केंद्र सरकार अब ऐसे विधेयक ले आई है, जिनके कानून बनने के बाद गंभीर आपराधिक मामलों में जेल जाने की स्थिति में प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्री और राज्यों के मंत्रियों को उनके पद से हटाने का प्रावधान हो जाएगा।
लोकसभा चुनाव से पहले दो मुख्यमंत्री पद पर रहते गिरफ्तार किए गए थे। उनमें से झारखंड के हेमंत सोरेन ने तो इस्तीफा देकर भारत की संवैधानिक व्यवस्था को नैतिक दुविधा से बचा लिया, लेकिन जब बारी अरविंद केजरीवाल की आई, तो उन्होंने भारत की राजनीतिक व्यवस्था में आ रही चरमराहट को उजागर कर देने की रणनीति अपनाई। केजरीवाल ने इस्तीफा नहीं दिया। तब यह अजीबोगरीब स्थिति बनी कि एक मुख्यमंत्री जेल में रहते हुए वहीं से सरकार चलाने का दावा कर रहा था। भारत में आज जो सियासी सूरत है, उसके बीच ऐसी विडंबनाओं की गुंजाइश लगातार बनी हुई है। नियम या कानूनों को जब अत्यधिक खींच दिया जाता है, तो मर्यादाओं का तार-तार होना स्वाभाविक परिणाम होता है।
अब केंद्र ने ऐसी परिस्थितियों के कानूनी समाधान की पहल की है। वह ऐसे विधेयक ले आया है, जिनके कानून बनने के बाद गंभीर आपराधिक मामलों में जेल जाने की स्थिति में प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्री और राज्यों के मंत्रियों को उनके पद से हटाने का प्रावधान हो जाएगा। जेल गए पदाधिकारी की रिहाई के बाद उसे पद पर वापस लाने का प्रावधान भी किया जा रहा है। अगर आज यह धारणा होती कि संवैधानिक व्यवस्था सामान्य ढंग से काम कर रही है और कानून लागू करने वाली एजेंसियां निष्पक्षता से ठोस तथ्यों के आधार पर कदम उठाती हैं, तो प्रस्तावित नए कानून को एक स्वस्थ पहल माना जाता। लेकिन दुर्भाग्य से आज धारणाएं उसके उलट हैं।
प्रचलित धारणा यह है कि कानून लागू करने वाली एजेंसियां राजनेताओं के दल और उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता को देख कर उनके अपराध तय करती हैं। ऐसे में प्रस्तावित कानून पर विपक्षी खेमों में आशंका पैदा होना लाजिमी प्रतिक्रिया माना जाएगा। इस पर केंद्र ने विपक्ष से कोई संवाद नहीं किया है। इस कारण आशंकाओं की गुंजाइश और भी ज्यादा है। इसलिए उचित होगा कि ऐसा कानून लागू करने के पहले केंद्र उस पर सभी पक्षों को भरोसे में ले। इस बारे में आम सहमति बनाए जाने की जरूरत है। वरना, प्रस्तावित कानून को सत्ता के केंद्रीकरण के एक और प्रयास के रूप में देखा जाएगा।