नेपाल में सोशल मीडिया पर ‘नेपो-किड्स’ जैसे हैशटैग बेहद लोकप्रिय हुए। नेताओं और उनके परिजनों को उपलब्ध विलासिता और विशेषाधिकारों ने लोगों में आक्रोश भरा। इसका जब धमका हुआ, तो तमाम बड़े नाम और चेहरे उसकी लपेट में आ गए।
नेपाल में हुईं भयानक घटनाओं के साथ भारत में सोशल मीडिया पर चर्चा छिड़ी है कि क्या ऐसा यहां भी हो सकता है? चूंकि अपने अधिकांश पड़ोसी देश- श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल- ऐसी उथल-पुथल से गुजर चुके हैं, तो निठल्ले चिंतन में यह सवाल भी उठाया गया है कि क्या अब भारत की बारी है। बेशक, ऐसे कयास फिलहाल दूर की कौड़ी हैं, मगर पास-पड़ोस की घटनाओं से अगर कुछ सबक छिपे हों, तो उनसे सीख लेना फायदेमंद ही रहता है। मसलन, तमाम पड़ोसी देशों में जो असंतोष पनपा, उसके पीछे में वहां की जनता से कटी राजनीतिक संस्कृति एक बड़ा कारण रही है।
नेपाल में नेताओं के बाल-बच्चों की सुख-सुविधा भरी जिंदगी लोगों- खासकर नौजवानों की आंख में चुभ रही थी। इसीलिए वहां सोशल मीडिया पर ‘नेपो-किड्स’ जैसे हैशटैग बेहद लोकप्रिय हुए। नेताओं और उनके परिजनों को उपलब्ध विलासिता और विशेषाधिकारों ने लोगों में आक्रोश भरा। इसका जब धमका हुआ, तो तमाम बड़े नाम और चेहरे उसकी लपटों में आ गए। नेताओं का एक अपना वर्ग बना जाना और उनकी जीवन शैली तथा आम जीवन स्तर के बीच खाई का लगातार चौड़ा होते जाना लोगों में प्रतिशोध की भावना भरता है। भारत का सौभाग्य है कि स्वतंत्रता के बाद यहां विकास एवं प्रगति के पैमानों पर बेहतर सफलताएं हासिल हुईं, जिससे यहां की राजनीतिक व्यवस्था में लोगों का भरोसा मजबूत बना रहा है।
मगर समय-समय पर इसकी सीमाएं भी जाहिर हुई हैं। डेढ़ दशक पहले अन्ना आंदोलन के दौरान अपनी राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ लोगों का अविश्वास खुल कर सामने आया था। उसके बाद शासक समूहों ने अलग तरह के नैरेटिव से हालात को संभाले रखा है। मगर उससे निश्चिंत हो जाना सही नजरिया नहीं होगा। बेहतर यह होगा कि लोगों के मन में जो घट रहा होता है, शासक समूह उससे बेहतर संवाद बनाएं। गहरा रही शिकायतों को समझना वैसे भी राजनेताओं का लोकतांत्रिक कर्त्तव्य है। शिकायतों का निवारण राजनीतिक वर्ग का दायित्व है। वे जिम्मेदारी निभाएं, तो फिर समाज में अस्थिरता की नौबत ही क्यों आएगी! उल्लेखनीय है कि इलाज से बेहतर रोग की रोकथाम होता है।


