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जरूरी है प्रवासी मजदूरों की चिंता

migrant workers

तमिलनाडु में हिंदी भाषी मजदूरों पर अत्याचार और उनकी हत्या किए जाने की खबरें भले फर्जी निकलीं लेकिन इसी बहाने देश के सबसे विकसित राज्यों में से एक तमिलनाडु में बिहार और अन्य राज्यों के प्रवासी मजदूरों की समस्याओं का खुलासा भी हुआ। राज्य में वास्तव में कई जगह प्रवासी मजदूरों के साथ मारपीट हुई है। भाषा के अलावा मजदूरी के मसले पर प्रवासी मजदूरों के साथ मारपीट होने और काम से रोके जाने की खबरें भी इसी बहाने सामने आई हैं। यह संयोग है कि जिस समय तमिलनाडु में हिंदी भाषी मजदूरों के साथ मार-पीट का कथित वीडियो आया उसी समय कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू का भी एक वीडियो सोशल मीडिया में वायरल हुआ, जिसमें एक ऑटो ड्राइवर हिंदी बोलने वाली एक महिला के साथ बदतमीजी कर रहा है। ड्राइवर दावा कर रहा है कि कर्नाटक उसकी जमीन है और वहां आने वालों को कन्नड़ बोलना होगा। तमिलनाडु और कर्नाटक की घटनाएं अपवाद नहीं हैं, बल्कि प्रवासी मजदूरों की मुश्किल बताने वाली प्रतिनिधि घटनाएं हैं।

ध्यान रहे भारत सबसे ज्यादा घरेलू प्रवासियों वाला देश है। 140 करोड़ की आबादी वाले भारत में अंतरराज्यीय प्रवासी मजदूरों की संख्या 45.6 करोड़ है। यह आंकड़ा 12 साल पुराने 2011 की जनगणना के मुताबिक है। अभी तक 2021 में होने वाली जनगणना शुरू नहीं हुई है। इसी तरह देश के कुल वर्कफोर्स में करीब 13 फीसदी संख्या अंतरराज्यीय प्रवासी मजदूरों की है। अगर राज्य के भीतर होने वाले प्रवास को जोड़ें तो भारत का कुल 88 फीसदी मजदूर प्रवासी है। क्या इससे यह साबित नहीं होता है कि भारत में विकास की जो गाड़ी चल रही है उसे खींचने और चलाने वाले प्रवासी मजदूर हैं! इसके बावजूद उनके साथ जिस तरह का बरताव होता है, उनके कामकाज की जैसी स्थितियां होती हैं और उनको जितनी मजदूरी मिलती है वह सब बहुत भेदभाव वाला है और बहुत चिंता की बात है।

ध्यान रहे प्रवासी मजदूर किसी भी राज्य की अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभाते हैं और अपने मूल राज्य की अर्थव्यवस्था में भी योगदान करते हैं। जिस तरह से अंतरराष्ट्रीय प्रवासियों के भेजे पैसे से देश के कई राज्यों की अर्थव्यवस्था को बल मिलता है उसी तरह से अंतरराज्यीय प्रवासी मजदूरों के भेजे पैसे का भी राज्यों की अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान होता है। बिहार, उत्तर प्रदेश, ओड़िशा, राजस्थान आदि राज्यों की अर्थव्यवस्था में प्रवासी मजदूरों को भेजे पैसे का बड़ा योगदान है। दो राज्यों की अर्थव्यवस्था में योगदान दे रहा एक प्रवासी मजदूर किस पीड़ा से गुजरता है यह जानने समझने का कोई तंत्र भारत में नहीं है। सोशल मीडिया में अलग अलग घटनाओं के वायरल वीडियो प्रवासी मजदूरों को और असुरक्षित और आशंकित बनाते हैं। वैसे ही वे अपनी पहचान को लेकर आशंकित और घबराए रहते हैं। किसी भी राज्य में प्रवासी मजदूरों के साथ कोई घटना होती है तो उससे उनकी मानसिक परेशानी और बढ़ जाती है।

प्रवासी मजदूरों की इस स्थिति के लिए राज्यों की सरकारें और राजनीतिक व्यवस्था जिम्मेदार हैं। पहले माना जाता था कि ‘बीमारू’ राज्यों में विकास नहीं हुआ इसलिए उन राज्यों से दूसरे विकसित राज्यों में मजदूरों का पलायन होता है। अब भी यह स्थिति है लेकिन अब हकीकत यह है कि विकसित राज्यों में भी आर्थिक हालात बहुत अच्छे नहीं हैं और वहां भी बेरोजगारी की दर बहुत ऊंची है। यही कारण है कि स्थानीय लोगों को लगता है कि बाहर के मजदूर उनकी नौकरी ले रहे हैं। विकसित राज्यों के बेरोजगार युवा प्रवासी मजदूरों के खिलाफ हो जाते हैं, उन्हें संदेह की नजर से देखते हैं और जहां मौका मिलता है उनको प्रताड़ित व अपमानित करते हैं।

जब राज्यों में सरकारें अपने नागरिकों को अच्छी शिक्षा नहीं दे पाती हैं, कौशल विकास नहीं कर पाती हैं और रोजगार की व्यवस्था नहीं कर पाती हैं तो अपनी कमियों को छिपाने के लिए प्रवासी मजदूरों का बहाना बनाती हैं। कई राज्यों में स्थानीय लोगों के लिए रोजगार में आरक्षण का दांव भी चला गया है। राजनीतिक दलों से जुड़े संगठन ही प्रवासी मजदूरों पर हमले कराते हैं। धरती पुत्र का नारा लगाते हैं, रोजगार पर उनका पहला हक बताते हैं और प्रवासी मजदूरों के खिलाफ अभियान चलाते हैं। तमिलनाडु में एनटीके नेता सीमान का जहरीला भाषण पूरे देश ने सुना कि कैसे वह स्थानीय लोगों को बाहरी मजदूरों के खिलाफ भड़का रहा था। असल में यह एक किस्म का दुष्चक्र बन गया है, जिसमें प्रवासी मजदूर परेशान हो रहे हैं। वे कम वेतन में ज्यादा काम करते हैं और इस वजह से उद्योगों या कारोबार में उनकी पूछ ज्यादा होती है। स्थानीय मजदूरों को इससे भी परेशानी होती है। वे प्रवासी मजदूरों को कम मजदूरी में ज्यादा समय काम करने से रोकते हैं। कई जगह टकराव और हिंसा का कारण यह भी होता है।

प्रवासी मजदूरों की समस्या यही खत्म नहीं होती है। उनको व्यवस्थागत रूप से भी निशाना बनाया जाता है। उन्हें जान बूझकर सरकारी लाभ और सुविधाओं से वंचित किया जाता है। कहीं प्रत्यक्ष रूप से तो कहीं परोक्ष रूप से उनके साथ भेदभाव होता है। अपनी बाहरी पहचान की वजह से वे आसान टारगेट होते हैं। समाज में होने वाले हर अपराध का ठीकरा उनके ऊपर फोड़ा जाता है। चूंकि ज्यादातर प्रवासी मजदूर अकेले रहते हैं इसलिए भी वे आसान टारगेट होते हैं कि उनके ऊपर चोरी, हिंसा, हत्या, बलात्कार आदि के आरोप लगा दिए जाएं। इस बहाने पुलिस उनको अलग परेशान करती है। स्थानीय लोगों से अपने को बचाने के लिए प्रवासी मजदूरों के घेटो बनते हैं। वे एक जगह अपने लोगों के साथ रहने की कोशिश करते हैं।

इन समस्याओं को देखते हुए सबसे पहले प्रवासी मजदूरों की गिनती और उनका सर्वेक्षण कराने की जरूरत है। किस राज्य में कितने प्रवासी मजदूर हैं, वे मूल रूप से कहां के रहने वाले हैं और किस सेक्टर में काम करते हैं इसका वास्तविक आंकड़ा सरकार के पास होना चाहिए। अगर केंद्र सरकार किसी राजनीतिक कारण से जनगणना नहीं कराना चाहती है तो उसे प्रवासी मजदूरों का ही सर्वेक्षण कराना चाहिए और उनकी समस्याओं की पहचान करनी चाहिए। सरकार राष्ट्रीय प्रवासी मजदूर नीति बनाने वाली है। उसके मसौदा दस्तावेज में सारे वास्तविक और अद्यतन आंकड़े होने चाहिए। उसके बगैर कोई भी नीति कारगर नहीं हो सकती है। इसके अलावा सभी राज्यों को चाहिए कि वे प्रवासी मजदूरों को उनके कानूनी अधिकारों के बारे में बताएं, उन्हें जागरूक करें। साथ ही पुलिस और प्रशासन को भी प्रवासी मजदूरों के प्रति संवेदनशील बनाना होगा। यह तभी संभव है, जब सरकारें और राजनीतिक व्यवस्था अपनी कमी छिपाने और समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए प्रवासी मजदूरों पर ठीकरा फोड़ना बंद करें।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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