भारत के चुनावों में गुणात्मक परिवर्तन आया है। चुनाव लड़ने का तरीका बदल गया है। चुनाव लड़ने वालों की नई पीढ़ी आ गई है और साथ साथ चुनाव के मुद्दे भी तेजी से बदल रहे हैं। हालांकि जाति और धर्म अपनी जगह अपनी भूमिका निभा रहे हैं। परंतु इनसे अलग बहुत सारी चीजें बदल गई हैं। जैसे चुनाव अब सिर्फ बिजली, सड़क और पानी यानी बीएसपी का नहीं रह गया है। कई दशकों तक विकास का मतलब बिजली, सड़क, पानी को माना गया और पार्टियां, सरकारें इसी नाम पर चुनाव लड़ती थीं। अब भी गाहेबगाहे यह मुद्दा उठता है।
जैसे एक जमाने में बिहार के एक नेता एक मशहूर अभिनेत्री के गालों की तरह बिहार की सड़क बनाने की बात करते थे वैसे ही केंद्र सरकार के एक मंत्री अमेरिका की तरह भारत की सड़कें बनाने का वादा करते रहते हैं। लेकिन सड़क अब चुनाव का अहम मुद्दा नहीं है। बिजली और हर घर नल से जल पहुंचाने का मुद्दा भी चुनावी विमर्श के केंद्र में नहीं है। अब ऐसा लग रहा है कि इन सबका नहीं होना मतदान व्यवहार को प्रभावित कर सकता है लेकिन इनकी उपलब्धता सुनिश्चित करने से वोट मिलने की संभावना नहीं बढ़ती है।
बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार जरूर अब भी चुनाव में मुद्दा होते हैं क्योंकि ज्यादा समय नहीं बीता है, जब 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर चुनाव लड़ रहे थे और इन्हीं मुद्दों को केंद्र में रख कर उन्होंने मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को कठघरे में खड़ा किया। सो, ये मुद्दे हैं। हालांकि सिर्फ इन मुद्दों के आधार पर कोई सरकार चुनाव हार जाए, इसकी मिसाल भी धीरे धीरे कम होती जा रही है। ये मुद्दे होते भी हैं तो चुनाव के समय सुनाई देते हैं। पहले विपक्षी पार्टियां पांच साल तक इन मुद्दों पर जमीनी संघर्ष करती थीं। पहले कीमतों में मामूली बढ़ोतरी पर आंदोलन होते थे। लेकिन अब महंगाई या बेरोजगारी के खिलाफ आंदोलन या किसी ऐतिहासिक मैदान में रैली नहीं देखने को मिलती है। भ्रष्टाचार के खिलाफ 2011 में आखिरी बार आंदोलन हुआ था उसके बाद ऐसा लग रहा है कि यह मुद्दा समाप्त हो गया है। ऐसे ही रोजगार के नाम पर भी अब राजनीतिक दलों के आंदोलन नहीं होते हैं।
युवा जरूर नौकरियों और प्रतियोगिता परीक्षाओं में गड़बड़ी के खिलाफ आंदोलन करते हैं लेकिन हकीकत यह है कि रोजगार के लिए आंदोलन करने वाले और लाठी खाने वाले युवा भी बेरोजगारी के मुद्दे पर वोट नहीं करते हैं। वे आंदोलन से लौटने के बाद बेरोजगार युवा वाली अस्मिता कंधे से उतार कर खूंटी पर टांग देते हैं। उनका मतदान व्यवहार अपनी मुश्किलों या तकलीफों से निर्धारित नहीं होता है, बल्कि मीडिया और सोशल मीडिया में बनाए जाने वाले नैरेटिव से तय होता है। वे रोजमर्रा की छोटी छोटी जरुरतों के लिए लड़ते हैं लेकिन मतदान बड़ी बड़ी बातों पर करते हैं। इसका श्रेय मोटे तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है। वे बार बार दावा करते भी हैं कि वे कभी छोटा नहीं सोचते हैं।
इसलिए उन्होंने देश के लोगों को भी बड़ा सोचना सीखा दिया है। अब देश के लोग सोशल मीडिया से ज्ञान हासिल करके विदेश मामलों के विशेषज्ञ बन जाते हैं और भारत की विदेश नीति के आधार पर वोट देते हैं। उन्हें बताया जाता है कि भारत की विदेश नीति कमाल की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश में बड़ी इज्जत है और अमित शाह ने तो दावा किया है कि दुनिया का कोई भी बड़ा फैसला मोदीजी से पूछे बगैर नहीं होता है। पिछले 11 साल से लोग इस नैरेटिव से प्रभावित थे। हालांकि अब थोड़ा कंफ्यूजन लोगों में हुआ है कि अमेरिका ने भारत पर जो 50 फीसदी टैरिफ लगाया है या एच 1बी वीजा की फीस बढ़ाई है क्या वह भी मोदीजी से पूछ कर किया है?
बहुत पहले नोम चोमस्की ने ‘द मैन्यूफैक्चरिंग कन्सेंट’ नाम से किताब लिखी थी ऐसा लग रहा है कि वह प्रक्रिया भारत की राजनीति में रिपीट हो रही है। मास मीडिया का इस्तेमाल करके कन्सेंट का निर्माण किया जा रहा है। इस तरह से मास मीडिया का इस्तेमाल हो रहा है कि लोग अपने जरूरी मुद्दे भूल कर बनाए गए मुद्दों के आधार पर राजनीतिक विचार बना रहे हैं और चुनाव में उसी हिसाब से वोट कर रहे हैं। मास मीडिया के जरिए ही विदेश नीति और दुनिया में मोदी की महानता का मिथक गढ़ा गया था। ऑपरेशन सिंदूर, सीजफायर और अमेरिका के साथ संबंधों के डिजास्टर के बावजूद यह मिथक टूटा नहीं है, बल्कि इसे अब दूसरे रूप में स्थापित किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि भारत बहुत तेजी से विश्वगुरू बनने की ओर बढ़ रहा है इसलिए अमेरिका और विश्व शक्तियों की आंखों में खटक रहा है।
बहरहाल, यह सिर्फ विदेश नीति का मामला नहीं है, बल्कि अर्थ नीति और सामरिक नीति भी चुनावी विमर्श का मुद्दा है। पहले कभी नहीं कहा गया होगा कि सरकार ने सेना को खुली छूट दे रखी है। सेना को हमेशा खुली छूट रही है लेकिन अब इस बात का प्रचार किया जाता है। कहा जाता है कि सरकार ने सेना को कहा है कि गोली का जवाब गोले से दो और गोली गिनने की जरुरत नहीं है। इस तरह के जुमले चुनावी नैरेटिव बनाने में इस्तेमाल किए जाते हैं। जटिल से जटिल आर्थिक मुद्दे भी अब मास मीडिया का इस्तेमाल करके लोगों को समझाए जाते हैं और लोग उनसे प्रभावित होते हैं।
ताजा मिसाल जीएसटी की दरों में बदलाव का है। जीएसटी 2.0 का ऐसा माहौल बनाया गया है, जैसे पहले आठ साल तक कांग्रेस की सरकार लोगों का खून चूसती रही हो और अब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने लोगों को उससे मुक्ति दिलाई है। पहले लोगों से इस बात पर ताली बजवाई गई कि देखो हर महीने कितने लाख करोड़ रुपए की जीएसटी वसूली जा रही है और अब इस बात पर ताली बजवाई जा रही है कि जीएसटी में कितनी कटौती कर दी गई।
सो, यह पिछले कुछ वर्षों में आए राजनीतिक बदलाव का संकेत है कि अब रोजमर्रा के जरूरी मुद्दों के बजाय मास मीडिया के जरिए सेट किए गए नैरेटिव्स किस तरह से चुनाव को प्रभावित करते हैं। कैसे विदेश नीति, आर्थिक नीति, सामरिक नीति जैसे जटिल और आम आदमी की पहुंच से दूर रहे मुद्दे अब चुनाव को प्रभावित कर रहे हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि सरकार आम लोगों के सारे जरूरी मुद्दे नहीं सुलझा सकती है लेकिन उनको विनिर्मित नैरेटिव्स में जरूर उलझा सकती है।