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श्रीहनुमान और महाभारतकालीन कपिध्वज

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पृथ्वी एवं राज्य की प्राप्ति, दीर्घ-आयुष्य एवं सर्वाभ्युदय कल्याण की प्राप्ति होती है। हनुमान की स्तुतियों में हनुमान चालीसा का सर्वाधिक प्रचार है। इसके साथ हि बजरंग वाण, हनुमान बाहुक, हनुमान साठिकादि अनेक सुन्दर पद्यबद्ध श्लोकमय स्तुतियाँ प्रचलित हैं।

30 मार्च -रामनवमी पर विशेष: सनातन भारतीय संस्कृति परम्परा में श्रीहनुमान जी की उपासना अत्यन्त व्यापक रूप में ग्राम-ग्राम, नगर-नगर तथा प्रत्येक तीर्थ स्थलों में, राम मन्दिरों में, सार्वजनिक चबूतरादि स्थलों पर होता है। इसके साथ ही घर-घर में हनुमान जी की उपासना के अनेक स्तोत्र, पटल, पद्धतियाँ, शतनाम तथा सहस्त्रनाम एवं हनुमान चालीसादि का पाठ होता है। कपिरूप में होने पर भी वे समस्त मंगल और मोदों के मूल कारण, संसार के भार को दूर करने वाले तथा रूद्र के अवतार माने गये हैं। श्रीहनुमानजी को समस्त प्रकार के अमंगलों को कोसों दूर कर कल्याण राशि प्रदान करने वाला तथा भगवान की तरह साधु संत, देवता-भक्त एवं धर्म की रक्षा करने वाला माना जाता है। रामायण एवं पुराणादि ग्रन्थों के अनुसार हनुमान जी के ह्रदय में भगवान श्रीसीताराम सदा ही निवास करते हैं।

भारतीय परम्परा की विशिष्टता रही है कि जिस विग्रह की प्रधान रूप से उपासना की जाती है, वह ब्रह्म का प्रतीक माना बन जाता है, तथा अन्य देवतागण उस रूप के उपासक बन जाते हैं। शिव की पूजा विष्णु और विष्णु की पूजा शिवादि करते हैं और ब्रह्मा, विष्णु, शिवादि सभी सरस्वती, काली, कृष्णादि की पूजा-अर्चना करते हैं, परन्तु हनुमान के साथ ऐसा नहीं है। हनुमान इसके महत्वपूर्ण उदहारणस्वरुप हैं। भारतीय पुरातन ग्रन्थों में कहीं भी हनुमान को ब्रह्म का प्रतीक नहीं माना गया है, परन्तु भगवान श्रीराम के परम प्रिय भक्त के रूप में श्रीहनुमान की उपासना सर्वत्र होती देखी जाती है।

भारतीय धार्मिक परम्परा में यह अद्भुत बात दृष्टिगोचर होता है कि हनुमान सम्बन्धी न कोई उपनिषद है, और न स्वतंत्र रूप में किसी ग्रन्थ की रचना हुई है, तथापि मन्त्र सम्बन्धी निबन्ध ग्रन्थों में इनकी उपासना के अनेक प्रकरण अंकित हैं। आनन्द रामायण में इनके कवच, पटल, स्तोत्रादि भी उपनिबद्ध हैं। नारदादि पुराणों में, एवं यामल ग्रन्थों तथा हनुमदुपासना नामक ग्रन्थों में इनकी विस्तृत उपासना पद्धति अंकित है। ऐसी मान्यता है कि हनुमान की उपासना से राम की भक्ति तथा इनकी प्रसन्नता से वाद-जय, युद्ध में विजय, पृथ्वी एवं राज्य की प्राप्ति, दीर्घ-आयुष्य एवं सर्वाभ्युदय कल्याण की प्राप्ति होती है। हनुमान की स्तुतियों में हनुमान चालीसा का सर्वाधिक प्रचार है। इसके साथ हि बजरंग वाण, हनुमान बाहुक, हनुमान साठिकादि अनेक सुन्दर पद्यबद्ध श्लोकमय स्तुतियाँ प्रचलित हैं। इसके अतिरिक्त इनकी प्रसन्नता हेतु वाल्मिकी रामायण, आध्यात्म रामायण एवं रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड के पाठ भक्त-उपासक गण किया करते हैं।

प्रत्येक मंगल एवं शनिवार को हनुमान जी की मन्दिरों में भक्तगण बड़ी श्रद्धा से हनुमान का दर्शन कर समस्त अभिलाषाएं पूर्ण करने के लिए प्रार्थनायें करते व मनौतियाँ मानते देखे जाते है। कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के सायंकाल इनका जन्म-उत्सव तथा कार्तिक अमावस्या एवं चैत्र पूर्णिमा को इनकी जयन्तियाँ मनाई जाती हैं तथा माँगलिक दर्शन किया जाता है। इसके अतिरिक्त भगवान श्रीराम के अवतार दिवस चैत्र शुक्ल नवमी को जहाँ-जहाँ हनुमान के परम उपास्य श्रीराम का पूजा-अर्चना, उपासना, नाम, कथा-कीर्तन होता है, वहाँ-वहाँ कपिध्वज फहराकर रामभक्तों के परमाधार, रक्षक और श्रीराम मिलन के अग्रदूत, श्रीराम के अंतरंग पार्षद श्रीहनुमान की पूजा-अर्चना, कीर्तनादि होती है तथा उनकी जयकार के नारे लगाए जाने की परिपाटी है। लोगों में ऐसी मान्यता है कि जहाँ-जहाँ श्रीरघुनाथ के नाम, रूप, गुण, लीलादि का कीर्तन होता है, वहाँ-वहाँ मस्तक से बंधी हुई अंजलि लगाये नेत्रों में आंसू भरे हनुमान जी उपस्थित रहते हैं। इसलिए राक्षस वंश के कालरूप उन मारुति को नमस्कार करना चाहिए। कहा भी गया है-

यत्र-यत्र रघुनाथकीर्तन तत्र-तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम् ।

वाष्पवारिपरिपूर्णलोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तकम् ।।

 

अमंगल विनाशक

समस्त अमंगलों के विनाशक मंगलमूर्ति भक्वर श्रीहनुमान का चरित्र परम पवित्र, परम आदर्श तथा कल्याणमय के साथ ही अत्यन्त विचित्र भी है। ब्रह्मपुराणादि ग्रन्थों के अनुसार श्री हनुमान वृषाकपि अर्थात शिव-विष्णु के  तेजोमय दिव्य विग्रहधारी देवता के रूप में निरुपित हुए हैं। विविध पुराणों एवं अनेकाधिक रामायणों के अनुसार वैवस्वत मन्वन्तर के चौबीसवें त्रेता युग में हनुमान जी अंजना नामक अप्सरा से केसरी पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए। इसलिए श्री हनुमान आञ्जनेय तथा केसरीनन्दन के नाम से जाने जाते हैं। वायु के अंश से उत्पन्न होने के कारण वायुपुत्र या पवनसुत, श्रीराम की सेवा में रामदूत तथा महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा अर्जुन के रथ की ध्वजा पर कपिध्वज के रूप में स्थित होकर हुंकारमात्र से महाभारत के वीरों को प्राणस्तब्ध करने के फलस्वरूप फाल्गुणसख के नाम से प्रसिद्ध हुए। गरुड़ादि के वेग के सदृश तीव्रगति से समुद्रलंघन के कारण हनुमान का नाम उदाधिक्रमण पड़ गया एवं कभी पराजित नहीं होने से अपराजित तथा शिव के अंश से उत्पन्न होने के फलस्वरूप शिवात्मज और शंकरसुवन आदि नाम जाने जाते हैं, लेकिन सर्वप्रचलित नाम हनुमान ही है।

भारतीय इतिहास का श्रीगणेश ऋग्वैदिक काल से ही प्रारम्भ होता है। ऋग्वेद में भारतीय ज्ञान-विज्ञान का अंकुर है। भारतीय सभ्यता-संस्कृति, आचार-विचार, युद्ध-कौशलादि की प्रथम झलक विश्व की इस प्राचीन ग्रन्थ में अंकित मिलती है। ऋग्वैदिक आर्य सुसंगठित गिरोहों में जीवन व्यतीत करते थे। उन्हें आर्येतर जातियों से सदा लड़ना-भिड़ना पड़ता था। इसलिए इस दिव्य ग्रन्थ में युद्ध और ध्वजा दोनों ही शब्दों का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में झण्डे अर्थात ध्वजा के लिए धूमकेतु एवं द्रप्स शब्दों का प्रयोग हुआ है (ऋग्वेद 1/27/11 एवं 4/13/2)। विद्वानों का मत है कि ऋग्वेद 4/13/2  में प्रयुक्त द्रप्स शब्द जेंद के द्रप्स का पर्यायवाची है।

महाभारत आर्यों का प्राचीन ग्रन्थ है, इसमें ध्वजाओं का पूरा विवरण अंकित है। इस युग में भिन्न-भिन्न आकार, रंग तथा योजना के झण्डे थेlविख्यात योद्धाओं के झण्डे अलग-अलग तथा राजाओं के झण्डे अलग होते थे। प्रत्येक रथी- महारथी और अतिरथी के झण्डे के नीचे उनकी अधीनस्थ सेनाएं कार्य करती थीं। महाभारत काल में कपिध्वज के रूप में हनुमान के चित्र से चित्रित झण्डे का प्रयोग होने लगा था। पाण्डुपुर अर्जुन महाभारत के उत्कृष्ट पात्र एवं सुप्रसिद्ध योद्धा थे। वे कपिध्वज प्रयोग करते थे। महाभारत द्रोण पर्व 105/8 के अनुसार धनुर्धर अर्जुन की ध्वजा पर हनुमान का चित्र चित्रित थाlसिंह की पूंछ भी उसमे चित्रित रहती थी। महाभारत द्रोण पर्व में कहा गया है-

सिंहलाङ्गल उग्रास्यो ध्वजो वानरलक्षणः ।

धनञ्जयस्य संग्रामे प्रत्यदृश्यत भारत ।।

-महाभारत, द्रोण पर्व 105/8

महाभारत के श्रीकृष्ण और कुन्तीपुत्र अर्जुन की पहचान युद्धक्षेत्र में दूर से ही गरूड़ध्वज और वानरकेतन के सहारे हो जाती थी। श्रीकृष्ण गरूड़ध्वज स्वयं कहे जाते थे और धनुर्धर अर्जुन कपिध्वज।

कपिध्वज का संकेत

अतिपुरातन काल से ही झण्डे का समाज, सैन्य, राष्ट्र तथा धर्म पर इतना व्यापक प्रभाव रहा है कि अनेक बड़े मनुष्यों, की ख्याति झण्डे के कारण मानी जाती रही है। कपिध्वज से महाभारत में अर्जुन का संकेत सहसा मिल जाता था। राजसूय, अश्वमेघ तथा विश्वजीत यज्ञों के शुभ अवसरों पर राजा सार्वभौम घोषित होता था। महाभारत सभापर्व 78/68 के अनुसार उसे उपहार में झण्डे भी मिलते थे। झण्डे का उपहार रथ, हाथी, घोड़े, कवच, सोने, रत्नादिके उपहारों से बढ़कर समझा जाता था। प्रबलतम शत्रु से लोहा लेते हुए अपने सैनिक धनञ्जय के झण्डे को युद्धक्षेत्र में फहराते हुए सुनकर राजा सन्देशहर को अनेक ग्राम,परिचारिकाएँ, रथादि उपहारस्वरूप देता है। महाभारत कर्णपर्व 80/43 में कहा गया है –

कपिर्ह्यसौ वीक्षते सर्वतो वै ध्वजाग्रमारुह्य धनञ्जयस्य।

वित्रासयन्रि पुसङ्घान्विमर्दे  बिभेम्यस्मादात्मनैवाभिवीक्ष्य।।

ददाभि ते ग्रामवरांश्चतुर्दश प्रियाख्याने सारथे सुप्रसन्नः।

दासीशतं चापि रथांश्च विंशतिं यदर्जुनं वेदयसे विशोक।।

– महाभारत, कर्ण पर्व – 80/43

आर्यों के प्राचीन ग्रन्थ महाभारत से ही इस सत्य का सत्यापन होता है कि प्राचीन काल से ही ध्वज संकेतात्मक विद्या (ज्ञान) से अनेकानेक काम सधते रहे हैं। वर्तमान काल में धवज संकेतात्मक विद्या का प्रयोग समुद्र, रणस्थल तथा रेलवे में होता है। स्काऊटिंग में तो इसके द्वारा सन्देश भेजा जाता है तथा झण्डे के विविध संचालन के द्वारा बातें भी होती हैं। प्राचीन काल में जिन झण्डों पर घंटियाँ बंधीं रहती थीं, वे विपक्षी दल को अपने आगमन की सूचना देने में कोई कसर नहीं रखते (करते/छोड़ते) थे। झण्डे से संकेत मिलने का उदहारण महाभारत में अर्जुन का ही देखा जा सकता है-

अज्ञातवास के दौरान पांडव छद्मवेश (गुप्तवेश) में सभी भाइयों सहित विराटनगर में रहते थे। कौरव पाण्डवों का पता लगाने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना बहा रहे थे। उन्हें यह गंध मिल  चुकी थी कि पांडव विराटनगर में वास करते हैं। कीचक वध के पश्चात प्रायः यह सर्वविख्यात हो चुका था कि यह काम बलशाली भीम का ही है तथा पाण्डव विराटनगर में वेश बदलकर रह रहे हैं, परन्तु गुप्तवेश में उनकी पहचान करना अति कठिन था। इसलिए कर्ण के साथ अष्टकौशल कर चुने हुए वीरों ने विराटनगर पर धावा बोल दिया। भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वथामा के सामने विराट राज की सेना स्थिर न रह सकी। विराट राज के पाँव उखड़ गये और उनकी गायों को कुरुवीर खदेड़ते हुए ले चले। चारों ओर हाहाकार मच गया। राजपुत्र उत्तर बृहन्नला रूप अर्जुन से बोला – यदि कोई अर्जुन सा सारथि मिलता तो मैं कुरुवीरों को सबक सिखला देता। छद्मवेशी अर्जुन ने यह सुन हामी भर दी। नगर से बाहर हो अर्जुन ने शमीवृक्ष के गह्वर में सुरक्षित रखे अपने गाण्डीव धनुष, देवदत्त शंख एवं अन्यान्य आयुध (अस्त्र-शस्त्र) लिए और रथ पर कपिध्वज को फहरा दिया। अर्जुन तथा राजपुत्र उत्तर कुरुदल की ओर द्रुतवेग से चल पड़े। अर्जुन का कपिध्वज दूर से ही देखकर कुरु सैनिकों को बोध हो गया कि अर्जुनविराट राज में ही छिपता और अब अतिशीघ्र उससे घमासान छिड़ेगा ।महाभारत विराट पर्व ४६ में कहा गया है-

वानरस्य रथे दिव्यो निस्वानः श्रूयते महानः ।

धनुर्धर अर्जुन को भी किन-किन योद्धाओं से लड़ना पड़ेगा, इसका बोध भी अर्जुन को उन वीरों के झण्डों पर दृष्टिपात करते ही हो गया।महाभारत कालीन अर्जुन के रथ को ध्वजा पर स्थित होकर हुंकारमात्र से महाभारत के कुरुवीरों को प्राणस्तब्ध करने वाले हनुमानके फाल्गुणसख रूपक कपिध्वज के प्रतीक रूप में भक्ति-उपासना, पूजा-अर्चना, स्मरणादि में निरत रहना परम कल्याणकारी है। श्रीरामनवमी के पावन अवसर पर श्रीराम भक्त हनुमान की जय।

By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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