इस साल गर्मियों में मुझे एक पारिवारिक दोस्त की शादी में शामिल होने अमेरिका जाना था। पर अब मैं अमेरिका नहीं जा रही हूँ। आप सोच रहे होंगे कि शायद वीसा हासिल करने के लिए ज़रूरी कागज़ी कार्यवाही से बचने के लिए मैंने यह तय किया। बिलकुल नहीं। मैं कागज़ी कार्यवाही से बिलकुल नहीं डरती। बात यह है कि मुझे नहीं लगता कि मुझे एक ऐसे देश में जाना चाहिए जो सैलानियों को संदेह की दृष्टि से देखता है। पढने या काम करने के लिए अपने यहाँ आने वालों को हमलावर मानता है। और फिर मैं आखिर अपनी साल भर की बचत, बल्कि उससे भी ज्यादा रकम, डोनाल्ड ट्रंप की तानाशाह सरकार के खजाने को भरने में क्यों खर्च करूं?
एक समय अमेरिका में खुलापन था, एक किस्म की गर्मजोशी थी। वहां आने वाले को लगता था कि उसका वहां स्वागत हो रहा है। अब ऐसा बिलकुल नहीं है। ट्रंप सरकार के अमेरिका में किसी का स्वागत नहीं है। लाल कालीन की जगह लाल झंडे हैं – रुको, ठहरो वे कहते हैं। कस्टम्स और बॉर्डर प्रोटेक्शन के अधिकारियों का व्यवहार कभी बहुत दोस्ताना नहीं था। मगर अब तो वे डरावने लगते हैं – मानों जॉर्ज ओरवेल के ‘1984’ के पन्नों से बाहर निकले हों।
हाल में कई ऐसी घटनाएँ हुईं हैं जिनमें छात्रों और प्रोफेसरों को जबरदस्ती उनके देश वापस भेज दिया गया। कलाकारों और सैलानियों को हिरासत में लिया गया। ऐसा भी नहीं था कि ये सभी अश्वेत थे। इनमें से कई पश्चिमी देशों के श्वेत रहवासी थे जिन्हें अमेरिका के इमीग्रेशन अधिकारी सामान्यतः परेशान नहीं करते। उन्हें भी अस्पष्ट या बहुत मामूली कारणों से हिरासत में लिया गया, डिपोर्ट कर दिया गया या अमेरिका में घुसने नहीं दिया गया।
अभी कुछ दिन पहले मैंने लंदन के ‘द गार्डियन’ में एक खबर पढ़ी। वह सचमुच परेशान करने वाली थी। पूरी दुनिया में हैरानी हुई। वह अमेरिका और ब्रिटेन के मीडिया में बहुत जगह छपी। इसमें ब्रिटेन की नागरिक और ग्राफिक्स कलाकारा रेबेका बर्क के कटु अनुभवों का वर्णन है। रेबेका के अमेरिका में गिरफ्तार किए जाने और फिर उसके साथ सलूक का भयावह विवरण पढ़ कर दुनिया भर के असंख्य लोगों ने तुरंत अमेरिका जाने का इरादा त्यागा होगा।
रेबेका एक वैध टूरिस्ट वीसा के साथ अमेरिका गई थीं। उस समय देश पर बाइडन का राज था। छः हफ़्तों तक वे अपनी पीठ पर पिट्ठू बैग टांगे अमेरिका में जगह-जगह घूमी। जाहिर है कि देश बदल चूका है, इसका उन्हें गुमान भी न था। जब वे अमेरिका की सीमा पार कर कनाडा में प्रवेश कर रही थीं तब सीमा पर तैनात अधिकारियों ने कहा कि अमेरिका में उनका रहवास वैसा नहीं था जैसा टूरिस्ट वीसा पर आने वाले का होना चाहिए और उन्हें कामगार वीसा पर देश में आना चाहिए था। नतीजतन उन्हें अमेरिका वापस भेज दिया गया और गैर-कानूनी विदेशी घोषित कर दिया।
उन्हे बेड़ियों में बाँध कर एक इमीग्रेशन एंड कस्टम्स एन्फोर्समेंट डिटेंशन सेंटर में पहुंचा दिया गया। वे 19 दिन वहां बंद रहीं। उनके पास ब्रिटिश पासपोर्ट था, वापस जाने के लिए पर्याप्त पैसे थे और वे वापस जाने के लिए आतुर और तैयार थीं। इसके बाद भी उन्हें जो भोगना पड़ा वह डरावना और भयावह है। कोई उनकी मदद नहीं कर सका। ब्रिटिश हाई कमीशन के प्रश्नों पर डिटेंशन सेंटर ने चुप्पी साध ली। आखिरकार रेबेका की दुर्दशा की मीडिया की सुर्खियाँ बनने के बाद ही उनके दुखों का अंत हुआ। मगर फिर भी उन्हें तीन हफ़्तों तक अकारण जेल में रहना पड़ा। उन्हें अवैध प्रवासियों के लिए विशेष उड़ान से वापस भेजा गया। उनके पैरों, हाथों और कमर में बेड़ियाँ थीं। उनकी सिर से पैर तक तलाशी ली गयी, उनके बैगों के नमूने लिए गए। उनकी परतें काट कर उनकी जांच की गयी। तब जाकर वे अपने देश वापस आ पाईं।
रेबेका के बारे में लिखने के दौरान, श्रुति चतुर्वेदी की खबर आई। वे एक भारतीय व्यवसायी हैं। उन्हें अमेरिका के एक एयरपोर्ट पर पुलिस और एफबीआई के अधिकारियों ने आठ घंटों तक रोके रखा। यहां तक कि उनकी फ्लाइट छूट गयी। अपनी आपबीती साझा करते हुए उन्होंने एक्स पर लिखा कि एक पुरुष अधिकारी ने उनकी शारीरिक जांच की और वह भी कैमरे की निगरानी में। उन्हें शौचालय नहीं जाने दिया गया, अपने फ़ोन का इस्तेमाल नहीं करने दिया और उनसे कहा गया कि वे अपने गर्म कपडे उतार लें। उनकी फ्लाइट छूटी सो अलग। और यह सब क्यों? केवल इसलिए कि अधिकारियों को उनके हैंडबैग में रखा पॉवर बैंक ‘संदेहास्पद’ लगा। उन्होंने अपनी यात्रा की तैयारी, वीसा, टिकिट आदि पर जो पैसा खर्च किया था वह सब बेकार हो गया।
रेबेका के पास दुनिया के सबसे ताकतवर पासपोर्टों में से एक ब्रिटेन का पासपोर्ट था। श्रुति के पास एक ऐसे देश का पासपोर्ट था जो विश्वगुरु बनने जा रहा है। इंग्लैंड और भारत दोनों अमेरिका के नज़दीकी साथी हैं। फिर मोदीजी और डोनाल्डजी पक्के दोस्त हैं। मगर बावजूद इसके डोनाल्ड के अमेरिका की निगाहों में रेबेका गैरकानूनी विदेशी है और श्रुति, मुलजिम।
इन सब घटनाओं के मद्देनजर अलग-अलग देश अमेरिका की यात्रा पर जा रहे अपने नागरिकों को अलग-अलग सलाहें दे रहे हैं। कम से कम सामान ले जाईए। और हो सके तो एक वकील को भी साथ रखें ! चीन से अमेरिका आने वालों की संख्या में 11 प्रतिशत की गिरावट आई है। चीनी अब ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड जा रहे हैं। कनाडा के नागरिकों ने अमेरिका का अघोषित बहिष्कार शुरू कर दिया है। जर्मनी अपने नागरिकों को बता रहा है कि केवल वीसा होना या प्रवेश की छूट होना अमेरिका में प्रवेश की गारंटी नहीं है। इंग्लैंड ने भी अपने नागरिकों को चेतावनी दी है। ऐसा अंदाज़ा है कि इस साल अमेरिका जाने वालों की संख्या में कम से कम पांच प्रतिशत की गिरावट आएगी।
और मुझे लगता है कि इस स्थिति के लिए अमेरिकी खुद ही ज़िम्मेदार हैं। हालांकि केवल 32 प्रतिशत वोटरों ने ट्रंप को वोट दिया था मगर वहां के पर्यटन उद्योग में बड़ी संख्या में लोग इन हालातों से चिंतित होंगे। कईयों को अंतर्राष्ट्रीय यात्राओं में कमी से भी नुकसान होगा। मेरा सवाल है कि आखिर आप ऐसी किसी जगह क्यों जाना चाहेंगे जहाँ आपको बेड़ियों में जकड़ा जाएगा या केवल हैंडबैग में पॉवरबैंक रखने के लिए आपके बैग फाड़ डाले जाएंगे? क्या आप अपना पैसा ऐसे देश की यात्रा पर खर्च करना चाहेंगे जो अपने पड़ोसियों को अपना हिस्सा बनाने की धमकियाँ दे रहा है, जो हम सब पर भारी-भरकम टैरिफ लाद रहा हो और जो हम सब की ज़िन्दगी केवल इसलिए मुहाल कर रहा हो ताकि वो अपना बदला ले सके। इससे भी बुरी बात यह कि वो अन्य देशों के शासकों को भी तानाशाह बनने की प्रेरणा दे रहा है।
जोखिम और भी हैं। कुछ दिन पहले, अमेरिका ने वेनेजुएला के सैकड़ों नागरिकों को एल साल्वाडोर में स्थित एक जेल में भेज दिया। यह इस तथ्य के बावजूद किया गया कि एक फ़ेडरल जज ने ट्रंप द्वारा सदियों पुराने एलियंस एनिमीस एक्ट के इस्तेमाल को ख़ारिज कर दिया और वेनेज़ुएला के नागरिकों को ले जा रहे कुछ हवाईजहाजों को वापस अमेरिका लाने का आदेश दिया था। मगर ट्रंप बहुत खुश थे। उन्होंने संवाददाताओं से कहा कि वेनेज़ुएला के जिन लोगो को डीपोर्ट किया गया है वे ‘बैड पीपल’ (ख़राब लोग) थे। जो भी ट्रंप की आलोचना करता है या उनका विरोध करता है वह ‘बैड पीपल’ बन जाता है। चीनी ‘बैड पीपल’ हैं। तभी तो उनके देश पर 104 फीसद का टैरिफ लगाया है। भारतीय भी जल्दी ही ‘बैड पीपल’ की सूची में शामिल होने वाले हैं क्योंकि ट्रंप ने दवाओं के आयात पर भारी टैरिफ लगाने की घोषणा की है।
बहरहाल, मैंने तय किया है कि मैं कुछ साल इंतज़ार करूंगी – शायद तब तक जब तक ट्रंप राज ख़त्म न हो जाए। और मैं आप सबसे जोर देकर कहना चाहती हूँ कि अमेरिका की यात्रा का इरादा त्याग दें। अगर आप विद्यार्थी हैं तो इस बात की फ़िक्र न करें कि आपका एक साल बेकार हो जायेगा। एक साल बर्बाद होना जीवन भर बुरी यादों के साथ जीने से बेहतर है। और मैं आपको बता दूं कि फ्रांस और हांगकांग के डिज्नीलैंड में आप उतना ही मज़ा कर सकते हैं जितना अमेरिका के डिस्नेलैंड में।
तो देवियों और सज्जनों, अपना पैसा बचाईये। हम ट्रंप के अमेरिका को ‘फिर से ग्रेट’ बनाने के लिए अपना पैसा क्यों खर्च करें? बिना बिचारे जो करे सो पाछे पछताय – आखिर यह हमारे बटुए, हमारी गरिमा और हमारे विवेक का सवाल है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)