कांग्रेस पार्टी के संगठन में बदलाव की शुरुआत हो गई है। ऐसा लग रहा है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को खास कर राहुल गांधी को दक्षिण भारत के नेताओं पर ज्यादा यकीन है। यह सही है कि भाजपा उत्तर भारत में सिर्फ एक छोटे से राज्य हिमाचल प्रदेश में सत्ता में है और दक्षिण भारत के दो बड़े राज्यों कर्नाटक और तेलंगाना में उसकी सरकार है। इसके अलावा तमिलनाडु में वह सरकार में हिस्सेदार है और अगले साल सब ठीक रहा तो केरल में भी उसकी सरकार बन सकती है। परंतु क्या सिर्फ इस वजह से उत्तर भारत की राजनीति की कमान भी दक्षिण भारत के नेताओं के हाथ में सौंप देने की रणनीति अच्छी मानी जाएगी? दक्षिण भारत में भी राहुल कर्नाटक के नेताओं पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान हैं। यह उनकी मेहरबानी है या राष्ट्रीय अध्यक्ष की विशेष कृपा अपने गृह राज्य पर है?
ध्यान रहे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे कर्नाटक के हैं और पार्टी के सर्वशक्तिशाली संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल केरल के हैं। पार्टी में सारे फैसलों में इन दो नेताओं की ही चलती है। अब कांग्रेस ने दो राष्ट्रीय महासचिव बनाए हैं। एक तो भूपेश बघेल हैं, जो छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रहे हैं और चुनावी राजनीति में उनका ट्रैक रिकॉर्ड बहुत खराब रहा है। वे छत्तीसगढ़ में भी सारा हालात अनुकूल होने के बावजूद कांग्रेस की सत्ता में वापसी नहीं करा पाए और असम से लेकर महाराष्ट्र तक जहां भी चुनाव में भेजे गए वहां पार्टी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। दूसरे महासचिव सैयद नासिर हुसैन हैं। उनकी योग्यता यह है कि वे कर्नाटक से आते हैं और मल्लिकार्जुन खड़गे के करीबी हैं। इसलिए वे दूसरी बार राज्यसभा भेजे गए और अब उनको महासचिव बना कर जम्मू कश्मीर और लद्दाख का प्रभारी बनाया गया है।
कर्नाटक के दो और नेता संगठन की फेरबदल में आगे लाए गए हैं। बरसों से राजनीतिक बियाबान में भटक रहे बीके हरिप्रसाद को हरियाणा का प्रभारी बनाया गया है। एक समय वे कांग्रेस में पिछड़ी जाति की राजनीति का चेहरा माने जाते थे। 70 साल के हरिप्रसाद कर्नाटक में एमएलसी हैं। कर्नाटक के दूसरे नेता कृष्णा अलावुरू हैं, जिनको बिहार का प्रभारी बनाया गया है। वे यूथ कांग्रेस का काम देख रहे थे। आंध्र प्रदेश के रहने वाले पूर्व आईएएस अधिकारी के राजू को झारखंड का प्रभारी बनाया गया है। आईएएस की नौकरी से सेवानिवृत्ति लेकर वे काफी समय से कांग्रेस के लिए काम कर रहे हैं। चाहे कृष्णा आलावुरू हों या के राजू इनकी योग्यता, क्षमता या निष्ठा पर कोई सवाल उठाए बगैर यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि इनको बिहार और झारखंड भेजने के पीछे क्या सोच है? ये दोनों गैर हिंदी भाषी हैं और बिहार व झारखंड की दर्जनों बोलियों से बिल्कुल अपरिचित हैं। बिहार और झारखंड के भूगोल से लेकर वहां के राजनीतिक मुहावरे और जमीनी समीकरण, जातीय राजनीति आदि किसी से ये परिचित नहीं हैं। ऊपर से बिहार में इसी साल चुनाव हैं। चुनावी साल में प्रभारी बदल कर कांग्रेस ने कोई मास्टरस्ट्रोक नहीं चला है। इसी तरह कई फैसलों का कोई स्पष्ट राजनीतिक कारण नहीं दिखाई दे रहा है। मिसाल के तौर पर अजय सिंह लल्लू उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष पद से हटाए गए तो उनको अब ओडिशा भेजने का क्या मतलब है और हर्ष चौधरी जब पंजाब में कामयाब नहीं रहे तो उनको मध्य प्रदेश का प्रभारी बनाने का क्या मतलब है?