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साख पर सीधा प्रहार

आज ऐसे संदेह खुलकर जताए जा रहे हैं कि न्यायपालिका का एक हिस्सा एक खास राजनीतिक परियोजना का हिस्सा बनता जा रहा है। इस पृष्ठभूमि में जस्टिस गंगोपाध्याय से संबंधित खबर न्यायिक साख के लिए तगड़े झटके के रूप में रूप में आई है। 

किसी संवैधानिक न्यायालय का वर्तमान जज आम चुनाव से ठीक पहले राजनीति में भाग लेने का इरादा जताते हुए अपने पद से इस्तीफा दे, तो बेशक उससे न्यायपालिका की निष्पक्षता को लेकर आम जन के बीच एक बेहद खराब संदेश जाएगा। और खासकर तब तो बिल्कुल ही ऐसा होगा, अगर उस जज ने अपने कार्यकाल के दौरान ऐसे अनेक आदेश दिए हों और टिप्पणियां की हों, जिनसे एक पार्टी विशेष को अपना एजेंडा आगे बढ़ाने में मदद मिली हो। दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय न्यायपालिका में सचमुच ऐसी घटनाएं हो रही हैं।

कलकत्ता हाई कोर्ट के जज अभिजित गंगोपाध्याय के कई आदेशों से पश्चिमी बंगाल में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी हुई थीं। जबकि विपक्षी भारतीय जनता पार्टी के तृणमूल विरोधी अभियान को उन आदेशों से बल मिला था। इसीलिए जस्टिस गंगोपाध्याय ने जब यह एलान किया कि वे मंगलवार को अपने पद से इस्तीफा देकर राजनीति में प्रवेश करेंगे, तो उससे न्यायिक निष्पक्षता के पक्षधर लोगों को आघात पहुंचा।

जस्टिस गंगोपाध्याय ने अभी नहीं बताया है कि वे किस दल की सदस्यता लेंगे या क्या वे लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार बनेंगे। लेकिन उनकी ताजा घोषणा से तृणमूल कांग्रेस को यह कहने का आधार जरूर मिला है कि राज्य सरकार विरोधी उनकी कई पुरानी टिप्पणियां राजनीति में प्रवेश करने का आधार बनाने के मकसद से की गई थीं। यह बात अपनी जगह सही है कि समय से पहले पद छोड़कर जजों के राजनीति में प्रवेश करने का यह पहला मौका नहीं है।

अतीत में कम-से-कम ऐसी दो मिसालें हैं। लेकिन यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि तब न्यायपालिका इतने सवालों से घिरी हुई नहीं थी, जितनी आज है। तब के जजों के निर्णयों को उनके व्यक्तिगत विचलन के तौर पर देखा गया था। उनमें से एक जज सत्ताधारी दल के नहीं, बल्कि विपक्ष के उम्मीदवार बने थे। जबकि आज ऐसे संदेह खुलकर जताए जा रहे हैं कि न्यायपालिका का एक बड़ा हिस्सा एक खास राजनीतिक परियोजना का हिस्सा बनता जा रहा है। इस पृष्ठभूमि में जस्टिस गंगोपाध्याय से संबंधित खबर न्यायिक साख के लिए तगड़े झटके के रूप में रूप में आई है।

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