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मध्यम मार्ग ही उचित

एआई से तैयार कंटेन्ट आज एक ऐसी हकीकत हैं, जिनके साथ जीना समाज को सीखना होगा। ऐसे कंटेन्ट समाज उथल-पुथल का जरिया बन सकते हैं। अतः इस कारोबार से जुड़े सभी पक्षों को न्यूनतम अनुशासन स्वीकार करना चाहिए।

आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) से तैयार कंटेन्ट को विनियमित करने के लिए पिछले हफ्ते सरकार ने नियमों का प्रारूप जारी किया, जिसको लेकर एआई प्लैटफॉर्म्स, कंटेन्ट क्रियेटर्स और इस उद्योग से जुड़े दूसरे हितधारकों ने कई आशंकाएं जताई हैं। एक प्रमुख दलील यह है कि इन नियमों का कंटेन्ट क्रियेटर्स की रचनात्मकता पर खराब असर पड़ेगा। खास एतराज कंटेन्ट के दस फीसदी हिस्से को वाटरमार्क के लिए आरक्षित रखने के प्रावधान पर है, जिस पर यह लिखा होगा कि संबंधित कंटेन्ट एआई से तैयार किया गया है। तर्क दिया गया है कि इससे व्यापारिक उद्देश्यों के लिए तैयार कंटेन्ट का प्रभाव घट जाएगा। कहा गया है कि ऐसे कंटेन्ट एआई और मानव कौशल के मेल से तैयार किए जाते हैं, जिस बात की अनदेखी प्रारूप में की गई है।

नियमों के तहत सोशल मीडिया कंपनियों पर भी जवाबदेही डाली गई है। देखने वालों को यह साफ-साफ मालूम हो कि कंटेन्ट कृत्रिम ढंग से तैयार किया गया है, इन कंपनियों को यह सुनिश्चित करना होगा। बहरहाल, यह प्रावधान भी प्रारूप में शामिल है कि सिर्फ वरिष्ठ अधिकारियों के पास ही किसी कंटेन्ट को हटवाने का अधिकार होगा। ऐसा निर्देश सिर्फ संयुक्त सचिव या उनसे ऊपर स्तर के अधिकारी अथवा राज्यों में पुलिस उपमहानिदेशक स्तर के अधिकारी ही जारी कर सकेंगे। शरारती कंटेन्ट के मामलों में अभी मौजूद सूचना तकनीक कानून के प्रावधान लागू किए जाएंगे।

तो कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सूचना तकनीक को विनियमित करने के पहले से मौजूद प्रावधानों का विस्तार अब एआई से तैयार डीपफेक एवं दूसरे आपत्तिजनक कंटेन्ट को नियंत्रित करने के लिए किया जाएगा। यह नहीं कहा जा सकता कि यह पूरी तरह गैर-जरूरी है। एआई से तैयार कंटेन्ट आज एक ऐसी हकीकत हैं, जिनके साथ जीना समाज को सीखना होगा। ऐसे कंटेन्ट समाज उथल-पुथल का जरिया बन सकते हैं। अतः इस कारोबार से जुड़े सभी पक्षों को न्यूनतम अनुशासन स्वीकार करना चाहिए। बहरहाल, इस क्रम में रचनात्मकता कुंद ना हो जाए, यह उचित अपेक्षा है। चूंकि अभी नियमों का प्रारूप ही आया है, इसलिए सभी संबंधित पक्षों के साथ राय-मशविरे कर केंद्र को इसे अवश्य सुनिश्चित करना चाहिए।

By NI Editorial

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