जन्म दर गिरने और जीवन प्रत्याशा बढ़ने में आपसी रिश्ता है। किसी भी समाज में का आधार स्वास्थ्य देखभाल की बेहतर व्यवस्था, आम जीवन स्तर में स्तर सुधार, स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता, और परिवारों में महिला सशक्तीकरण से तैयार होता है।
भारत की आबादी एक अरब 46 करोड़ हो गई है। मगर संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपी) की विश्व जनसंख्या रिपोर्ट-2025 से उभरी यह मुख्य कथा नहीं है। इससे सामने आई प्रमुख सूचना यह है कि भारत में शिशु जन्म दर रिप्लेसमेंट दर से नीचे चली गई है। 15 से 19 वर्ष की महिलाओं के बीच बाल जन्म दर प्रति 1000 महिला पर घटते हुए 14.1 हो गई है। भारत में रिप्लेसमेंट दर 1.9 हो गई है, जबकि आदर्श स्थिति प्रति महिला 2.1 शिशु होती है। यानी प्रति महिला 2.1 शिशुओं का जन्म हो, तो आबादी स्थिर बनी रहती है। वरना, इसमें बढ़ोतरी या गिरावट दर्ज होती है। शिशु जन्म दर का रिप्लेसमेंट दर से भी कम होना भारत के लिए अच्छी खबर नहीं है।
यह रुझान जारी रहा, तो आने वाले दशकों में भारत को भी जनसंख्या- खासकर कामकाजी उम्र वर्ग की आबादी घटने की समस्या से जूझना होगा। 10 से 24 वर्ष उम्र वर्ग के लोगों की संख्या में गिरावट तो अभी से दर्ज होने लगी है। बहरहाल, अपनी विशाल आबादी और कामकाजी उम्र वर्ग के लोगों के लिए अवसरों के अभाव की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के कारण निकट भविष्य में ये समस्या अधिक महसूस नहीं की जाएगी। वैसे एक अच्छी खबर यह है कि भारत में औसत जीवन प्रत्याशा (जन्म के समय शिशु का संभावित जीवनकाल) 72.5 वर्ष हो गई है। आजादी के समय लगभग 33 वर्ष थी। यह भारत की प्रगति कथा है।
दरअसल, जन्म दर में गिरावट भी इस प्रगति कथा का ही हिस्सा है। इन दोनों में निकट रिश्ता होता है। किसी भी समाज में जन्म दर गिरने और जीवन प्रत्याशा बढ़ने का आधार स्वास्थ्य देखभाल की बेहतर व्यवस्था, आम जीवन स्तर में स्तर सुधार, स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता, और परिवारों में महिला सशक्तीकरण से तैयार होता है। आजादी के बाद के आरंभिक दशकों में इन सभी क्षेत्रों में हुए सामाजिक निवेश के सकारात्मक नतीजे कुछ दशक पहले ही दिखने शुरू हो गए थे। अब ये ठोस रूप ले चुके हैं। अब चुनौती उस निवेश को जारी रखने तथा प्रगति से पैदा हो रही समस्याओं का हल ढूंढने की है।