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भाजपा गिरवी है विधायकों के पास…

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भोपाल। मध्यप्रदेश में भाजपा के हाल अच्छे नहीं है इसकी वजह कार्यकर्ता और नेता कम बल्कि दिल्ली और संघ से भेजे गए उनके चहेते अधिक दोषी हैं। कड़वा है मगर सच यही है। कर्नाटक में भाजपा की हार के बाद सूबे में पार्टी के वफादार चिंतित हैं। हालात यह है कि मंडल से लेकर जिला अध्यक्ष और उनकी टीम के पदाधिकारी संगठन की बजाए विधायकों की पसंद के बनाए गए हैं। ऐसे में उनकी निष्ठा संगठन को छोड़ विधायकों के प्रति ज्यादा हो गई है। पार्टी काडर कमजोर नही बल्कि ध्वस्त कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। मंडल से जिला तक की भाजपा ही चुनाव जीतने के लिए मैदानी स्तर पर काम करती है। पहले संगठन के नेता उसके माई बाप होते थे अब उसके खैरख्वाह विधायक जी हो गए हैं। इसलिए मंडल से टिकट के समय पैनल में वही नाम आएंगे जिसे विधायक चाहते हैं। संगठन का जो तुर्रा चलता था अब खत्म। इसलिए बागियों पर बड़े नेताओं का नियंत्रण जाता रहा। यह बात किसी के समझ में आए या न आए कार्यकर्ता इसे बखूबी जानता है।

भाजपा के कई संतुष्ट और असंतुष्ट नेता इस बात को बातचीत में स्वीकार भी करते हैं। अब से कोई एक दशक पूर्व एक दिवगंत सह संगठन मंत्री के कार्यकाल में मंडल व जिलों के संगठन पर विधायकों की पसंद और फिर कब्जेदारी शुरू हुई जो धीरे धीरे परवान चढ़ती गई। हालात यह है कि संगठन के पदाधिकारी विधायक साहिबानों की मर्जी के बिना दौरे और बैठक तक नही कर सकते। शहर के नगर पालिका अध्यक्ष , महापौर, जिला पंचायत अध्यक्ष और प्रभारी मंत्री तक उनकी मर्जी के बिना पत्ता नही हिला सकते। भले ही विधायकों के खिलाफ जनता व कार्यकर्ताओं में नाराजगी हो मगर हर चुनाव में विधायक के पट्ठों को ही टिकट मिलेगा भले ही संगठन का मन नही हो। यही वजह है कि नगरीय निकायों में भाजपा को पहली बार सोलह मे से सात निगम में महापौर उम्मीदवार हार गए। सब विधायकों ने अधिकांश अपने निजी समर्थकों टिकट दिलवाए। भोपाल से लेकर महानगरों और संभागीय, जिला व तहसील स्तर तक यही हाल है। ये तो कहानी का एक पार्ट है।

संकट का दूसरा पार्ट…
भाजपा में संकट का दूसरा और महत्वपूर्ण पार्ट संघ से आए प्रचारक ही बनते जा रहे हैं। संगठन मंत्री या अन्य दायित्व की वजह से उन्हें जो मान प्रतिष्ठा मिलती उसे वे अपनी काबिलियत मान कर चुनाव लड़ने के मूड में आने लगे हैं। पहले यदाकदा ऐसा होता था लेकिन अब इस तरह के अनुभव अधिक आने लगे हैं। सत्ता के पदों पर संघ से मुक्त किए गए प्रचारक आरूढ़ हो रहे हैं। एक तरह से यह भाजपा और जनता में दिनरात काम कर रहे कार्यकर्ताओं के हितों पर डाके की तरह देखा जा रहा है। संघ में रहते और उससे मुक्त किए गए सज्जनगण लोकसभा और विधानसभा चुनाव लड़ने की जमावट के साथ जोडजुगाड में लगे देखे जा रहे है।

अब संघ से भाजपा में आए प्रचारक संगठन को मजबूत करने में कम अपनी पसंद-नापसंद के हिसाब से टीम बनाने में लगते ज्यादा दिख रहे हैं। इसके चलते वे गुटबाजी खत्म करने के बजाए उसके केंद्र बनने लगे। पहले ऐसा कम होता था इसलिए कैडर मजबूत था और डैमेज कंट्रोल का सिस्टम बेहतर था और नेताओं की भी कार्यकर्ताओं में सुनवाई होती थी।

कब विधायक बेस पार्टी बनी पता ही नही चला…
सूबे में भाजपा कब कैडर से ‘विधायक बेस’ पार्टी बन गई पता ही नही चला। बात सन 2003 की है जब भाजपा 173 विधायकों के भारी बहुमत के साथ सत्ता में आई थी। पार्टी के मजबूत काडर ने लगभग दस साल तक सत्ता सुंदरी के सामने अपनी पकड़,परंपरा,धमक, अनुशासन और काफी हद तक नैतिकताओं को संजो कर रखा। लेकिन सत्ता की शराब में डूबे विधायकों की बातें संगठन धीरे धीरे वैसे ही मानता चल गया जैसे बिगड़ैल पुत्रों के मोह में मजबूर माता- पिता उसकी हर अच्छी बुरी बातें मानते जाते हैं।

इसमे संघ से आए समर्पित,संस्कारित, परिपक्व प्रचारकों की अहम भूमिका रही। पार्टी कैडर की सबसे खास बात यह भी थी कि संगठन मंत्रियों, मंत्री- मुख्यमंत्री, महापौर- पार्षदों से लेकर मोर्चा-मंडलों के अध्यक्ष तक पर उनके रहन सहन,चाल चरित्र और व्यवहार पर प्रदेश में संघ मुख्यालय समिधा की बारीक नजर रहती थी। लेकिन अब न तो समिधा में सुदृढ़ता है और न ही भाजपा में संघ से भेजे गए प्रचारकों में नैतिक मूल्यों के साथ सादगी, सरलता, सहजता और संगठन शास्त्र की दक्षता। जबकि जिन पुराने कार्यकर्ताओं को पीढ़ी परिवर्तन के नाम निपटा दिया गया उनमे जिला व मंडल स्तर के कार्यकर्ताओं में आज के शिखर नेताओं से ज्यादा समझ है। मगर करिश्मा करने वाली पुरानी पीढ़ी अब उपेक्षित और असन्तुष्ट की श्रेणी में है।

लगभग 2013 के बाद से गणेश परिक्रमा करने वाले नए नेता कार्यकर्ताओं की जो खेप आई है वे जमीनी हकीकत से परे कारपोरेट कम्पनी के चंपू कर्मचारियों की भांति हां में हां मिला अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। नेतृत्व करने वाले अधिकांश चापलूसों की बोतल में बंद है। बुंदेलखंड की एक मशहूर कहावत है अपना उल्लू सीधा करने के लिए ‘ ऊंट बिलइया ले गई हां जू हां जू कहिए ‘

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