Wednesday

25-06-2025 Vol 19

निर्विरोध चुनाव पर रोक लगनी चाहिए

185 Views

पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में 12 साल के बाद ऐसा हुआ कि एक सीट पर निर्विरोध निर्वाचन हुआ। 12 साल पहले जून 2012 में उत्तर प्रदेश की कन्नौज सीट के उपचुनाव में समाजवादी पार्टी की डिंपल यादव निर्विरोध चुनाव जीती थीं। उसके 12 साल बाद अप्रैल 2024 में गुजरात की सूरत सीट पर भाजपा के उम्मीदवार महेश कुमार दलाल निर्विरोध चुने गए। ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि कांग्रेस के उम्मीदवार नीलेश कुंभानी का परचा रद्द हो गया। निर्वाचन अधिकारी को शिकायत मिली की उनके प्रस्तावकों के दस्तखत फर्जी हैं। कांग्रेस ने कवरिंग कैंडिडेट के तौर पर सुरेश पडसाला को उम्मीदवार बनाया था लेकिन उनका भी नामांकन इसी आधार पर खारिज हो गया कि प्रस्तावों के दस्तखत गलत हैं। उस समय यह भी खबर आई थी कि जान बूझकर ऐसे प्रस्तावक बनाए गए थे और यह पूरा खेल पहले से सजाया गया था ताकि कांग्रेस चुनाव नहीं लड़ सके। कांग्रेस उम्मीदवार का परचा खारिज होने के बाद बाकी उम्मीदवारों ने नाम वापस ले लिए और मुकेश दलाल निर्विरोध जीत गए। मध्य प्रदेश की इंदौर सीट पर भी यह खेल दोहराने की तैयारी थी। कांग्रेस के उम्मीदवार अक्षय कांति बम ने अपना नाम वापस ले लिया था। लेकिन समय रहते बाकी उम्मीदवारों के नाम वापस नहीं कराए जा सके इसलिए मतदान की नौबत आ गई। कमोबेश ऐसी ही कहानी खजुराहो सीट पर भी ‘इंडिया’ ब्लॉक के साथ दोहराई गई।

लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे के कोई एक साल के बाद निर्विरोध चुनाव का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा है। कानून के क्षेत्र में काम करने वाले थिंकटैंक विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी ने जन प्रतिनिधित्व कानून,1951 की धारा 53 (2) की संवैधानिकता पर सवाल उठाया है। इस धारा में यह प्रावधान है कि जितनी सीट खाली है, अगर उतने ही उम्मीदवार मैदान में हैं तो चुनाव अधिकारी उनको निर्विरोध निर्वाचित घोषित कर देगा। यह मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने आया तो उसने केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया और चार हफ्ते में जवाब मांगा है। मई में इस मामले की सुनवाई हो सकती है। इस याचिका के जरिए यह अहम सवाल सर्वोच्च अदालत के सामने उठाया गया है कि क्या निर्विरोध निर्वाचन संविधान के अनुरूप है और नोटा यानी ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प शामिल करने के बाद क्या यह जरूरी नहीं है कि उम्मीदवार को कम से कम नोटा से ज्यादा वोट मिलें?

यह सवाल इसलिए अहम है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने नोटा के विकल्प की संवैधानिकता को न सिर्फ स्वीकार किया है, बल्कि इसे मौलिक अधिकार का हिस्सा माना है। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम भारत सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में यह फैसला सुनाया था। इसलिए नोटा की उपस्थिति को खारिज नहीं किया जा सकता है। जब नोटा का विकल्प नहीं था, तब की बात अलग थी। हालांकि तब भी मतदाताओं को अपना सांसद या विधायक चुनने से वंचित करना लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं था। परंतु उस समय इसे चुनौती नहीं दी गई थी। तभी 1951 के पहले लोकसभा चुनाव से लेकर 2024 के 18वें लोकसभा चुनाव तक 30 से ज्यादा सांसद निर्विरोध निर्वाचित हुए हैं। अगर विधानसभाओं की बात करें तो उसकी संख्या बहुत बड़ी है। अब भी पूर्वोत्तर के कई राज्यों में विधानसभा चुनाव में बड़ी संख्या में विधायक निर्विरोध निर्वाचित हो रहे हैं।

असल में निर्विरोध निर्वाचन मतदाताओं को वोट देने के उनके अधिकार से वंचित करता है। ध्यान रहे मतदाता किसी के निर्विरोध निर्वाचन का फैसला नहीं करते हैं। यह फैसला पार्टियां करती हैं, उम्मीदवार करते हैं या निर्वाचन अधिकारी करते हैं। किसी उम्मीदवार ने नाम वापस लिया या किसी का परचा रद्द हुआ इससे आम लोगों का कोई लेना देना नहीं होता है। तभी उनको उनके वोट देने के अधिकार से कैसे वंचित किया जा सकता है? हो सकता है कि सबके नाम वापस लेने या सबका परचा रद्द होने के बाद जो एक व्यक्ति बचा है उसको जनता पसंद नहीं करती हो, ऐसे में अगर मतदान नहीं होगा तो जनता की राय कैसे पता चलेगी? एक सवाल यह भी है कि निर्विरोध निर्वाचित सांसद या विधायक को जनता का प्रतिनिधि कैसे माना जाएगा, जबकि जनता ने उसके लिए मतदान ही नहीं किया है? यह तो उन चुनिंदा लोगों का फैसला हुआ, जो चुनाव मैदान में उतरे थे लेकिन मतदान से पहले पीछे हट गए। जो पीछे हटे वे भी जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे थे। वह उनकी इच्छा या मजबूरी थी, जो वे पीछे हट गए। इसलिए यह लोकतंत्र में वोट देने के नागरिक के मौलिक अधिकार से जुड़ा एक अहम सवाल है, जिस पर निश्चित रूप से विचार होना चाहिए।

मुश्किल यह है कि भारत का चुनाव आयोग पहले ही ऐसे तमाम मामलों को खारिज करने के लिए सामने आ जाता है। इस मामले में भी चुनाव आयोग ने हलफनामा देकर निर्विरोध निर्वाचन का बचाव किया है। उसने कहा है कि आजादी के बाद से चुने गए निर्विरोध सांसदों की संख्या बहुत मामूली है और पिछले तीन दशक में सिर्फ एक व्यक्ति लोकसभा में निर्विरोध चुन कर गया है। शायद आयोग का इशारा 2012 के कन्नौज उपचुनाव की ओर था, जिसमें डिंपल यादव निर्विरोध जीती थीं। लेकिन उससे पहले 1989 में श्रीनगर सीट पर नेशनल कॉन्फ्रेंस के मोहम्मद शफी भट्ट निर्विरोध जीते थे और 1980 में उसी सीट पर फारूक अब्दुल्ला भी निर्विरोध जीते थे। पिछले चुनाव में सूरत सीट पर मुकेश दलाल निर्विरोध जीते। विधानसभा चुनाव में सिक्किम से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक अनेक लोग मतदान से पहले ही निर्विरोध चुन लिए गए। बहरहाल, चुनाव आयोग का कहना है कि लोकसभा चुनाव में किसी के निर्विरोध चुने जाने की संभावना बहुत कम है इसलिए कानून में बदलाव की जरुरत नहीं है। उसका दूसरा अजीबोगरीब तर्क यह है कि नोटा स्वतः हर चुनाव में एक उम्मीदवार नहीं होता है। इसका क्या मतलब है? अगर एक भी उम्मीदवार चुनाव मैदान में है तो फिर नोटा स्वतः उम्मीदवार होगा क्योंकि इसकी परिकल्पना इस हिसाब से की गई है कि जिनको कोई उम्मीदवार पसंद नहीं है वे नोटा को वोट दे सकें। इस लिहाज से उम्मीदवार चाहे तीन दर्जन हों या एक हो उसे खारिज करने या नापसंद करने का अधिकार मतदाताओं के पास है।

इस बात को सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने हिसाब से विश्लेषित किया है। सर्वोच्च अदालत ने सरकार को इस पर विचार के लिए कहा है। अदालत ने कहा है कि आज यह कोई समस्या नहीं दिख रही है लेकिन भविष्य में यह समस्या बन सकती है और उसका समाधान निकालने की जरुरत पड़ सकती है। सर्वोच्च अदालत ने सवालिया लहजे में कहा कि हमारे लोकतंत्र का आधार बहुमत है ऐसे में कैसे किसी को बाई डिफॉल्ट संसद में प्रवेश की इजाजत दी जा सकती है, जिसे पांच फीसदी भी लोकप्रिय वोट नहीं मिले हों? यह सवाल बहुत जायज है क्योंकि निर्विरोध जीतने वाला किसी भी मतदाता का प्रतिनिधि नहीं होता है। वह अकेले मैदान में बच गया था इसका यह मतलब नहीं है कि वह सौ फीसदी मतदाताओं की पसंद हो गया। चुनाव आयोग और केंद्र सरकार दोनों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और मतदाताओं को उनके मताधिकार से वंचित करने वाले इस प्रावधान को बदलना चाहिए। यह सुनिश्चित करना चाहिए कि चुनाव मैदान में एक ही उम्मीदवार बचे तब भी मतदान हो और उस अकेले उम्मीदवार को एक निश्चित प्रतिशत में वोट मिले, जो अनिवार्य रूप से नोटा से ज्यादा हो। अगर सर्वोच्च अदालत कोई निर्देश दे ठीक है नहीं तो सरकार संसद से भी कानून बना सकती है। यह भी ध्यान रखना चाहिए सूरत, इंदौर या खजुराहो की घटना संयोग नहीं प्रयोग हो सकती है। आने वाले दिनों में इसे ज्यादा से ज्यादा सीटों पर दोहराया जा सकता है। इस प्रयोग का फायदा हमेशा सत्ता में रहने और उसका दुरुपयोग करने के लिए तैयार रहने वाली पार्टियां उठा सकती हैं। तभी पहले से सुधार का प्रयास शुरू हो जाना चाहिए।

अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *