चुनाव आयोग ने बिहार की मतदाता सूची से हटाए गए 65 लाख नामों की अलग से सूची जारी करने से इनकार कर दिया है। आयोग ने एक हलफनामा देकर सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि इसकी जरुरत नहीं है और आयोग कानूनी रूप से इसके लिए बाध्य नहीं है। चुनाव आयोग ने जन प्रतिनिधित्व कानून 1950 और मतदाता पंजीकरण नियम 1960 का हवाला देकर यह बात कही है। अब अगर सुप्रीम कोर्ट स्पष्ट आदेश दे कि चुनाव आयोग को हटाए गए 65 लाख नामों की सूची जारी करनी होगी, तब अलग बात है अन्यथा यह तय है कि आयोग ये नाम नहीं जारी करेगा। तभी सवाल है कि विपक्षी पार्टियों को इस नाम की सूची क्यों चाहिए और सूची नहीं मिलने पर विपक्ष क्या करेगा?
विपक्षी पार्टियों का कहना है कि अगर 65 लाख नामों की सूची जारी नहीं हुई तो कैसे पता चलेगा कि किसका नाम कटा है? यह बेमानी सवाल है क्योंकि जिसका नाम कटा है उसमें बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिनकी मृत्यु हो गई है और उनके परिजनों को पता चल गया है कि उनके मृत पूर्वज का नाम कट गया। इसी तरह स्थायी रूप से शिफ्ट कर गए लोगों को भी पता चल गया है कि उनका नाम कट गया है। उनको मसौदा मतदाता सूची जारी होने से पहले ही पता चल गया था क्योंकि उन्होंने मतगणना प्रपत्र जमा नहीं कराया। तीसरी श्रेणी ऐसे लोगों की है, जिनके नाम दो जगह थे। तो उनको भी पहले से पता है कि एक जगह नाम कट जाएगा। इसका मतलब है कि जिनके नाम कटे हैं उनके परिजनों को या उनको पता चल गया है कि नाम कट गया है। अगर उनको इससे शिकायत है तो वे आयोग के सामने आपत्ति दर्ज करा रहे हैं। अभी तक किसी ने पार्टियों के सामने गुहार नहीं लगाई है कि उनका नाम कट गया है और आयोग सुनवाई नहीं कर रहा है। तभी ऐसा लग रहा है कि पार्टियां एक जगह सूची इसलिए चाह रही हैं ताकि कटे हुए नामों के आधार पर जाति और धर्म का नैरेटिव बना सकें। भले नाम वस्तुनिष्ठ तरीके से कटे हों लेकिन यह नैरेटिव तो बन ही सकता है।