संभवतः रूस अपना पक्ष तय कर चुका है और अब उसने अपना आखिरी दांव चला है, ताकि नई परिस्थितियों में भी भारत से उसका रिश्ता जारी रह सके। उसे गेंद भारत के पाले में डाल दी है।
भारत के प्रति रूस की नीति अधिक स्पष्ट हो रही है। इसका पहला संदेश है कि भारत हर हाल में रूस के समर्थन को सुनिश्चित मान कर अब नहीं चल सकता। वैसे ऑपरेशन सिंदूर के दौरान रूस ये बात अपने व्यवहार से भी साफ कर चुका है। उसके बाद उसके जो बयान आए और जैसा व्यवहार दिखा है, उससे यह साफ हुआ है कि भारत जिस देश को अलग-थलग करना चाहता है, उसमें सहयोग करने के लिए रूस तैयार नहीं है।
फिर रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने एक इंटरव्यू में जो कहा, उसके बाद तो कयास की कोई गुंजाइश ही नहीं रह गई है। उन्होंने पश्चिम पर भारत को अपनी चीन विरोधी रणनीति में खींचने की कोशिश का आरोप लगाया। फिर लावरोव ने कहा कि रूस- भारत- चीन (आरआईसी) समूह को पुनर्जीवित करने का समय आ गया है। ये समूह 1990 के दशक में तत्कालीन रूसी प्रधानमंत्री येवगेनी प्रीमाकोव की पहल पर बना था।
भारत के सामने रूस की नई कूटनीति
तब रूस ने इसके जरिए विकासशील देशों की आवाज उठाने वाला एक मंच बनाने की कोशिश की थी। तब से लगभग 20 वर्ष तक इस समूह की बैठकों और आपसी संवाद का सिलसिला चलता रहा। मगर गलवान घाटी की वारदात के बाद ये ठहर गया। अब रूस इसे पुनर्जीवित करना चाहता है। मगर चीन के पाकिस्तान से गहराते रिश्तों के कारण और चीन को लेकर पहले से भी मौजूद भारत की आपत्तियों को दूर करने के लिए उसके पास क्या समाधान है, यह लावरोव ने नहीं बताया है।
बल्कि संकेत यह है कि रूस का मकसद भारत को खुद उसकी अपनी, और चीन की विश्व रणनीति का हिस्सा बनाना है। यह रणनीति अनिवार्य रूप से अमेरिकी नेतृत्व वाली विश्व धुरी के खिलाफ जाती है। भारत के नीतिकारों के लिए यह गंभीर विचार का विषय है कि क्या वे विदेश नीति में ऐसे बुनियादी बदलाव को देश हित में मानते हैं? एक आकलन यह है कि रूस अपना पक्ष तय कर चुका है और अब उसने अपना आखिरी दांव चला है, ताकि नई परिस्थितियों में भी भारत से उसका पुराना रिश्ता जारी रह सके। उसने गेंद भारत के पाले में डाल दी है।
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