नीतीश कुमार एनडीए में हैं और भाजपा ने उनके साथ सीट बंटवारे में 16 और 17 सीट का फॉर्मूला फाइनल किया है। जनता दल यू 16 सीट पर और भाजपा 17 सीट पर लड़ेगी। इतने सद्भाव के बावजूद ऐसा लग रहा है कि नीतीश कुमार को फिर से मुश्किल हो सकती है।
पहले तो भाजपा ने नीतीश को किशनगंज सीट दे दी, जहां वे पिछली बार भी हारे थे। पिछली बार ओवैसी के उम्मीदवार ने तीन लाख के करीब वोट काट लिए थे, तब नीतश के उम्मीदवार की हार का अंतर 34 हजार था। इस बार अंतर ज्यादा का हो सकता है।
दूसरे, 2020 के विधानसभा चुनाव में भी नीतीश मुख्यमंत्री थे और भाजपा के साथ गठबंधन में थे। उस चुनाव में एक योजना के तहत चिराग पासवान अलग हो गए और उन्होंने सिर्फ नीतीश की पार्टी के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतारे। इसका नतीजा यह हुआ है कि 70 सीट वाली जनता दल यू सिर्फ 43 सीट जीत पाई, जबकि 53 सीट वाली भाजपा 75 सीट पर पहुंच गई। नीतीश उस धोखे से बहुत तिलमिलाए थे और उन्होंने चिराग की पार्टी में विभाजन करा कर इसका बदला लिया था।
इस बार चिराग पासवान भी एनडीए में हैं लेकिन नीतीश की पार्टी को दोनों सहयोगी पार्टियों यानी भाजपा और चिराग वाली लोजपा से भितरघात का खतरा है। चिराग के साथ उनकी कड़वाहट इतनी ज्यादा है कि चिराग के समर्थक पासवान मतदाता गांठ बांधे हुए हैं कि नीतीश को हरवाना है। यह भी ध्यान रखने की बात है कि बिहार के गठबंधन में हर बार नीतीश अपना वोट सहयोगी को ट्रांसफर करा देते हैं लेकिन सहयोगी अपना पूरा वोट उनको ट्रांसफर नहीं करा पाते हैं।
तभी हर बार उनकी स्ट्राइक रेट सहयोगियों से कम होती है। 2015 के विधानसभा चुनाव में राजद और जदयू दोनों एक-एक सौ सीटों पर लड़े थे पर राजद को 80 सीट मिली, जबकि जदयू सिर्फ 71 सीटों पर रही। यानी राजद का स्ट्राइक रेट 80 फीसदी और जदयू का 71 फीसदी। उससे पहले 2010 में भाजपा एक सौ सीटों पर लड़ कर 91 जीती, जबकि नीतीश 143 लड़ कर 116 जीते। यानी जदयू का स्ट्राइक रेट 83 फीसदी और भाजपा का 91 फीसदी। इसका मतलब है कि सहयोगी चाहे भाजपा हो या राजद, उसका सौ फीसदी वोट नीतीश को नहीं मिलता है।