कॉमनवेल्थ घोटाले का मुकदमा भी ढह गया है। कहा जा सकता है कि जांच एजेंसियों और लेट-लतीफ न्याय व्यवस्था की खामी के कारण ऐसा हुआ है। मगर 15 साल बाद भी व्यवस्था नहीं सुधारी, तो उसके लिए दोषी कौन है?
कॉमनवेल्थ खेल घोटाले का मुकदमा भी ढह गया है। दिल्ली की एक अदालत ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की मुकदमा बंद करने की रिपोर्ट स्वीकार कर ली है। यह कथित घोटाला उस कथानक का एक बड़ा पहलू था, जिसको लेकर 2010-11 में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खड़ा किया गया। 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला, कोयला खदान आवंटन घोटाला और मुंबई की आदर्श हाउजिंग सोसायटी घोटाला इसके अन्य पहलू थे। तत्कालीन यूपीए सरकार ने उन सभी मामलों में कानूनी प्रावधानों के अनुरूप कार्रवाई की। सत्ता पक्ष से जुड़े कई नेताओं को अपने पद छोड़ने पड़े। कुछ को जेल की हवा भी खानी पड़ी।
जो नेता जेल गए, उनमें सुरेश कलमाडी भी थे, जो कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका के कारण घेरे में आए थे। मगर तत्कालीन सरकार की कार्रवाइयों को अविश्वसनीय बताने का ऐसा जोरदार अभियान छेड़ा गया कि मनमोहन सिंह सरकार और कांग्रेस पार्टी की छवि खलनायक की बन गई। अन्ना आंदोलन और उसके गर्भ से निकली आम आदमी पार्टी उस आंदोलन के मूर्त रूप थे। लेकिन उसके पीछे बड़े सियासी और औद्योगिक हितों के हाथ की चर्चा तब से लेकर आज तक रही है। भारत के इतिहास में जब विवेकहीनता के मौजूदा माहौल की चर्चा होगी, तो इसकी जड़ों की तलाश उसी दौर में की जाएगी।
तब “भ्रष्टाचारियों” को सरेआम फांसी पर लटकाने की मांग को लेकर उभारे गए जन उद्वेग ने आगे चल कर अन्य मसलों पर भी उसी तरह का माहौल बनाने का रास्ता साफ किया। जबकि न्यायिक धरातल पर उन कथित घोटालों से जुड़े एक के बाद एक मुकदमे ढहते चले गए। तब जिन्हें “भ्रष्टाचारी” मान लिया गया था, उनमें से ज्यादातर अब बरी हो गए हैँ। कहा जा सकता है कि यह जांच एजेंसियों और लेट-लतीफ न्याय व्यवस्था की खामी है, जिससे इल्जाम साबित नहीं हो पाए। मगर मुद्दा यह है कि 15 साल बाद भी इस व्यवस्था में कोई सुधार नहीं हुआ और आरोपी बरी हो गए, तो उसके लिए दोषी कौन है? और उससे भी बड़ा सवाल यह है कि जो आक्रोश और उद्वेग उस समय दिखा, वह आज क्यों गायब हो गया है?