अमेरिकी शर्त है कि भारत को अपना बाजार खोलना होगा। उसे रूसी तेल की खरीद रोकनी होगी। ब्रिक्स का साथ छोड़ना होगा। डॉलर को समर्थन देना होगा। वह या तो अब अमेरिका के साथ रह सकता है, या चीन- रूस के साथ।
डॉनल्ड ट्रंप का भारत के खिलाफ सुर नरम हुआ है। उससे भारत के सरकारी हलकों में उत्साह लौटता दिखा है। मगर अपने गरम मूड के साथ पिछले दिनों ट्रंप ने दोनों देशों के रिश्ते में जो कड़वाहट घोल दी है, उसका असर फिलहाल कायम रहने वाला है। अमेरिकी वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लुटनिक दो टूक वे शर्तें बता चुके हैं, जिन्हें मान कर ही भारत अमेरिका के साथ व्यापार वार्ता को आगे बढ़ा पाएगा। लुटनिक ने तो यहां तक कहा कि एक- दो महीनों के अंदर भारत माफी मांग कर फिर से बातचीत शुरू करेगा। भारतीय प्रभु वर्ग की राय पर गौर करें, तो वहां बड़ा हिस्सा अमेरिकी अधिकारियों की अमर्यादित भाषा से आहत जरूर है, मगर उसकी ये राय भी रही है कि भारत के पास अमेरिकी खेमे में रहने से बेहतर कोई और विकल्प नहीं है।
उधर अमेरिकी प्रभु वर्ग का एक हिस्सा लगातार चीन के खिलाफ अमेरिकी रणनीति में भारत की उपयोगिता पर जोर डालता रहा है। स्पष्टतः भारत और अमेरिका के बीच संबंध सुधरने की मजबूत जमीन बरकरार रही है। यही समझ भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता की टिप्पणी में जाहिर हुई, जब उन्होंने कहा- ‘दोनों देशों के बीच व्यापक वैश्विक रणनीतिक सहभागिता है, जो हमारे साझा हितों, लोकतांत्रिक मूल्यों, और जनता के बीच मजबूत रिश्तों पर आधारित है।’ ट्रंप की ताजा टिप्पणी पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिक्रिया का भाव भी यह रहा।
लेकिन प्रश्न है कि अमेरिकी शर्तों का क्या होगा? लुटनिक ने कहा- ‘भारत या तो रूस और चीन के साथ रह सकता है या अमेरिका के साथ। उसे अपना बाजार खोलना होगा। उसे रूसी तेल की खरीद रोकनी होगी और ब्रिक्स का साथ छोड़ना होगा। उसे डॉलर को समर्थन देना होगा, वरना 50 फीसदी टैरिफ झेलनी होगी।’ क्या भारत सरकार इन शर्तों को मानेगी? और क्या इन शर्तों के बावजूद यह माना जाएगा कि अमेरिका केंद्रित विदेश नीति भारत के सामने सबसे बेहतर विकल्प है? ये पेचीदा सवाल हैं। मगर अब इनके जवाब ढूंढने होंगे। यह तो साफ है कि भारत को अपनी नाव चुननी होगी। दो नावों पर सवारी के दिन लद गए हैं।