मन की तरह देखना बंद करेगा? इतना ही नहीं वह यूक्रेन मसले पर साथी योरोपीय देशों को हैरान करेगा? मैंने अकादमिक वर्षों में एक ही दुनिया पढ़ी थी। मॉस्को कोई साधारण राजधानी नहीं बल्कि वह डरावनी छाया है जिसकी चिंता में हर अमेरिकी फ़ैसला होता है। तब शीत युद्ध एक स्थायी, लगभग भूगर्भीय यथार्थ था। कूटनीति के सभी सिद्धांत सोवियत ख़तरे के इर्द-गिर्द लिखे गए। उसी को रोकने के लिए सिद्धांतों और संधियों का जन्म हुआ। हमें बताया गया कि यह प्रतिद्वंद्विता संरचनात्मक है। इसके नरम पड़ने में पीढ़ियाँ लगेंगी, और शायद ही कभी ख़त्म हो।
तब किसी ने डोनाल्ड ट्रंप की भी कल्पना नहीं की थी। एक ऐसा व्यक्ति जो अमेरिका का राष्ट्रपति न सिर्फ़ एक बार बल्कि दो बार बनेगा। और मॉस्को को लेकर बिल्कुल अलग प्रवृत्तियाँ लिए होगा।
पिछले सप्ताह ट्रंप ने रूस–यूक्रेन युद्ध को समाप्त करने के लिए 28-सूत्रीय शांति-योजना जारी की। लेकिन गहराई से पढ़ने पर दस्तावेज़ में स्पष्ट रूसी झुकाव दिखा। इतना कि विश्लेषकों को समझ नहीं आया कि यह योजना यूक्रेन को स्थिर करने के लिए है या रूस के भाव बढ़ाने के लिए है? फिर मंगलवार को ब्लूमबर्ग ने 14 अक्टूबर की एक फ़ोन कॉल की सामग्री प्रकाशित की। यह ट्रंप के “विशेष दूत” स्टीव विटकॉफ़ और व्लादिमीर पुतिन के वरिष्ठ विदेशी नीति सलाहकार यूरी उशाकोव के बीच थी। उस कॉल ने योजना की उत्पत्ति को निर्विवाद रूप से सामने रख दिया। कॉल में अमेरिकी विटकॉफ़ की आवाज़ दर्ज थी — “शांति” के लिए कीव को डोनेत्स्क छोड़ना होगा, और आगे और इलाक़े हाथ बदल सकते हैं। उनकी भाषा में वह सहजता थी जैसे सीमाएँ बदलना किसी प्रशासनिक प्रक्रिया से ज़्यादा कुछ नहीं। यही विटकॉफ़ हाल में गाज़ा युद्धविराम की मध्यस्थता में भी शामिल थे। उन्होने कॉल में सुझाव दिया कि मॉस्को और वाशिंगटन गाज़ा मॉडल पर एक संयुक्त ढाँचा बना सकते हैं।
इकोनॉमिस्ट ने भी नोट किया कि योजना को जब एक AI मॉडल पर चलाया गया, तो वह टेक्स्ट किसी रूसी-लिखित दस्तावेज़ के अनुवाद जैसा लगा। और जब मैं यह लेख लिख रही थी, ठीक उसी समय रॉयटर्स ने खबर दी कि ट्रंप की योजना उसी रूसी दस्तावेज़ से प्रेरित है जिसे पुतिन प्रशासन ने अक्टूबर में ट्रंप टीम को सौंपा था।
अलग-अलग देखें तो ये विवरण महज़ राजनयिक शोर लग सकते हैं। पर साथ रखें तो ये एक दिशा दिखाते हैं — एक ऐसी अमेरिकी विदेश नीति, जो अब रूस की प्राथमिकताओं के साथ सहज होती जा रही है, या कम से कम उन्हें गंभीरता से सुनने लगी है।
ट्रंप की योजना को और चिंताजनक बनाता है उसके इरादे। मतलब यूक्रेन को डोनबास का वह मज़बूत इलाक़ा छोड़ना पड़ेगा, जिसे रूस बरसों की गोलाबारी के बावजूद जीत नहीं सका। उसकी सेना को लगभग एक-चौथाई कम करना होगा। 6 लाख सैनिकों की सीमा में बाँधकर, जबकि देश पर हमला जारी है। और सबसे बड़ा अपमान — यूक्रेन को अपने संविधान में स्थायी रूप से यह लिखना होगा कि वह नाटो में शामिल नहीं होगा।
इधर रूस को इन सबके बदले कई इनाम मिलने है। उस पर से पाबंदियाँ हटनी, G8 में वापसी, और जमी हुई रूसी संपत्तियों से “संयुक्त अमेरिकी–रूसी परियोजनाओं” का निर्माण। यूरोप पर यूक्रेन के पुनर्निर्माण का 100 अरब डॉलर का बोझ पड़ता। वही अमेरिका को पुनर्निर्माण ठेकों और यूक्रेन की गैस अवसंरचना में हिस्सा मिलता। पश्चिमी सैनिकों का यूक्रेन में प्रवेश पर स्थायी रोक ताकि यूरोप की प्रस्तावित सुरक्षा-फोर्स जन्म से पहले ही समाप्त।
हमें अभी नहीं पता कि जिनेवा वार्ताओं के बाद इन शर्तों में से क्या बचा है। पर सिर्फ़ इन्हें सामने रखना भी असर करता है। इससे यूरोप द्वारा जमी हुई रूसी संपत्तियों को जब्त करने की कानूनी यात्रा उलझती है, और कीव के सामने यह कड़वी सच्चाई खड़ी होती है कि जिसे वह अपना सुरक्षा-गारंटर समझता था, वही अब एक ऐसी डील पर विचार कर रहा है जिसकी नींव में यूक्रेनी रियायतें हैं।
और अगर यह ढाँचा आगे बढ़ता है, तो अंत में मज़बूत कौन निकलेगा? रूस — और भी ऊँचा, और भी बड़ा, और भी साहसी।
एक दशक पहले की तस्वीर ज़रा याद कीजिए। 2014 में जब रूस ने क्रीमिया को हथिया लिया था, तब भी सतर्क ओबामा प्रशासन ने पाबंदियाँ लगाईं और कूटनीतिक दबाव बनाया। आज एक अमेरिकी राष्ट्रपति ऐसी शर्तों पर विचार कर रहा है जो ज़बरन सीमा-परिवर्तन को वैधता देती हैं — जो हमेशा से उत्तर-शीत-युद्ध व्यवस्था की लाल रेखा रही।
इसीलिए मौजूदा समय बहुत अस्थिर है। मामला सिर्फ़ किसी योजना या लीक हुए फोन कॉल की कहानी नहीं। यह अमेरिका द्वारा मॉस्को के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलने की प्रक्रिया है — वह भी उन तरीकों से जो दस साल पहले अकल्पनीय थे। दशकों तक वाशिंगटन की प्रवृत्ति एक ही थी — प्रतिरोध: सोवियत शक्ति का, रूसी विस्तार का, सीमाओं को बलपूर्वक बदलने की उसकी हर कोशिश का। यही वृत्ति नाटो को आकार देती थी, यूरोपीय सुरक्षा तय करती थी, और अमेरिकी कूटनीति की मनोवैज्ञानिक संरचना बनाती थी। लेकिन अब, बिना किसी घोषणा के, वह वृत्ति कमज़ोर होती दिख रही है।
योजना भी उल्लेखनीय है। इसे अमेरिकी विदेश मंत्री ने नहीं बल्कि पुतिन-निकट किरील दिमित्रिएव ने प्रभावित किया, और अमेरिकी तरफ़ से विटकॉफ़ और जारेड कुशनर ने। असली विदेश मंत्री मार्को रुबियो की भूमिका शुरुआती मसौदे में बेहद सीमित रही। बड़े कूटनीतिक ढाँचे को संस्थागत विशेषज्ञों की बजाय निजी वफ़ादारों को सौंपना नया नहीं, पर यह संकेत बहुत कुछ बताता है। यह सिर्फ़ विदेश नीति की शैली नहीं बदलता; यह विदेश नीति के उद्देश्य को ही बदलता है।
यहीं चिंता गहरी होती है। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में देश रणनीतिक बदलावों की घोषणा नहीं करते — वे अपने लहज़े, अपनी प्राथमिकताओं और अपने “सामान्यीकरण” के तरीकों से वे बदलाव प्रकट करते हैं। अमेरिका का रूस को लेकर बदलता रुख़ अभी नाटकीय नहीं, पर स्पष्ट है — लेन-देन की कूटनीति में सहजता, संस्थागत सीमाओं का धुंधलापन, और उन सिद्धांतों का क्षरण जो पश्चिमी गठबंधन की नींव थे।
और मान भी लें कि कोई यूक्रेन-हितैषी डील अमेरिका से निकल जाए तो रूस उसे नामंज़ूर कर देगा। और जो डील रूस को स्वीकार हो, उसे यूक्रेन की संसद ठुकरा देगी। यानी मौजूदा कूटनीति शांति से ज़्यादा किसी आने वाले संकट की प्रस्तावना लगती है।
महाशक्तियाँ बदलती हैं, यह स्वाभाविक है। पर दुनिया इस समय एक महाशक्ति को बिल्कुल अलग प्रवृत्तियाँ आज़माते हुए देख रही है। यह विचलन अस्थायी है या स्थायी, वही तय करेगा कि यूक्रेन का भविष्य क्या होगा — और वह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था कितनी टिकाऊ रहेगी जिसे अमेरिका ने खुद बनाया था और अब शायद संशोधित करने को तैयार दिखता है।
और दुनिया का बड़ा सवाल कुछ और है: अगर अमेरिका रूस को अब रणनीतिक चुनौती की तरह नहीं देखता, तो उस बहुपक्षीय परियोजना का क्या होता है जो इसी स्पष्टता पर टिकी थी?
तीन दशकों तक उत्तर-शीत-युद्ध व्यवस्था एक सरल धारणा पर चलती रही — कि कुछ मानक अपरिवर्तनीय हैं, और अमेरिका, चाहे जितना विवादित हो, उन्हें लागू करेगा।
अगर वह धारणा अब कमज़ोर पड़ रही है, तो हम सिर्फ़ यूएस–रूस संबंधों में बदलाव नहीं देख रहे। हम अंतरराष्ट्रीय राजनीति के मूल “व्यवस्थागत तर्क” में बदलाव देख रहे हैं।
उसे क्या प्रतिस्थापित करेगा — वही तय करेगा कि यूक्रेन का भाग्य क्या होगा, और क्या वह पूरा ढांचा टिक पाएगा जो निरोध, गठबंधन और इस विश्वास पर टिका था कि महाशक्तियाँ सिर्फ़ अपनी सुविधा नहीं, बल्कि व्यवस्था की रक्षा भी करती हैं।


