मुंबई में रेल पटरियों पर जान रोज जाती है। औसतन मौतें रोज होती हैं। 2024 में ऐसी कुल 2,468 मौतें हुईं। उनमें से 570 लोगों की मृत्यु ट्रेनों से गिरने के कारण हुई। बाकी पटरी पार करते वक्त दुर्घटना का शिकार हुए।
जिस रोज नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने तीसरे कार्यकाल की पहली सालगिरह मनाई और सत्ताधारी दल ने अपने 11 वर्ष के शासन काल को “स्वर्णिम वर्ष” बताया, उसी रोज मुंबई के मुंब्रा इलाके में विपरीत दिशाओं में जा रही दो ट्रेनों में लटके यात्रियों के गिर जाने से चार लोगों की जान चली गई। नौ यात्री जख्मी हुए। इस घटना फिर यह दिखाया कि देश की वित्तीय राजधानी में आम लोग किस तरह जान हथेली में लेकर रोज यात्रा करते हैं। ये घटना असामान्य थी, इसलिए सुर्खियों में आई। वरना, मुंबई में रेल पटरियों पर लोगों की जान रोजमर्रा के स्तर पर जाती है।
मुंबई रेलवे पुलिस के मुताबिक औसतन सात ऐसी मौतें रोज होती हैं। 2024 में ऐसी कुल 2,468 मौतें हुईं। इनमें 1,151 लोगों ने पटरियां पार करने की कोशिश में जान गंवाई, जबकि 570 लोगों की मृत्यु ट्रेनों से गिरने के कारण हुई। यानी ट्रेनों से गिरना भी मुंबई में असामान्य घटना नहीं है। पुलिस अधिकारियों के अनुसार ट्रेनों में अति भीड़ ऐसी मौतों की वजह है। लोकल ट्रेन में 12 डिब्बे होते हैं, जिनमें आराम से तकरीबन 1,200 यात्री सफर कर सकते हैं। मगर भीड़-भाड़ के समय औसतन साढ़े पांच हजार लोग एक ट्रेन में यात्रा करते हैं। यानी ट्रेनों की क्षमता से साढ़े चार गुना ज्यादा! आखिर बढ़ती मांग के मुताबिक ट्रेनों की संख्या क्यों नहीं बढ़ी? ट्रेनों का आधुनिकीकरण क्यों नहीं हुआ है?
ताजा हादसे के बाद कहा गया है कि अब लोकल ट्रेनों में ऑटोमैटिक दरवाजे लगाए जाएंगे? मगर अचानक ऐसा कैसे हो जाएगा? उसका बजट कहां से आएगा? इस बारे में कुछ विस्तार से नहीं बताया गया है। तो ये शक लाजिमी है कि यह महज आज की सुर्खियां संभालने का प्रयास है। यह कथा 11 के “स्वर्णिम वर्षों” के बाद है। मगर मुंबई की कथा इस कथित स्वर्ण काल की हकीकत बताती है। इस महानगर में देश के सबसे धनी व्यक्तियों का निवास है। बेशक, यह उनका स्वर्ण काल हो सकता है। मगर रेल पटरियों पर रोज जान गंवा रहे लोगों के लिए यह कौन-सा काल है, क्या सत्ता पक्ष यह भी बताएगा?