नरेंद्र मोदी सरकार के 11 साल पूरे होने के मौके पर भारतीय जनता पार्टी की प्रेस कॉन्फ्रेंस में सरकार की उपलब्धियां बताते हुए पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा कि मोदी ने देश की राजनीतिक संस्कृति बदल दी है। उन्होंने दावा किया कि नरेंद्र मोदी ने तुष्टिकऱण की राजनीति खत्म करके जवाबदेही, पारदर्शिता और विकास की राजनीति शुरू की है। बाकी और भी बहुत सी बातें उन्होंने कहीं, जो वैसे भी बरसों से कही जा रही हैं। लेकिन उसमें ध्यान खींचने वाली बात राजनीतिक संस्कृति बदलने की थी। सचमुच भारत की राजनीतिक संस्कृति पिछले 11 साल में बहुत बदल गई है। जिन लोगों ने इन 11 वर्षों से पहले की राजनीतिक संस्कृति देखी है वे तुलनात्मक अध्ययन करके बता सकते हैं कि कितना कुछ बदल गया है। राजनीति में अंतर्निहित समावेशिता समाप्त हो गई है। आपसी सद्भाव के लिए कोई जगह नहीं बची है। दलगत निष्ठा से परे राजनीतिक शिष्टाचार का स्पेस सीमित हो गया है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को शत्रु मानने और उसको मिटा देने की भावना प्रबल हो गई है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के प्रति दुर्भावना और नफरत का भाव बढ़ा है। और भी बहुत कुछ हुआ है, जिसको अच्छा नहीं कहा जा सकता है।
राजनीतिक संस्कृति का यह बदलाव सार्वभौमिक है। सारी पार्टियां एक दूसरे को शत्रु की तरह देखती हैं और जंग की तरह चुनाव लड़ती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगर कांग्रेस मुक्त भारत की बात कही तो कांग्रेस के नेताओं के मन में भी नरेंद्र मोदी के प्रति ऐसा ही भाव है। अगर प्रधानमंत्री मोदी कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों के नेताओं के बारे में अपमानजनक ढंग से बाते करते रहे, उनके भ्रष्ट, परिवारवादी और नकारा ठहराते रहे तो दूसरी ओर विपक्षी नेताओं ने भी मोदी या भाजपा के प्रति कोई सद्भाव नहीं दिखाया है। ऐसा नहीं है कि यह सब कुछ सिर्फ चुनाव के समय होता है। चुनाव के समय तो पहले भी तल्खी रहती थी। लेकिन अब 24 घंटे और सातों दिन पक्ष और विपक्ष एक दूसरे के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं। एकाध अपवादों को छोड़ दें तो पहले कभी नहीं हुआ कि सरकार के लोग विपक्ष को देशद्रोही ठहराएं और विपक्ष के लोग प्रधानमंत्री को किसी कारोबारी का ‘नौकर’ या ‘कर्मचारी’ बताएं।
राहुल गांधी मोहब्बत की दुकान की बात करते हैं लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा और आरएसएस के लिए उनके मन में कूट कूट कर नफरत भरी है। कांग्रेस का बड़े से बड़ा नेता भी भाजपा या उसके किसी नेता के प्रति कोई सद्भाव नहीं दिखा सकता है। अगर गलती से भी किसी ने सद्भाव दिखाया या तारीफ की तो उसकी हालत शशि थरूर वाली बना दी जाती है। किसी न किसी समय पी चिदंबरम से लेकर मनीष तिवारी और भूपेंद्र सिंह हुड्डा, आनंद शर्मा आदि भी कांग्रेस की इस सोच का शिकार बने हैं। भारत की राजनीति कभी भी ऐसी नहीं रही थी। कभी भी इतना विभाजन नहीं रहा था। राजनीति का यह विभाजन अब समाज के स्तर पर भी स्पष्ट दिखने लगा है। पूरा समाज अपनी राजनीतिक पसंद और नापसंद के आधार पर बंट गया है और वहां भी उसी किस्म की नफरत फैल रही है, जैसी राजनीति में फैली हुई है। कह सकते हैं कि राजनीति और समाज दोनों स्तरों पर माहौल विषाक्त हुआ है, जहरीला हुआ है।
बहरहाल, भाजपा अध्यक्ष ने तुष्टिकऱण खत्म करके जवाबदेही, पारदर्शिता और विकास की राजनीति शुरू करने का जो दावा किया है वह अलग बहस का विषय है। जवाबदेही कैसी है वह सारा देश देख रहा है। अहमदाबाद में इतना भीषण विमान हादसा हुआ लेकिन क्या किसी की जवाबदेही तय हुई? विमानन मंत्री हादसे की जगह पर रील बनवा रहे थे। ठीक वैसे ही जैसे बालासोर ट्रेन हादसे के बाद रेल मंत्री वहां पहुंच कर रील बनवा रहे थे। पहले नैतिकता के आधार पर इस्तीफा होता था। लाल बहादुर शास्त्री की बात छोड़ दें तो एनडीए की ही सरकार में रेल मंत्री रहे नीतीश कुमार ने रेल हादसे के बाद इस्तीफा दिया था। लेकिन अब न जवाबदेही तय होती है और न इस्तीफा होता है। अहमदाबाद का हादसा तकनीकी कारणों से हो सकता है या मानवीय भूल हो सकती है। हर हादसे में यही दो कारण होते हैं और प्रत्यक्ष रूप से कोई मंत्री इसके लिए जिम्मेदार नहीं होता है। फिर भी नैतिकता के आधार पर इस्तीफा या जवाबदेह ठहरा कर पद से हटाने का काम इसलिए किया जाता था ताकि लोगों का व्यवस्था में विश्वास बना रहे। अब इसकी जरुरत नहीं समझी जा रही है।
यही हाल पारदर्शिता का है। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता के लिए सूचना का अधिकार कानून लाया गया था। लेकिन अब यह कानून ऐसा लग रहा है कि इस्तेमाल में ही नहीं है। सूचना आयुक्तों की नियुक्ति टलती रहती है और विभाग सूचनाएं नहीं देते हैं। हर बार किसी न किसी तरह की कमी निकाल कर आवेदन खारिज करते हैं। स्थानीय स्तर पर सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगने वालों की हत्याएं हो रही हैं। ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। लेकिन इस सरकार का पारदर्शिता के प्रति क्या भाव है उसे सिर्फ एक मिसाल से समझा जा सकता है। चुनावी बॉन्ड से चंदा लेने के मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने सरकार की ओर से कही गई बातों से उसकी सोच जाहिर हो गई थी।
सरकार की ओर से सबसे बड़े कानूनी अधिकारियों ने कहा था कि किसी पार्टी को कहां से चंदा मिलता है और कितना चंदा मिलता है यह जानने का जनता को कोई अधिकार नहीं है। सोचें, जहां लोकतंत्र नहीं होगा वहां की भी सरकार में इतना लोकलाज होता होगा कि ऐसी बात न कहे। लेकिन भारत की सरकार ने कहा कि जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि पार्टियों को कहां से चंदा मिलता है। वास्तविकता यह है कि राजनीतिक दलों को कहां से चंदा मिलता है, कितना चंदा मिलता है, वे उसका कैसा इस्तेमाल करते हैं और चंदा देने वालों को बाद में सरकार की ओर से क्या मिलता है यह जानना जनता का बुनियादी अधिकार है और लोकतंत्र की मजबूती की प्राथमिक शर्त है। अब जेपी नड्डा पारदर्शिता की संस्कृति का दावा कर रहे हैं और उनकी सरकार ने कहा है कि चंदे के बारे में जानने का अधिकार देश की जनता को नहीं है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए फटकार लगाई और कानून को ही अवैध घोषित कर दिया।
अब रही बात विकास की तो यह एक वस्तुपरक यानी ऑब्जेक्टिव नहीं होकर व्यक्तिपरक यानी सब्जेक्टिव विषय है। किसी को जिस चीज में विकास दिख रहा होगा हो सकता है कि दूसरे व्यक्ति की नजर में वह विनाश हो सकता है। विकास के मामले में व्यक्ति का नजरिया इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस पाले में खड़ा है। पिछले दिनों खबर आई थी कि भारत सामाजिक सुरक्षा देने के मामले में दुनिया में दूसरे नंबर का देश है। इसने 64 करोड़ आबादी को सामाजिक सुरक्षा दी है। यह सामाजिक विकास का बड़ा पैमाना है लेकिन हकीकत यह है कि यह सामाजिक सुरक्षा पांच किलो अनाज और आयुष्मान भारत योजना के तहत मिली है। इसी तरह एक आंकड़ा यह भी है कि भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन गया है लेकिन साथ ही एक पहलू यह भी है कि प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत 147वें स्थान पर है। जिस अनुपात में भारत का सकल घरेलू उत्पाद बढ़ रहा है उसी अनुपात में भारत में आर्थिक विषमता भी बढ़ रही है। यह समझ लेना चाहिए कि किसी भी मुल्क के सामने विकास का कोई दूसरा विकल्प नहीं होता है। उसे विकसित होना ही होता है। लेकिन उस विकास की दिशा क्या हो और उसका लाभ कैसे अधिकतम लोगों को मिले, सरकार के कामकाज में यह सोच दिखाई देनी चाहिए।