सुप्रीम कोर्ट ने असामान्य एवं दूरगामी महत्त्व का निर्णय दिया है। राज्यपालों के जरिए राज्यों की निर्वाचित सरकारों के काम में अड़चन डालना बिल्कुल नई बात नहीं है, लेकिन वर्तमान सरकार के समय यह प्रवृत्ति संवैधानिक भावना के खुलेआम अनादर तक पहुंच गई है।
तमिलनाडु के मामले में असामान्य हस्तक्षेप कर सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक भावना की रक्षा की है। तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ना सिर्फ संघीय भावना की अवहेलना कर रह थे, बल्कि उनके आचरण से सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का अनादर भी जाहिर होता था।
पंजाब के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया था कि राज्यपाल एक समयसीमा से अधिक विधानसभा से पारित विधेयकों को लटका कर नहीं रख सकते। मगर रवि ने तमिलनाडु में पारित 10 विधेयकों को लटकाए रखा रखा। इसे देखते हुए न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और आर. महादेवन की खंडपीठ ने संविधान के अनुच्छेद 142 से मिले अधिकार का उपयोग करते हुए निर्णय दिया कि उन सभी विधेयकों को मंजूरी दिया गया माना जाएगा।
राज्यपाल की शक्तियों पर सुप्रीम कोर्ट की सख्ती, तीन माह में फैसला जरूरी
यह पहला मौका है, जब सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह किसी राज्यपाल की मंशा को निरस्त किया है। साथ ही कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 200 की शब्दावली की अस्पष्टता दूर की है, जिसका लाभ राजनीतिक मंशा से प्रेरित राज्यपाल उठाते थे। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि विधानसभा से पारित विधेयक को राज्यपाल ‘यथाशीघ्र’ मंजूरी देंगे।
अब सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि राज्यपाल को ऐसा फैसला तीन महीनों के अंदर लेना होगा। आशा है कि हाल के वर्षों में गैर-भाजपा शासित राज्यों में राज्यपालों के जरिए निर्वाचित सरकारों के फैसलों में रुकावट डालने की जारी प्रवृत्ति पर रोक लगेगी।
बहरहाल, यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि ये सारी समस्या केंद्र में सत्ताधारी भाजपा की नई दिल्ली से पूरे भारत को नियंत्रित करने की महत्त्वाकांक्षा से पैदा हुई है। राज्यपाल इसमें महज मोहरा बने हैं। वैसे राज्यपालों के जरिए राज्यों की निर्वाचित सरकारों के काम में अड़चन डालना बिल्कुल नई बात नहीं है, लेकिन वर्तमान सरकार के समय यह प्रवृत्ति संवैधानिक भावना के खुलेआम अनादर तक पहुंच गई है।
सुप्रीम कोर्ट ने विधेयकों को लटकाए रखने के मामले में स्थिति पंजाब के प्रकरण में साफ कर दी थी। फिर भी ऐसा होना चाही रहा। फिलहाल, सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय को एक सामयिक हस्तक्षेप माना जाएगा। इससे संघीय भावना के मुताबिक राजकाज चलाने की अपेक्षाओं को बल मिला है।
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