अब यह लगभग तय माना जा रहा है कि विपक्षी गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री पद के लिए किसी नेता का चेहरा पेश नहीं किया जाएगा। हालांकि ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल सहित कुछ नेता इसके लिए दबाव बनाते रहेंगे लेकिन कांग्रेस को इन दोनों नेताओं का गेमप्लान समझ में आ रहा है। और भी नेता, जो पहले से कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए का हिस्सा हैं वे भी इस खेल को समझ गए हैं। तभी उन्होंने अलग अलग तरीके से अपनी असहमति जता दी है। कुछ नेताओं ने इशारों में असहमति जताई है, कुछ चुप रह कर असहमत हुए हैं और कुछ नेताओं ने खुल कर इसका विरोध किया है। कांग्रेस ने तो उसी समय इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया और कहा कि पहले चुनाव जीता जाए, फिर नाम तय होगा।
विपक्ष की ओर से किसी समय प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार रहे एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने भी खुल कर इसका विरोध कर दिया है। उन्होंने कहा कि विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करने की कोई जरुरत नहीं है। वे इसके खतरे को समझ रहे हैं। अगर कोई चेहरा घोषित कर दिया जाता है तो अगले साल अप्रैल-मई में होने वाले लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में पवार की लड़ाई मुश्किल हो जाएगी। पिछले लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस का एक और शरद पवार की पार्टी के पांच सांसद इस वजह से जीते थे क्योंकि मराठा मतदाताओं को उम्मीद थी कि अगर त्रिशंकु लोकसभा होगी तो शरद पवार भी प्रधानमंत्री हो सकते हैं। विपक्षी गठबंधन की ओर से जैसे ही किसी का नाम घोषित होगा, यह संभावना खत्म हो जाएगी और तब पवार को नुकसान हो जाएगा।
अखिलेश यादव ने चुप्पी साध कर इसका विरोध किया। बैठक के तुरंत बाद मीडिया ने उनसे इस बारे में सवाल पूछा तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। वे अपने प्रदेश के दलित मतदाताओं, खासकर मायावती के समर्थकों को नाराज नहीं करना चाहते हैं। उधर बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी अलग नाराज हैं। हालांकि नीतीश खुद बार बार कह रहे हैं कि वे नाराज नहीं हैं और उनको कोई पद नहीं चाहिए। लेकिन उनकी पार्टी कई बार खुल कर कह चुकी है कि नीतीश को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाया जाए। जदयू नेता उनको विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ का संयोजक बनाने की मांग भी करते रहे हैं।
असल में उत्तर भारत के ज्यादातर नेता मल्लिकार्जुन खड़गे के प्रति पूरा सम्मान रखने के बावजूद इस पक्ष में नहीं हैं कि उनके नाम पर चुनाव लड़ा जाए। उनको लग रहा है कि इसका कोई फायदा उनके राज्य में नहीं होगा। उलटे नुकसान की संभावना ज्यादा है। हर नेता अपने नाम का विकल्प खुला रखना चाहता है। ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल को भी पता है कि उनका यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया जाएगा। फिर भी गांधी परिवार को बैकफुट पर रखने के लिए उन्होंने यह दांव चल दिया।