नरेंद्र मोदी के 11 साल के शासनकाल के बावजूद, जिस दौरान ‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्म-निर्भर भारत’ जैसी बहुचर्चित योजनाएं चलाई गईं, भारतवासियों के लिए चीन या किसी अन्य देश से आई चीजों को खरीदने की मजबूरी क्यों बनी हुई है?
प्रधानमंत्री ने गुजरात की एक जनसभा में इस पर नाखुशी जताई कि भारत में “गणेश की मूर्तियां तक विदेश से आती हैं।” होली के रंग, दिवाली की सजावट सामग्रियां, हेयर बैंड और इंटरडेंटल ब्रश आदि जैसी चीजों के लिए भी विदेश पर बनी हुई निर्भरता की नरेंद्र मोदी ने आलोचना की।
नागरिकों को देश में बनी चीजों को तरजीह देने की सलाह हुए उन्होंने कहा- ‘हमें ग्रामीण व्यापारियों को प्रोत्साहित करना होगा, ताकि वे विदेशी वस्तुएं ना बेचें, भले उन वस्तुओं से उन्हें कितना ही मुनाफा होता हो।’ उन्होंने लोगों की इस आदत को ऑपरेशन सिंदूर की भावना के खिलाफ बताया।
मोदी की चिंता: क्यों खरीदते हैं विदेशी चीजें?
मोदी ने किसी देश का नाम नहीं लिया, लेकिन जिन वस्तुओं का जिक्र उन्होंने किया, उससे संकेत मिला कि उनका इशारा चीन से आयात वाली चीजों की तरफ था। तो संभवतः संकेतों में उन्होंने देशवासियों का अह्वान किया है कि वे चीनी वस्तुओं का बहिष्कार करें। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान को चीन से मिली मदद के मद्देनजर यह संकेत और ठोस मालूम पड़ा है।
बहरहाल, बहिष्कार का ये परोक्ष सुझाव आखिर कितना माकूल है? मुद्दा यह है कि मोदी के 11 साल के शासनकाल के बावजूद, जिस दौरान ‘मेक इन इंडिया’ और ‘आत्म-निर्भर भारत’ जैसी बहुचर्चित और बहु-प्रचारित योजनाएं चलाई गईं, भारतवासियों के लिए चीन या किसी अन्य देश से आई चीजों को खरीदने की मजबूरी क्यों बनी हुई है?
देश में उद्योग- धंधों के ऐसे जाल का अभाव क्यों है, जिससे भारतीय कारोबारी प्रतिस्पर्धी कीमत पर ऐसी चीजें बाजार में उपलब्ध करवा सकें? वैसे भी हम अगर ऐसे देश से आने वाली चीजों पर निर्भर हैं, जिसका हमारे प्रति रुख शत्रुतापूर्ण है, तो उनका आयात रोकना सरकार के अधिकार क्षेत्र में है।
गौतरलब है कि 2020 में गलवान घाटी की वारदात के बाद भी चीनी वस्तुओं के बहिष्कार का अभियान जोर-शोर से चला था। वह क्यों नाकाम रहा? ये सारे सवाल हैं, जिनकी जवाबदेही सरकार है। वैसे बिना इनकी तह में गए मोदी फिर भी बहिष्कार चाहते हैं, तो अपेक्षित होगा कि आगे आकर सत्ताधारी नेता और बड़े उद्योगपति जनता के लिए अनुकरणीय उदाहरण पेश करें।
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