Poverty

  • झूठी कहानियों का सहारा कब तक?

    “भारत दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश है और साथ ही सबसे ज्यादा विषम भी। हमारे ताजा पेपर (शोध पत्र) के मुताबिक पिछले एक दशक में आबादी के टॉप एक फीसदी हिस्से का धन तेजी से बढ़ा है, जबकि नीचे की आधी आबादी का हिस्सा बेहद कम बना हुआ है। अच्छे दिन आए हैं, लेकिन अधिकांशतः ऐसा धनी लोगों के लिए ही हुआ है।”।।।।“(नरेंद्र) मोदी ने भारत में गैर-बराबरी बढ़ने की रफ्तार तेज कर दी है। साथ ही उन्होंने लोकतांत्रिक पड़ताल के लिए आवश्यक डेटा को खत्म कर दिया है। अब हम फिर से टुकड़ों को जोड़ कर ये...

  • बैंक खाते के बावजूद

    गरीब एवं निम्न आय वर्गों का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी ऋण के लिए माइक्रोफाइनेंस संस्थाओं या स्थानीय साहूकारों पर निर्भर है। दरअसल, हाल में ये निर्भरता और बढ़ी है। साथ ही लोन डिफॉल्ट के मामले भी बढ़े हैं। निर्विवाद रूप से भारत में सबका बैंक खाता खुलवाने का अभियान सफल रहा है। आज देश की 96 फीसदी आबादी की पहुंच बैंक खातों तक है। मगर बैंक में खाते होने का यह अर्थ नहीं है कि सभी लोगों को बैंकिंग सेवाएं भी मिल रही हों। ताजा रिपोर्टों के मुताबिक भारत के गरीब एवं निम्न आय वर्गों का बहुत बड़ा हिस्सा...

  • उपलब्धि है या नाकामी?

    दो तिहाई आबादी की रोजमर्रा की जिंदगी सरकारी अनाज या कैश ट्रांसफर से चलती हो, तो क्या किसी सरकार को इसे अपनी उपलब्धि बताना चाहिए? या इसे भारत की राष्ट्रीय परियोजना की घोर नाकामी का सबूत माना जाएगा? केंद्रीय श्रम मंत्री मनसुख मंडाविया ने विश्व श्रम संगठन (आईएलओ) की बैठक में गर्व से बताया कि भारत सरकार आज 94 करोड़ यानी अपने 64.3 प्रतिशत नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा दे रही है। मंडाविया के मुताबिक 2019 तक सिर्फ 24.4 प्रतिशत नागरिकों को ऐसी सुरक्षा प्राप्त थी। स्पष्टतः 40 फीसदी नए लोगों जो सामाजिक सुरक्षा मिली, वह हर महीने पांच किलोग्राम मुफ्त...

  • आंकड़ों का फेर है

    गरीबी के आंकड़ों में (हेर)फेर से क्या वंचित लोगों की जिंदगी बदल जाएगी? क्या जिस बुनियादी अभाव एवं असुरक्षाओं में वे जीते हैं, उनमें सुधार हो जाएगा? मगर आंकड़े बनाने वालों का वह मकसद भी नहीं है। विश्व बैंक ने बीते हफ्ते गरीबी मापने के अपने पैमाने को “अपडेट” किया। पहले पैमाना थाः 2017 की परचेजिंग पॉवर पैरिटी (पीपीपी) आधारित प्रति दिन 2.15 डॉलर खर्च क्षमता। अब 2021 की पीपीपी के आधार पर रोजाना खर्च क्षमता को तीन डॉलर कर दिया गया है। इसका परिणाम हुआ कि पहले जहां दुनिया की नौ प्रतिशत आबादी गरीब समझी जाती थी, अब ये...

  • आंकड़ों का मकड़जाल है

    भारत सरकार के तमाम आंकड़े अपने-आप में विवादित रहे हैं। वैसे विश्व बैंक ने नव-उदारवादी दौर में गरीबी मापने के लिए रोजाना खर्च क्षमता का जो पैमाना दुनिया भर में प्रचारित किया, वह अपने-आप में विवादास्पद रहा है। विश्व बैंक ने भारत में गरीबी के बारे में अपना आकलन जारी किया है। इससे आम सूरत यह उभरी है कि भारत में गरीबी घटी है। विश्व बैंक ने आधार भारत सरकार के उपभोग सर्वेक्षणों को बनाया है। 2011-12 और 2022-23 के घरेलू उपभोग खर्च सर्वेक्षण से प्राप्त आंकड़ों की तुलना करते हुए विश्व बैंक इस नतीजे पर पहुंचा कि उपरोक्त दशक...

  • प्रति व्यक्ति आय और बीपीएल का आंकड़ा

    सुप्रीम कोर्ट ने एक बहुत मार्के की बात कही है। सर्वोच्च अदालत ने राज्यों की प्रति व्यक्ति आय और उन राज्यों में गरीबी रेखा से नीचे की आबादी की दिलचस्प तुलना की है। इस तुलना में कई बहुत हैरान करने वाले आंकड़े सामने आए हैं। जैसे प्रति व्यक्ति आय के मामले में गुजरात शीर्ष के राज्यों में है, जहां प्रति व्यक्ति सालाना आय 2.72 लाख रुपए है लेकिन उस राज्य की 83 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। सोचें, छह करोड़ की आबादी वाले गुजरात के बारे में, जिसका मॉडल दिखा कर नरेंद्र मोदी देश भर में चुनाव लड़े।...

  • गरीबी रेखा का यह कैसा फॉर्मूला है!

    भारत सरकार गरीबी रेखा का नया फॉर्मूला ले आई है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की सदस्य डॉ. शामिका रवि ने इसका ऐलान किया है। (india economy news ) उनका कहना है कि हर महीने शहरों में 1,410 रुपए और गांवों में 960 रुपए से कम खर्च करने वाला गरीब हैं। सोचें, यह कैसा फॉर्मूला है। सरकार कह रही है कि अगर शहरों में कोई व्यक्ति 42 रुपया रोज खर्च करने की स्थिति में है तो उसको गरीब नहीं माना जाएगा। देश के किसी भी शहर में 42 रुपया एक समय का खाना खाने के लिए भी पर्याप्त नहीं है।...

  • मध्य प्रदेश से 2028 तक गरीबी समाप्त करने का सरकार ने लिया संकल्प: मोहन यादव

    भोपाल। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव (Mohan Yadav) ने वर्ष 2028 तक गरीबी समाप्त करने का संकल्प लिया है। इसके लिए सरकार ने एक रोडमैप भी तैयार किया है, जिस पर अमल किया जाएगा। राज्य के नगरीय प्रशासन मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने मुख्यमंत्री मोहन यादव की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में लिए गए फैसलों की जानकारी देते हुए बताया कि राज्य में वर्ष 2028 तक गरीबी समाप्त करने का संकल्प लिया गया है। इसके लिए गरीब कल्याण मिशन-2028 (Garib Kalyan Mission-2028) का क्रियान्वयन किया जाएगा। इस मिशन का उद्देश्य राज्य में जितने भी गरीब और वंचित लोग...

  • गुलाबी तस्वीर का सच

    Unemployment poverty: आमदनी वाले आबादी के सर्वोच्च हिस्से के पास धन के संग्रहण और दूसरी ओर सबसे गरीब दस फीसदी आबादी के जारी संघर्ष का संदेश है कि नई नीतियों की जरूरत है। शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, सामाजिक सुरक्षा के लिए बड़े निवेश की आवश्यकता है। also read: स्टालिन के काम आ रहे हैं राज्यपाल रवि पिछले हफ्ते जारी दो सरकारी रिपोर्टों में देश की अर्थव्यवस्था की गुलाबी तस्वीर बुनी गई। भारतीय रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में रोजगार की स्थिति बेहतर होने का दावा किया गया। स्पष्टतः ये दावा रोजगार की नई गढ़ी गई परिभाषा पर आधारित है, जिसमें घरेलू कारोबार में...

  • गरीबी के मारे भारतीय

    poverty: सार यह कि भारतीय आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी गरीबी का मारा है। जबकि गरीबी मापने का विश्व बैंक का पैमाना खुद आलोचनाओं के केंद्र में रहा है। अनेक विशेषज्ञों ने इसे अति न्यूनतम पैमाना बताया है। also read: बहराइच हत्याकांड के दो आरोपी पुलिस मुठभेड़ में घायल भारत पर चरम गरीबी का पैमाना 6.85 डॉलर विश्व बैंक ने अपनी ताजा रिपोर्ट में माना है कि 2020 (यानी कोरोना काल) के बाद से भारत सहित दुनिया में गरीबी घटने की प्रक्रिया ठहर गई है। बैंक का ताजा आकलन है कि भारत में इस समय 12 करोड़ 90 लाख लोग...

  • ग्लोबल रैंकिंग्स में भारत

    मोदी सरकार को विश्वसनीय आंकड़ों से खास गुरेज है। दशकीय जनगणना तक उसकी प्राथमिकता में नहीं है, तो आंकड़ों के प्रति उसके अपमान भाव को सहज ही समझा जा सकता है। जबकि ऐसे आंकड़े सामने हों, तो रैंकिंग्स का सच-झूठ खुद जाहिर हो जाएगा।   पिछले हफ्ते ग्लोबल हंगर इंडेक्स जारी हुआ। हर साल की तरह भारत में यह राजनीतिक विवाद का मुद्दा बना। हालांकि इस बार भारत की रैंकिंग में कुछ सुधार दिखा- भारत 111वें से 105वें स्थान पर चला आया- मगर यह रैंक भी बहुत नीचे है, इसलिए यह इंडेक्स नरेंद्र मोदी सरकार को घेरने का फिर से औजार...

  • अर्थव्यवस्था में कुछ बुनियादी गड़बड़ है

    देश की अर्थव्यवस्था में कुछ बुनियादी गड़बड़ी है और इसे समझने के लिए बड़ा अर्थशास्त्री होने की जरुरत नहीं है। सिर्फ हाल की कुछ खबरों को एक साथ रख कर देखा जाए तब भी यह अंदाजा हो जाता है कि कुछ न कुछ तो गड़बड़ है। अन्यथा ऐसा नहीं होता कि मुनाफे का ढोल पीट रहे तमाम बैंकों के परेशान होने की खबर आए और शेयर बाजार में उछाल जारी रहे। या चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की विकास दर अनुमान से कम रहे और रिजर्व बैंक के गवर्नर को कहना पड़े कि...

  • हाल इतना बदहाल है!

    देश में लगभग 42 फीसदी आबादी इस हाल में नहीं है कि वह तीनों वक्त भोजन कर सके। इन लोगों को सुबह के नाश्ते या दोपहर और रात के भोजन में से किसी एक को छोड़ पड़ रहा है। कुछ समय पहले घरेलू उपभोग खर्च सर्वेक्षण की रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। यह सर्वे भारत सरकार की तरफ से कराया जाता है, इसलिए इससे सामने आए आंकड़ों को कम-से-कम आधिकारिक रूप से चुनौती नहीं दी जा सकती। आम चुनाव के प्रचार के समय उस सर्वे के कुछ सुविधाजनक आंकड़ों को खुद भारत सरकार ने प्रचारित किया था। लेकिन उसी रिपोर्ट में...

  • गलत दवा से इलाज

    बेरोजगारी जिस हद तक बढ़ गई है, उसके मद्देनजर समझा जा सकता है कि सरकारों पर इस समस्या को हल करते हुए दिखने का भारी दबाव है। मगर दिखावटी कदमों से इस गंभीर समस्या का समाधान संभव नहीं है। कर्नाटक सरकार ने एक विधेयक को मंजूरी दी है, जिसके पारित होने पर राज्य के बाशिंदों के लिए प्रबंधकीय नौकरियों में 50 प्रतिशत और गैर-प्रबंधकीय नौकरियों में 75 प्रतिशत आरक्षण हो जाएगा। बेरोजगारी जिस हद तक बढ़ गई है, उसके मद्देनजर समझा जा सकता है कि सरकारों पर इस समस्या को हल करते हुए दिखने का भारी दबाव है। मगर ऐसे...

  • चांद लाने जैसी बात

    चंद्र बाबू नायडू ने नायाब फॉर्मूला दिया है। सीआईआई) के एक समारोह में उन्होंने कहा कि अगर देश के सबसे धनी 10 फीसदी लोग सबसे गरीब 20 फीसदी लोगों को “गोद” ले लें, तो समस्या खुद हल हो जाएगी! गरीबों को पहले तो चंद्र बाबू नायडू का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि उन्होंने उनके वजूद से इनकार नहीं किया। जिस दौर में नीति आयोग जैसी सरकारी संस्थाओं और सरकार प्रायोजित विशेषज्ञों के बीच होड़ गरीबी का प्रतिशत कम-से-कम बताने की लगी हो, उन्होंने इतना तो माना कि भारत में लगभग 20 फीसदी आबादी अभी गरीबी रेखा के नीचे है। यह बात...

  • महंगाई कम दिखाने का नायाब नया तरीका

    केंद्र सरकार के पास हर कमी को ढक देने का कोई न कोई नुस्खा है। जैसे कोई बड़ी वैश्विक हस्ती आती है तो झुग्गी बस्तियों को दिवार खड़ी करके ढक दिया जाता है। उसी तरह महंगाई कम दिखाने का नायाब नुस्खा सरकार ने निकाल लिया है। अब हर बार आंकड़े में महंगाई कम दिखती है। लोग हैरान परेशान होते हैं कि महंगाई से उनकी जान निकल रही है और दूसरी ओर सरकार कह रही है कि महंगाई कम है। एक तरफ वस्तुओं और सेवाओं की कीमत आसमान छू रही है और दूसरी ओर सरकार के आंकड़ों में महंगाई दर लगातार...

  • भारतः अरबपति राज का उदय

    साल 1980 के आसपास विषमता अपने सबसे निचले स्तर पर थी। लेकिन उसके बाद ट्रेंड फिर पलट गया। 2015 के बाद से गैर-बराबरी में पहले से भी ज्यादा तेज गति से बढ़ोतरी हुई है। स्पष्टतः आज जो सूरत है, वह किसी संयोग की वजह से नहीं है। आम चुनाव से ठीक पहले पेरिस स्थित मशहूर इनइक्वैलिटी लैब ने भारत में तेजी से बढ़ी आय एवं धन की गैर-बराबरी के बारे में देशवासियों को आगाह किया है। विषमता को वैश्विक चर्चा के एजेंडे पर लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अर्थशास्त्रियों के इस मंच ने अपनी ताजा रिपोर्ट का शीर्षक ‘अरबपति...

  • हममें इंसानियत खत्म होती जा रही!

    घटना कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु की है जहां पर मेट्रो के सुरक्षाकर्मी ने एक बुजुर्ग यात्री को इसलिए ट्रेन में चढ़ने नहीं दिया क्योंकि उस बुजुर्ग किसान के कपड़े गंदे और पुराने दिखाई दे रहे थे। जब मेट्रो के सुरक्षाकर्मी की इस हरकत पर सह-यात्रियों ने आपत्ति जताई तो वहाँ पर हंगामा खड़ा हो गया और देखते ही देखते इस पूरे प्रकरण का वीडियो वायरल हुआ। मेट्रो सुरक्षाकर्मी की इस ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हरकत ने औपनिवेशिक काल की याद दिला कर फिर यह सवाल खड़ा कर दिया कि भारत के हम लोग ऐसे असंवेदनशील होते हुए कैसे हैं? humanity अंग्रेजों के शासन...

  • यह खुशहाली तो नहीं

    साल 2011-12 में सर्वेक्षण के लिए अपनाई गई विधि को 2022-23 के सर्वे में बदल दिया गया। इसलिए ताजा रिपोर्ट के बारे में यह तो कहा जाएगा कि यह आज की हकीकत को बताती है, मगर 2011-12 से उसकी तुलना करना तार्किक नहीं होगा। Indias household consumption  घरेलू उपभोग खर्च सर्वे की 2022-23 की रिपोर्ट से प्रथम दृष्टया यह धारणा बनती है कि 2011-12 की तुलना में ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में आम उपभोग खर्च बढ़ा है। लेकिन ये बात ध्यान में रखनी चाहिए कि 2011-12 में सर्वेक्षण के लिए अपनाई गई विधि को 2022-23 में हुए सर्वे में...

  • चुनावी मकसद से चर्चा?

    बहुआयामी गरीबी सूचकांक को एक पूरक पैमाना ही माना गया है। जबकि कैलोरी उपभोग की क्षमता एवं प्रति दिन खर्च क्षमता दुनिया में व्यापक रूप से मान्य कसौटियां हैं, जिन्हें अब भारत में सिरे से नजरअंदाज कर दिया गया है। नीति आयोग ने कई महीने जारी अपनी रिपोर्ट को संभवतः फिर से चर्चा में लाने के लिए ताजा एक डिस्कसन पेपर तैयार किया है। इसे- मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी इन इंडिया सिंस 2005-06 (भारत में 2005-06 के बाद से बहुआयामी गरीबी) नाम से जारी किया गया है। इसमें पहले वाली रिपोर्ट के इस निष्कर्ष को दोहराया गया है कि 2013-14 से 2022-23...

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